चूड़ी: Difference between revisions
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चूड़ियाँ पहनने का | चूड़ियाँ पहनने का रिवाज आदिकाल से चला जा रहा है। रंग-बिरंगी खनखनाती चूड़ियाँ, जहाँ कलाई में सुंदर लगती हैं, वहीं उनकी मधुर ध्वनि [[कान|कानों]] को भी प्यारी लगती है। सभी प्रांतों में चूड़ी वाले आशीष के नाम पर एक चूड़ी अपनी ओर से पहनाते हैं। सुनहरी और लाल रंग के अलावा हरी और सफ़ेद रंग की चूड़ियाँ भी रिवाज में हैं। ये सौभाग्य और खुशहाली की प्रतीक हैं। कई प्रांतों में शादी की रस्म के साथ दुल्हे द्वारा दुल्हन को चूड़ी पहनाने की रस्म अदा की जाती है। कुल मिलाकर लड़कियों एवं महिलाओं की खुशी के रंग चूड़ी के संग गुज़रते हैं जो सुख एवं खुशहाली की प्रतीक मानी जाती हैं।<ref>{{cite web |url=http://dainiktribuneonline.com/2010/07/%E0%A4%AC%E0%A4%9C-%E0%A4%89%E0%A4%A0%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%A6%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%9A-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%9A%E0%A5%82%E0%A4%A1%E0%A4%BF/ |title=चूड़ियाँ |accessmonthday=[[25 जनवरी]] |accessyear=[[2011]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=दैनिक ट्रिब्यून |language=[[हिन्दी]] }}</ref> | ||
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[[चित्र:Kolkata.jpg|thumb|250px|चूड़ियों का दृश्य, कोलकाता]]
भारत की महिलाओं के लिए चूड़ियाँ पहनना एक परंपरा है। उत्तर भारत में आमतौर पर महिलाएँ विभिन्न आकार और रंगों की चूड़ियाँ पहनती हैं। सुहाग की प्रतीक चूड़ी के लिए सुहाग नगरी फिरोजाबाद प्रसिद्ध है।
महत्त्व
सुहाग के प्रतीकों का महत्त्व प्राचीन सभ्यता से ही देखने को मिलता है। इतिहास में मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा काल की स्त्रियों की कलाई चूड़ियों से सजी होती थी। उस समय की स्त्रियाँ बाजु तक चूड़ियाँ पहनती थी। चूड़ी की खनक जितनी प्यारी होती है उतना ही इसका महत्त्व भी है। सुहागनें चूड़ी को सुहाग के प्रतीक के रूप में पहनती हैं तो कुंवारी लड़कियाँ चूड़ी फैशन के तौर पर पहनती हैं। चूड़ी की खनक और महत्त्व वक़्त के बदलने के साथ कम नहीं हो सकता है। वर्तमान दौर में लड़कियाँ हर वक़्त चूड़ी नहीं पहनती हैं। चूड़ी सिर्फ़ पहनने का आभूषण नहीं है बल्कि यह हमारी संस्कृति और सभ्यता है। दुल्हन की चूडिय़ों का विवाह के मौके पर विशेष ख्याल रखा जाता है। आजकल रेडियम प्लेटेड चूड़ियाँ, रेडियम पॉलिश्ड सोने की चूड़ियाँ, हीरे जड़ित सोने व ब्राइट गोल्ड की चूड़ियाँ दुल्हन की ख़ास पसंद बन गई हैं।
- मारवाड़ी दुल्हनें सोने व आइवरी की चूड़ियाँ पहनती हैं।
- राजपूत दुल्हन की चूड़ी में साधारण आइवरी की चूड़ियाँ होती हैं जो आकार के हिसाब से कलाई से लेकर कंधे तक पहनी जाती हैं।
- उत्तर प्रदेश में दुल्हनें लाह की लाल व हरी चूड़ियाँ पहनती हैं। इनके आसपास काँच (शीशा) की चूड़ियाँ पहनी जाती हैं।
- राजस्थान व गुजरात की अविवाहित आदिवासी महिलाएँ हड्डियों से बनी चूड़ियाँ पहनती हैं, जो कलाई से शुरू होते हुए कोहनी तक जाती हैं लेकिन वहाँ की शादीशुदा महिलाएँ कोहनी से ऊपर तक ये चूड़ियाँ पहनती हैं। लाह की लाल रंग की चूड़ी, सफ़ेद सीप व मोटी लोहे की चूड़ी जिसे सोने में भी पहना जाता है।
- परंपरागत रूप में केरल में दुल्हन सोने की चूड़ियाँ कम संख्या में पहनती हैं।
- कई मुस्लिम परिवारों में चूड़ियाँ नहीं पहनी जाती हैं, फिर भी हल्दी की रस्म के दौरान कुछ राज्यों की महिलाएँ लाल लाह की चूड़ियाँ पहनती हैं।
रिवाज़
चूड़ियाँ पहनने का रिवाज आदिकाल से चला जा रहा है। रंग-बिरंगी खनखनाती चूड़ियाँ, जहाँ कलाई में सुंदर लगती हैं, वहीं उनकी मधुर ध्वनि कानों को भी प्यारी लगती है। सभी प्रांतों में चूड़ी वाले आशीष के नाम पर एक चूड़ी अपनी ओर से पहनाते हैं। सुनहरी और लाल रंग के अलावा हरी और सफ़ेद रंग की चूड़ियाँ भी रिवाज में हैं। ये सौभाग्य और खुशहाली की प्रतीक हैं। कई प्रांतों में शादी की रस्म के साथ दुल्हे द्वारा दुल्हन को चूड़ी पहनाने की रस्म अदा की जाती है। कुल मिलाकर लड़कियों एवं महिलाओं की खुशी के रंग चूड़ी के संग गुज़रते हैं जो सुख एवं खुशहाली की प्रतीक मानी जाती हैं।[1]
पहनने का तरीका
चूड़ी श्रृंगार का एक ऐसा आभूषण है, जिसे हर नारी पहनना पसंद करती है। चूड़ियाँ पहनने के बढ़ते शौक़ व फैशन के कारण इनके दाम भी बढ़ते जा रहे हैं। अत: चूड़ी पहनते समय कुछ बातें ध्यान में रखकर इनकी उम्र व सुदंरता बढ़ाएँ। हाथों को नई चूड़ियाँ पहनने से पूर्व गीला न होने दें। हाथों को कोई क्रीम लगाकर मुलायम कर लें। इससे चूड़ी पहनने में आसानी होती है। बाहों को चूड़ी पहनते समय ढीला रखें, चूड़ी तने हुए हाथों में कठिनाई से चढ़ती है। नई चूड़ी पहनने के बाद इन पर कोई भी सुगन्धित तेल लगाएँ। ऐसा करने से चूडिय़ों में मज़बूती आ जाती है, साथ ही इनकी चमक भी अधिक दिनों तक बनी रहती है। हाथों में इतनी ढीली चूड़ियाँ न पहने कि वह जरा से धक्के से टूट जाएँ और न ही इतनी कसी या छोटी चूड़ियाँ पहने कि उनसे कलाई का सौन्दर्य बिगड़ जाए।
किसी भी धार्मिक पर्व, त्योहार या विवाह आदि शुभ जगह पर चमकीली व अधिक चूड़ियाँ पहनना ही अच्छा लगता है। चूडिय़ों की सफाई का ध्यान रखें। महिलाएँ प्रतिदिन अधिक चूड़ियाँ पहनना पसंद करती हैं तो गर्मी के मौसम में कम चूड़ियाँ पहने। अधिक चूड़ियाँ पहनने से पसीना अधिक आता है, जिससे घमौरी व खुजली की वजह से दाने निकल आते हैं।[2] thumb|250px|दिल्ली के बाज़ार में चूड़ियाँ
अन्य भाषा
तमिल में चूड़ी को 'वलायल' और तेलुगु में 'गाजू' भी कहा जाता है। अंग्रेज़ी में इसे बेंगल कहते है जो हिन्दी के ही शब्द बंगरी से बना है जिसका अर्थ होता है- ग्लास।
प्रचलन
चूड़ी सबसे ज़्यादा ग्लास यानि कांच की ही प्रचलित थी, पर आधुनिक समय में सोना, चांदी, प्लेटिनम, प्लास्टिक, लकड़ी और फेरस मटेरिअल की भी चूड़ियाँ काफ़ी प्रचलन में हैं। एक समय में लाह की चूड़ी भी काफ़ी प्रचलित थी और आज भी कुछ क्षेत्र में शादीशुदा लड़की शादी के कुछ दिनों के बाद तक लाह की चूड़ी अवश्य ही पहनती है। लेकिन किसी भी प्रकार की चूड़ियाँ परंपरागत भारतीय महिलाओं में ज़्यादा लोकप्रिय हैं और वे इसे शादी के बंधनों का प्रतीक मानती हैं। चूड़ी आकार में सामान्यतया गोल होती है।
कड़ा
चूड़ियों में सबसे पहले कड़े का प्रचलन था। संभवत: यह आज भी प्रचलित है। धीरे-धीरे कड़े के स्थान पर पोंची आया जो कोनिकल सेप का होता था। अब यह कड़ा चूड़ियों के साथ पहना जाने लगा है जो किसी सुहागन को विवाह के समय वर पक्ष द्वारा दिया जाता है। पोंची का प्रचलन आज भी राजस्थान में है। यह सिल्वर तथा मोती का बना होता है जो सुहागन को वर पक्ष द्वारा दिया जाता है। चूड़ियों का उत्पादन सर्वाधिक लखनऊ और कानपुर में होता है। कांच की चूड़ियों की बात की जाए तो इसका सर्वाधिक उत्पादन उत्तर भारत के फिरोजाबाद शहर में सबसे ज़्यादा होता है। भारत में हैदराबाद में चूडियों का एक ऐतिहासिक बाज़ार 'लाड बाज़ार' भी है।[3]
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