लहरों के राजहंस -मोहन राकेश

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 10:09, 3 January 2013 by गोविन्द राम (talk | contribs)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search
लहरों के राजहंस -मोहन राकेश
लेखक मोहन राकेश
मूल शीर्षक लहरों के राजहंस
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी 2009
ISBN 9788126708512
देश भारत
पृष्ठ: 132
भाषा हिन्दी
प्रकार नाटक
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द

'लहरों के राजहंस' प्रसिद्ध साहित्यकार मोहन राकेश द्वारा लिखा गया नाटक है। इसका प्रथम प्रकाशन वर्ष 1963 में और फिर संशोधित प्रकाशन 1968 में हुआ। इस नाटक की भूमिका के अन्त में राकेश जी ने यह इच्छा व्यक्त की थी कि इस नाटक के 1963 में छपे प्रथम रूप का प्रकाशन भविष्य में नहीं होना चाहिए।

कथावस्तु

'लहरों के राजहंस' में एक ऐसे कथानक का नाटकीय पुनराख्यान है, जिसमें सांसारिक सुखों और आध्यात्मिक शांति के पारस्परिक विरोध तथा उनके बीच खड़े हुए व्यक्ति के द्वारा निर्णय लेने का अनिवार्य द्वन्द्व निहित है। इस द्वन्द्व का एक दूसरा पक्ष स्त्री और पुरुष के पारस्परिक संबंधों का अंतर्विरोध है। जीवन के प्रेय और श्रेय के बीच एक कृत्रिम और आरोपित द्वन्द्व है, जिसके कारण व्यक्ति के लिए चुनाव कठिन हो जाता है और उसे चुनाव करने की स्वतंत्रता भी नहीं रह जाती। अनिश्चित, अस्थिर और संशयी मन वाले नंद की यही चुनाव की यातना ही इस नाटक का कथा-बीज और उसका केन्द्र-बिन्दु है। धर्म-भावना से प्रेरित इस कथानक में उलझे हुए ऐसे ही अनेक प्रश्नों का इस कृति में नए भाव-बोध के परिवेश में परीक्षण किया गया है।

मोहन राकेश का यह नाटक ‘लहरों के राजहंस’ कुछ अंशों में ‘आषाढ़ का एक दिन’ की उपलब्धियों को अधिक सक्षम और गहरा करता है, यद्यपि रूपबंध के स्तर पर उसका तीसरा अंक अधिक दुर्बल है और पर्याप्त स्पष्टता और तीव्रता के साथ अभिव्यंजित नहीं होता। इसमें भी सुदूर अतीत के एक आधार पर आज के मनुष्य की बेचैनी और अन्तर्द्वन्द्व संप्रेषित है। हर व्यक्ति को अपनी मुक्ति का पथ स्वयं ही तलाश करना होता है। दूसरों के द्वारा खोजा गया पथ चाहे जितना श्रद्धास्पद हो[1], चाहे जितना आकर्षक और मोहक हो[2] किसी संवेदनशील व्यक्ति का समाधान नहीं कर सकता। इसलिए नाटक के अंत में नंद न केवल बुद्ध द्वारा बलपूर्वक थोपा गया भिक्षुत्व अस्वीकार कर देता है, बल्कि सुंदरी के आत्मसंतुष्ट और छोटे वृत्त में आबद्ध किन्तु आकर्षक जीवन को भी त्यागकर चला जाता है। अपनी मुक्ति का मार्ग उसे स्वयं ही रचना होगा।[3]

इस नाटक में भी मोहन राकेश कार्य-व्यापार को दैनंदिनी क्रिया-कलाप से उठाकर एक सार्थक अनुभूति और उसके भीतर किसी अर्थ की खोज के स्तर पर ले जा सके हैं। किन्तु इसकी विषयवस्तु में पर्याप्त सघनता, एकाग्रता और संगति नहीं है। पहला अंक सुंरी पर केन्द्रित जान पड़ता है, जिसमें नन्द एक लुब्ध मुग्ध, किसी हद तक संयोजित और संतुलनयुक्त, पति नात्र लगता है। किन्तु दूसरे अंक से नाचक स्वयं उसके अंत:संघर्ष पर केन्द्रित होने लगता है, यद्यपि अभी इस संघर्ष की रूपरेखा अस्पष्ट है। तीसरे अंक में संघर्ष की आकृति तो स्पष्ट होने लगती है, किंतु वह किसी तीव्रता या गहराई का आयाम प्राप्त करने के बजाय अकस्मात ही नंद और सुंदरी के बीच एक प्रकार की गलतफ़हमी में खो जाता है। दोनों एक दूसरे के संघर्ष का, व्यक्तित्वों के विस्फोट का, सामना नहीं करते और नंद बड़ी विचित्र सी कायरता से चुपचाप घर छोड़कर चला जाता है। उसके इस पलायन की अनिवार्यता नाटक के कार्य व्यापार में नहीं है। बल्कि एक अन्य स्तर पर वह ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास के भी इसी प्रकार के भाग निकलने की याद दिलाता है। कुल मिलाकर, तीनों अंक अलग-अलग से लगते हैं, जिनमें सामग्रिक अन्विति नहीं अनुभव होती। किंतु इस कमी के बावजूद, पहला और दूसरा अंक अत्यन्त सावधानी से गठित और अपने आप में अत्यन्त कलापूर्ण है। विशेषकर दूसरे अंक में, नंद और सुंदरी के बीच दो अलग-अलग सतरों पर चलने वाले पारस्परिक आकर्षण उद्वेग तथा उसके तनाव की बड़ी सूक्षमता, संवेदनशीलता और कुशलता के साथ प्रस्तुत किया गया है।[3]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जैसा गौतम बुद्ध का
  2. जैसा सुंदरी का
  3. 3.0 3.1 2013। मोहन राकेश के सम्पूर्ण राकेश (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 जनवरी, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः