शरीर -न्याय दर्शन

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न्याय दर्शन में दूसरा प्रमेय शरीर है। आत्मा के प्रयत्न से जो क्रिया होती है उसका नाम है चेष्टा। इस चेष्टा का आश्रय शरीर होता है। अत: चेष्टाश्रयत्व शरीर का लक्षण होता है।[1] इसी तरह प्राण आदि इन्द्रियसमूह भी शरीर को ही आश्रय बनाकर रहता है, अतएव ये शरीराश्रित हैं। शरीर के साथ ही इन इन्द्रियों की सत्ता है। अत: अवच्छेदकता-संम्बन्ध से शरीर उनका आश्रय होता है। इन्द्रियाश्रयत्व भी शरीर का लक्षण है। अर्थाश्रयत्व भी शरीर का लक्षण होता है। यहाँ अर्थ से सुख और दु:ख अभिप्रत है।

यद्यपि महर्षि गौतम के मत से जीवात्मा ही साक्षात सम्बन्ध से सुख तथा दु:ख का आश्रय होता है, तथापि जीवात्मा अपने शरीर से ही सुख और दु:ख का भोग करता है। शरीर से बाहर उसका सुख-दु:ख का) अनुभव नहीं होता है। प्रत्येक जीवात्मा का अपना शरीर ही सकल सुख तथा दु:ख के भोग का आयतन या अधिष्ठान है। अत: सुखाश्रय और दु:खश्रय भी शरीर होता है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायसूत्र 1/1/11

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