अंबलट्ठिका: Difference between revisions

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*बौद्ध श्रमण अक्सर यहाँ [[ध्यान]]-तपस्या के लिए आते रहते थे।
*बौद्ध श्रमण अक्सर यहाँ [[ध्यान]]-तपस्या के लिए आते रहते थे।
*इस आम्रवन में स्थित तपोभूमि के भवन का निर्माण राजा [[बिम्बिसार]] ने करावाया था।
*इस आम्रवन में स्थित तपोभूमि के भवन का निर्माण राजा [[बिम्बिसार]] ने करावाया था।
*यह 'पधान घर संखेप' (लघु ध्यान गृह) के रूप में [[बौद्ध]] श्रमणों में विख्यात था।
*यह 'पधान घर संखेप'<ref>लघु ध्यान गृह</ref> के रूप में [[बौद्ध]] श्रमणों में विख्यात था।
*अंबलट्ठिका में भगवान ने राहुल को उपदेश दिया था, जिसका मज्झिम निकाय के अंबलट्ठिका राहुलोवाद सुतंत्र में वर्णन मिलता है।
*अंबलट्ठिका में भगवान ने राहुल को उपदेश दिया था, जिसका [[मज्झिमनिकाय|मज्झिम निकाय]] के '''अंबलट्ठिका राहुलोवाद सुतंत्र''' में वर्णन मिलता है।
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*अंबलट्ठिका में निवास-विश्राम के पश्चात् भगवान [[नालन्दा]] गए थे।
*यहाँ उनकी अन्तिम काल में उपस्थिति दर्शाई गई है।
*यहाँ उनकी अन्तिम काल में उपस्थिति दर्शाई गई है।
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[[चित्र:Nirvana-Temple-Kushinagar.jpg|250px|thumb|निर्वाण मन्दिर, कुशीनगर]]

अंबलट्ठिका राजगृह और नालन्दा के बीच स्थित एक प्रसिद्ध नयनाभिराम, रमणीय और सुन्दर तपोवन जैसा आम्रवन है। 'ब्रह्मजालसुत्त' में महात्मा बुद्ध का इस आम्र तपोवन के 'राजागारक'[1] में आगमन का उल्लेख है। यह एक अत्यन्त ध्यान योग्य, शान्त-एकान्त आम्रकुंज था, जो भगवान को भी प्रिय था और आयुष्मान राहुल ने ध्यान के लिए इसे चुना था।

  • बौद्ध श्रमण अक्सर यहाँ ध्यान-तपस्या के लिए आते रहते थे।
  • इस आम्रवन में स्थित तपोभूमि के भवन का निर्माण राजा बिम्बिसार ने करावाया था।
  • यह 'पधान घर संखेप'[2] के रूप में बौद्ध श्रमणों में विख्यात था।
  • अंबलट्ठिका में भगवान ने राहुल को उपदेश दिया था, जिसका मज्झिम निकाय के अंबलट्ठिका राहुलोवाद सुतंत्र में वर्णन मिलता है।
  • अंबलट्ठिका में निवास-विश्राम के पश्चात् भगवान नालन्दा गए थे।
  • यहाँ उनकी अन्तिम काल में उपस्थिति दर्शाई गई है।
  • नालन्दा से भगवान कुसिनारा[3] गए और मोक्ष को प्राप्त हुए।[4]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 09 |

  1. राजकीय अतिथि भवन
  2. लघु ध्यान गृह
  3. वर्तमान कुशीनगर
  4. बु.भा.भू. : भ.सिं,उपा., पृष्ठ 215

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