दु:ख -न्याय दर्शन

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 12:44, 22 August 2011 by गोविन्द राम (talk | contribs)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search
  • न्याय दर्शन में ग्यारहवाँ प्रमेय है दु:ख। दु:ख क्या है- इसके ज्ञान के बिना अपवर्ग-प्राप्ति का अधिकार ही नहीं बनता है। बांधना, पीड़ा तथा ताप आदि शब्द का अर्थ ही दु:ख हैं।[1] प्राचीन आचार्यों के मत से इसके तीन भेद हैं- आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक। जो ‘त्रिताप‘ पद से प्रसिद्ध है। प्रतिकूल अनुभूति के कारण दु:ख स्वभाव से ही अप्रिय पदार्थ है। इसका लक्षण ‘प्रतिकूल वेदनीय‘ कहा गया है।

आचार्य उद्योतकर ने इसके इक्कीस प्रकार बताए हैं।

  • जीवों के दु:ख का घर है शरीर, उस दु:ख के साधन घ्राण आदि छह इन्द्रियाँ, उन इन्द्रियों के ग्राह्य विभिन्न छ: विषय, उन छह विषयों के ज्ञान तथा दु:ख से लिप्त सुख ये बीस प्रकार के गौण दु:ख है और मुख्य दु:ख प्रतिकूल वेदनीय है। भाष्यकार ने कहा है- जहाँ सुख है वहाँ दु:ख अवश्य रहता है। सुख के साथ दु:ख का अविनाभाव संबन्ध है। फलत: जीवों के सुख भी दु:ख हैं। सुख के कारण शरीर आदि तो दु:ख है ही।
  • इन सभी दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति को ही मुक्ति के रूप में व्याख्या की गयी है। यहाँ एक बात अवधेय है। यह कदापि नहीं मानना चाहिए कि महर्षि गौतम सुख पदार्थ को नहीं मानते हैं। उन्होंने अनेक सूत्रों में सुख पद का व्यवहार किया है। किन्तु उनका कहना है कि मुमुक्षु व्यक्ति सुख का भी दु:ख के रूप में ही ध्यान करता है अतएव प्रमेय वर्ग में उसका उल्लेख नहीं किया गया है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न्यायसूत्र 1/1/21

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः