ढोला मारू: Difference between revisions

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<blockquote>सोरठियो दूहो भलो, भलि मरवणरी बात।<br />
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जोवन छाई धण भली, तारांछाई रात।।</blockquote>
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'''ढोला मारू रा दूहा''' ग्यारहवीं शताब्दी मे रचित एक लोक-भाषा काव्य है। मूलतः दोहो में रचित इस लोक काव्य को सत्रहवीं शताब्दी में कुशलराय वाचक ने कुछ चौपाईयां जोड़कर विस्तार दिया। इसमे राजकुमार ढोला और राजकुमारी मारू की प्रेमकथा का वर्णन है।
'''ढोला मारू रा दूहा''' ग्यारहवीं शताब्दी में रचित एक लोक-भाषा काव्य है। मूलतः [[दोहा|दोहों]] में रचित इस लोक [[काव्य]] को सत्रहवीं शताब्दी में कुशलराय वाचक ने कुछ [[चौपाई|चौपाईयां]] जोड़कर विस्तार दिया। इसमें राजकुमार ढोला और राजकुमारी मारू की प्रेमकथा का वर्णन है।
==ढोला मारू का कथानक==
==ढोला मारू का कथानक==
[[चित्र:Dhola-maru-book.jpg|thumb|'ढोला मारू रा दूहा' पुस्तक का आवरण पृष्ठ]]
[[चित्र:Dhola-maru-book.jpg|thumb|left|'ढोला मारू रा दूहा' पुस्तक का आवरण पृष्ठ]]
इस प्रेम वार्ता का कथानक, सूत्र में इतना ही है कि पूंगल का राजा अपने देश में [[अकाल]] पड़ने के कारण [[मालवा]] प्रान्त में, परिवार सहित जाता है। उसकी शिशु वय की राजकुमारी मारवणी (मारू) का बाल-विवाह, मालवा के साल्ह कुमार (ढोला) से कर दिया जाता है। सुकाल हो जाने से पूंगल का राजा लौट कर घर आ जाता है। साल्हकुमार वयस्क होने पर अपनी पत्नी को लिवाने नहीं जाता है। उसे इस [[बाल विवाह]] का ज्ञान भी नहीं होता है। इस बीच साल्हकुमार का विवाह मालवणी से हो जाता है जो सुन्दर और पति-अनुरक्ता है। मालवणी को मारू (सौत) के होने का ज्ञान है और पूंगल का कोई संदेश अपने मालवा में आने नहीं देती है। कालांतर में मारवणी (मारू) अंकुरित यौवना होती है। उस पर यौवन अपना रंग दिखाता है। इधर स्वप्न में उसे प्रिय का दर्शन भी हो जाता है। [[पर्यावरण]] से सभी उपकरण उसे विरह का दारुण दु:ख देते हैं। पपिहा, [[सारस]] एवं कुञ्ज पक्षीगण को वह अपनी विरह व्यथा सम्बोधित करती है। पूंगल के राजा के पास एक घोड़ों का सौदागर आता है और मालवा के साल्हकुमार की बात करता है। यह सूचना सुनकर मारू और व्यथित हो जाती है। साल्हकुमार को बुलावा ढाढियों (माँगणहार) के द्वारा भेजा जाता है। यह गाने बजाने वाले चतुर ढाढी गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर, साल्हकुमार (ढोला) को मारू की स्थिति का पूरा ज्ञान करा देते हैं। ढोला पूंगल हेतु प्रस्थान करना चाहता है परन्तु सौत मालवणी उसे बहाने बनाकर रोकती रहती है। मालवणी की ईर्ष्या, चिन्ता, उन्माद, कपट, विरह और असहाय अवस्था का वर्णन दूहों में विस्तार से हुआ है। अन्त में ढोला प्रस्थान कर ही देता है और पूंगल पहुँच जाता है। ढोला और मारवणी का मिलन होता है। सुख विलास में समय व्यतीत होता है। फिर पति-पत्नी अपने देश लौटते हैं तो मार्ग में ऊमर-सूमरा के जाल से तो बच जाते हैं परन्तु एक नई विपदा उन्हें घेर लेती है। रात्रि को रेगिस्तान का पीवणा (सर्प) मारू को सूंघ जाता है। मारू के मृत-प्राय अचेतन शरीर को देखकर स्थिति विषम हो जाती है। विलाप और क्रन्दन से सारा वातावरण भर जाता है। तब [[शिव]]-[[पार्वती]] प्रकट होकर मारू को जीवित करते हैं। ढोला मारू सकुशल अपने घर पहुंचते हैं। आनन्द से जीवन व्यतीत करते हैं। वहां पर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारवणी को अधिक प्यार व स्नेह समर्पित करता है।<ref>{{cite web |url=http://www.rachanakar.org/2008/06/blog-post_10.html |title= ढोला-मारू का कथानक|accessmonthday=15 अक्टूबर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=रचनाकार |language=हिंदी }}</ref>
इस प्रेम वार्ता का कथानक, सूत्र में इतना ही है कि पूंगल का राजा अपने देश में [[अकाल]] पड़ने के कारण [[मालवा]] प्रान्त में, परिवार सहित जाता है। उसकी शिशु वय की राजकुमारी मारवणी (मारू) का बाल-विवाह, मालवा के साल्ह कुमार (ढोला) से कर दिया जाता है। सुकाल हो जाने से पूंगल का राजा लौट कर घर आ जाता है। साल्हकुमार वयस्क होने पर अपनी पत्नी को लिवाने नहीं जाता है। उसे इस [[बाल विवाह]] का ज्ञान भी नहीं होता है। इस बीच साल्हकुमार का विवाह मालवणी से हो जाता है जो सुन्दर और पति-अनुरक्ता है। मालवणी को मारू (सौत) के होने का ज्ञान है और पूंगल का कोई संदेश अपने मालवा में आने नहीं देती है। कालांतर में मारवणी (मारू) अंकुरित यौवना होती है। उस पर यौवन अपना रंग दिखाता है। इधर स्वप्न में उसे प्रिय का दर्शन भी हो जाता है। [[पर्यावरण]] से सभी उपकरण उसे विरह का दारुण दु:ख देते हैं। पपिहा, [[सारस]] एवं कुञ्ज पक्षीगण को वह अपनी विरह व्यथा सम्बोधित करती है। पूंगल के राजा के पास एक घोड़ों का सौदागर आता है और मालवा के साल्हकुमार की बात करता है। यह सूचना सुनकर मारू और व्यथित हो जाती है। साल्हकुमार को बुलावा ढाढियों (माँगणहार) के द्वारा भेजा जाता है। यह गाने बजाने वाले चतुर ढाढी गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर, साल्हकुमार (ढोला) को मारू की स्थिति का पूरा ज्ञान करा देते हैं। ढोला पूंगल हेतु प्रस्थान करना चाहता है परन्तु सौत मालवणी उसे बहाने बनाकर रोकती रहती है। मालवणी की ईर्ष्या, चिन्ता, उन्माद, कपट, विरह और असहाय अवस्था का वर्णन दूहों में विस्तार से हुआ है। अन्त में ढोला प्रस्थान कर ही देता है और पूंगल पहुँच जाता है। ढोला और मारवणी का मिलन होता है। सुख विलास में समय व्यतीत होता है। फिर पति-पत्नी अपने देश लौटते हैं तो मार्ग में ऊमर-सूमरा के जाल से तो बच जाते हैं परन्तु एक नई विपदा उन्हें घेर लेती है। रात्रि को रेगिस्तान का पीवणा (सर्प) मारू को सूंघ जाता है। मारू के मृत-प्राय अचेतन शरीर को देखकर स्थिति विषम हो जाती है। विलाप और क्रन्दन से सारा वातावरण भर जाता है। तब [[शिव]]-[[पार्वती]] प्रकट होकर मारू को जीवित करते हैं। ढोला मारू सकुशल अपने घर पहुंचते हैं। आनन्द से जीवन व्यतीत करते हैं। वहां पर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारवणी को अधिक प्यार व स्नेह समर्पित करता है।<ref>{{cite web |url=http://www.rachanakar.org/2008/06/blog-post_10.html |title= ढोला-मारू का कथानक|accessmonthday=15 अक्टूबर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=रचनाकार |language=हिंदी }}</ref>



Latest revision as of 11:17, 15 October 2013

thumb|ढोला मारू ढोला मारू की कथा राजस्थान की अत्यन्त प्रसिद्ध लोक गाथा है। इस लोकगाथा की लोकप्रियता का अनुमान निम्नलिखित दोहे से लगाया जा सकता है, जो राजस्थान में अत्यन्त प्रसिद्ध है-

सोरठियो दूहो भलो, भलि मरवणरी बात।
जोवन छाई धण भली, तारांछाई रात।।

ढोला मारू रा दूहा ग्यारहवीं शताब्दी में रचित एक लोक-भाषा काव्य है। मूलतः दोहों में रचित इस लोक काव्य को सत्रहवीं शताब्दी में कुशलराय वाचक ने कुछ चौपाईयां जोड़कर विस्तार दिया। इसमें राजकुमार ढोला और राजकुमारी मारू की प्रेमकथा का वर्णन है।

ढोला मारू का कथानक

thumb|left|'ढोला मारू रा दूहा' पुस्तक का आवरण पृष्ठ इस प्रेम वार्ता का कथानक, सूत्र में इतना ही है कि पूंगल का राजा अपने देश में अकाल पड़ने के कारण मालवा प्रान्त में, परिवार सहित जाता है। उसकी शिशु वय की राजकुमारी मारवणी (मारू) का बाल-विवाह, मालवा के साल्ह कुमार (ढोला) से कर दिया जाता है। सुकाल हो जाने से पूंगल का राजा लौट कर घर आ जाता है। साल्हकुमार वयस्क होने पर अपनी पत्नी को लिवाने नहीं जाता है। उसे इस बाल विवाह का ज्ञान भी नहीं होता है। इस बीच साल्हकुमार का विवाह मालवणी से हो जाता है जो सुन्दर और पति-अनुरक्ता है। मालवणी को मारू (सौत) के होने का ज्ञान है और पूंगल का कोई संदेश अपने मालवा में आने नहीं देती है। कालांतर में मारवणी (मारू) अंकुरित यौवना होती है। उस पर यौवन अपना रंग दिखाता है। इधर स्वप्न में उसे प्रिय का दर्शन भी हो जाता है। पर्यावरण से सभी उपकरण उसे विरह का दारुण दु:ख देते हैं। पपिहा, सारस एवं कुञ्ज पक्षीगण को वह अपनी विरह व्यथा सम्बोधित करती है। पूंगल के राजा के पास एक घोड़ों का सौदागर आता है और मालवा के साल्हकुमार की बात करता है। यह सूचना सुनकर मारू और व्यथित हो जाती है। साल्हकुमार को बुलावा ढाढियों (माँगणहार) के द्वारा भेजा जाता है। यह गाने बजाने वाले चतुर ढाढी गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर, साल्हकुमार (ढोला) को मारू की स्थिति का पूरा ज्ञान करा देते हैं। ढोला पूंगल हेतु प्रस्थान करना चाहता है परन्तु सौत मालवणी उसे बहाने बनाकर रोकती रहती है। मालवणी की ईर्ष्या, चिन्ता, उन्माद, कपट, विरह और असहाय अवस्था का वर्णन दूहों में विस्तार से हुआ है। अन्त में ढोला प्रस्थान कर ही देता है और पूंगल पहुँच जाता है। ढोला और मारवणी का मिलन होता है। सुख विलास में समय व्यतीत होता है। फिर पति-पत्नी अपने देश लौटते हैं तो मार्ग में ऊमर-सूमरा के जाल से तो बच जाते हैं परन्तु एक नई विपदा उन्हें घेर लेती है। रात्रि को रेगिस्तान का पीवणा (सर्प) मारू को सूंघ जाता है। मारू के मृत-प्राय अचेतन शरीर को देखकर स्थिति विषम हो जाती है। विलाप और क्रन्दन से सारा वातावरण भर जाता है। तब शिव-पार्वती प्रकट होकर मारू को जीवित करते हैं। ढोला मारू सकुशल अपने घर पहुंचते हैं। आनन्द से जीवन व्यतीत करते हैं। वहां पर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारवणी को अधिक प्यार व स्नेह समर्पित करता है।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ढोला-मारू का कथानक (हिंदी) रचनाकार। अभिगमन तिथि: 15 अक्टूबर, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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