Difference between revisions of "अपवर्ग -न्याय दर्शन"

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('न्याय दर्शन में ग्यारहवाँ प्रमेय है दु:ख। दु:ख क्या...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
 
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[[न्याय दर्शन]] में ग्यारहवाँ प्रमेय है दु:ख। दु:ख क्या है- इसके ज्ञान के बिना अपवर्ग-प्राप्ति का अधिकार ही नहीं बनता है। बांधना, पीड़ा तथा ताप आदि शब्द का अर्थ ही दु:ख हैं।<ref>न्यायसूत्र 1/1/21</ref> प्राचीन आचार्यों के मत से इसके तीन भेद हैं- आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक। जो ‘त्रिताप‘ पद से प्रसिद्ध है। प्रतिकूल अनुभूति के कारण दु:ख स्वभाव से ही अप्रिय पदार्थ है। इसका लक्षण ‘प्रतिकूल वेदनीय‘ कहा गया है।
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* [[न्याय दर्शन]] में बारहवाँ [[प्रमेय -न्याय दर्शन|प्रमेय]] अपवर्ग है। दु:ख की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अपवर्ग है।<ref>न्यायसूत्र 1/1/22</ref> सुषुप्तिकाल में तथा प्रलय आदि में जो दु:ख की सामयिक निवृत्ति होती है, वह आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति नहीं है। जिस दु:ख की निवृत्ति के बाद पुन: कदापि जन्म नहीं हो अर्थात् दु:खोत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यन्तिक दु:खनिवृत्ति है। इस अपवर्ग की प्राप्ति के उपाय न्यायदर्शन के द्वितीय सूत्र में वर्णित हैं।  
आचार्य उद्योतकर ने इसके इक्कीस प्रकार बताए हैं।
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*तत्त्वज्ञान के उदय से मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है और मिथ्याज्ञान के अभाव में रागद्वेषात्मिका प्रवृत्ति नहीं होती है। प्रवृत्ति के अभाव में इस संसार में किसी का जन्म नहीं होता है और जब जन्म ही नहीं होगा तो दु:खों का भोग वहाँ कैसे किसको होगा। इस तरह तत्त्वज्ञान की प्रक्रिया से अपवर्ग का लाभ होता है।  
 
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* यहाँ इसके उपसंहार में इतना कहना आवश्यक है कि इन बारह प्रमेयों में हेय और उपादेय का भी विचार किया गया है। शरीर आदि दु:खपर्यन्त दश प्रमेय हेय अर्थात् त्याज्य हैं। प्रथम और अन्तिम अर्थात् आत्मा और अपवर्ग उपादेय (ग्रहण करने योग्य) हैं।
जीवों के दु:ख का घर है शरीर, उस दु:ख के साधन घ्राण आदि छह इन्द्रियाँ, उन इन्द्रियों के ग्राह्य विभिन्न छ: विषय, उन छह विषयों के ज्ञान तथा दु:ख से लिप्त सुख ये बीस प्रकार के गौण दु:ख है और मुख्य दु:ख प्रतिकूल वेदनीय है। भाष्यकार ने कहा है- जहाँ सुख है वहाँ दु:ख अवश्य रहता है। सुख के साथ दु:ख का अविनाभाव संबन्ध है। फलत: जीवों के सुख भी दु:ख हैं। सुख के कारण शरीर आदि तो दु:ख है ही।
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* आत्मा का न तो उच्छेद संभव है और न तो उसका उच्छेद किसी का काम्य हो सकता है। अतएव वह उपादेय है। अपवर्ग तो आत्मा का परम तथा चरम लक्ष्य है, क्योंकि वही चिरस्थायी होता है, वह तो उपादेय है ही। दु:ख स्वभाव से ही अप्रिय होने से अवश्य हेय है।
इन सभी दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति को ही मुक्ति के रूप में व्याख्या की गयी है। यहाँ एक बात अवधेय है। यह कदापि नहीं मानना चाहिए कि महर्षि गौतम सुख पदार्थ को नहीं मानते हैं। उन्होंने अनेक सूत्रों में सुख पद का व्यवहार किया है। किन्तु उनका कहना है कि मुमुक्षु व्यक्ति सुख का भी दु:ख के रूप में ही ध्यान करता है अतएव प्रमेय वर्ग में उसका उल्लेख नहीं किया गया है।  
 
  
  

Latest revision as of 12:45, 22 August 2011

  • nyay darshan mean barahavaan pramey apavarg hai. du:kh ki atyantik nivritti hi apavarg hai.[1] sushuptikal mean tatha pralay adi mean jo du:kh ki samayik nivritti hoti hai, vah atyantik du:khanivritti nahian hai. jis du:kh ki nivritti ke bad pun: kadapi janm nahian ho arthath du:khotpatti ke karan ka abhav hi atyantik du:khanivritti hai. is apavarg ki prapti ke upay nyayadarshan ke dvitiy sootr mean varnit haian.
  • tattvajnan ke uday se mithyajnan nasht ho jata hai aur mithyajnan ke abhav mean ragadveshatmika pravritti nahian hoti hai. pravritti ke abhav mean is sansar mean kisi ka janm nahian hota hai aur jab janm hi nahian hoga to du:khoan ka bhog vahaan kaise kisako hoga. is tarah tattvajnan ki prakriya se apavarg ka labh hota hai.
  • yahaan isake upasanhar mean itana kahana avashyak hai ki in barah prameyoan mean hey aur upadey ka bhi vichar kiya gaya hai. sharir adi du:khaparyant dash pramey hey arthath tyajy haian. pratham aur antim arthath atma aur apavarg upadey (grahan karane yogy) haian.
  • atma ka n to uchchhed sanbhav hai aur n to usaka uchchhed kisi ka kamy ho sakata hai. atev vah upadey hai. apavarg to atma ka param tatha charam lakshy hai, kyoanki vahi chirasthayi hota hai, vah to upadey hai hi. du:kh svabhav se hi apriy hone se avashy hey hai.


tika tippani aur sandarbh

  1. nyayasootr 1/1/22

bahari k diyaan

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