सनातन गोस्वामी का बाल्यकाल और शिक्षा: Difference between revisions

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'''सनातन गोस्वामी''' की जन्मतिथि के सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना सम्भव नहीं जान पड़ता। डा. दीनेशचन्द्र सेन ने उनका जन्म सन् 1492 में बताया है।<ref>D.C. Sen: The Vaisnava Literature of Medieval Bengal  P.29.</ref> और भी कई विद्वानों ने डा. सेन का अनुसरण करते हुए, उनका जन्म सन् 1492 या उसके आस-पास बताया। पर डा. सतीशचन्द्र मित्र ने उनका जन्म सन् 1465 (सं0 1522) में लिखा हैं। यही ठीक जान पड़ता है, क्योंकि महाप्रभु जब रामकेलि गये, उस समय सनातन गोस्वामी हुसैनशाह के [[प्रधानमन्त्री]] थे। महाप्रभु की आयु उस समय 28/29 वर्ष की थी।
{{सनातन गोस्वामी विषय सूची}}
==महाप्रभु का आविर्भाव==
[[सनातन गोस्वामी]] [[चैतन्य महाप्रभु]] के प्रमुख शिष्य थे। सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात् मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की। उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दिलायी रामभद्र वाणीविलास नामक एक पंडित से। उसके पश्चात् उन्हें नवद्वीप भेज दिया , जो उस समय शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ कुछ दिन प्रसिद्ध नैयायिक श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य से न्याय-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् वे उनके छोटे भाई विद्यावाचस्पति <ref> डॉ. दीनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने सिद्धि किया है कि उनका प्रकृत नाम था। विष्णुदास भट्टाचार्य (साहित्य परिषद पत्रिका, वर्ष 56 3य-4र्थ संख्या पृ0 66-81</ref> की [[टोल]] में पढ़ने लगे।  
महाप्रभु का आविर्भाव 1486 में हुआ। वे रामकेलि गये सन्न्यास के पंचम वर्ष सन् 1514 या 1515 में। इस हिसाब से सनातन गोस्वामी की आयु डा. सेन के मत के अनुसार उस समय 23 वर्ष की होती। रामकेलि में महाप्रभु से मिलने के कई वर्ष पूर्व वे प्रधानमन्त्री हुए होंगे।<ref>भक्तिरत्नाकर में उल्लेख है कि श्री [[चैतन्य महाप्रभु]] ने सन्न्यास के पूर्व ही (अर्थात् सन् 1510 के पूर्व) रूप-सनातन की मन्त्री रूप में ख्याति सुनी थी (भक्ति रत्नाकर 1/364-383)।</ref> उस समय उनकी आयु केवल 18/19 वर्ष की या उससे कम होगी और रूप गोस्वामी की उससे भी कम, जो विश्वास करने योग्य नहीं। यदि उनका जन्म मित्र महाशय के अनुसार सन् 1465 में माना जाय, तो उनकी उम्र रामकेलि में महाप्रभु से उनके मिलने के समय 49।50 की होती है, जो प्रधानमन्त्री पद के लिए ठीक लगती है।
==प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति==
 
असाधारण मेधावान और प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण दोनों थोड़े ही दिनों में [[साहित्य]], [[व्याकरण]] और नाना शास्त्रों में पारंगत हो गये। परन्तु उन दिनों केवल [[संस्कृत साहित्य]] और शास्त्रादि में व्युत्पन्न होना ही वैषयिक जीवन में उन्नति करने के लिए पर्याप्त न था, क्योंकि सरकार का सारा काम [[फारसी भाषा|फारसी]] और [[अरबी भाषा|अरबी]] में हुआ करता था। इसलिए मुकुन्ददेव ने उन्हें अरबी और फारसी की शिक्षा देना भी आवश्यक समझा। इसके लिए उन्होंने दोनों भाइयों को सप्तग्राम भेज दिया। सप्तग्राम के शासक फकरूद्दीन उनके बंधु थें उनकी देखरेख में वे अरबी और फारसी के विशेषज्ञ मुल्लाओं से इन भाषाओं का अध्ययन करने लगे। थोड़े ही दिनों में उन्होंने इन भाषाओं में भी पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया।  
एक और प्रकार से भी मित्र महाशय के मत की पुष्टि होती है। श्रीरूप गोस्वामी ने गोविन्द-विरूदावली में लिखा है—
==भागवत  की शिक्षा==
विभिन्न भाषाओं और शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते हुए भी सनातन गोस्वामी प्रारम्भ से ही [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] में विशेष रुचि रखते थे। [[जीव गोस्वामी|श्रीजीव गोस्वामी]] ने लघुवैष्णवतोषणी के अन्त में दी हुई। वंशपरिचायिका में उल्लेख किया है कि उन्हें बाल्यावस्था में स्वप्न में एक ब्राह्मण द्वारा श्रीमद्भागवत की एक प्रति प्राप्त हुई थी और प्रभात होने पर उसी ब्राह्मण ने वही प्रति उन्हें भेंट की थी। तभी से वे नियमित रूप से श्रीमद्भागवत का पाठ किया करते थे। अपने वृन्दावनवास के प्रारम्भ में उन्होंने परमानन्द भट्टाचार्य नामक एक भक्ति-सिद्ध आचार्य से भी भागवत के निगूढ़ तत्त्व की शिक्षा ग्रहण की थी।  
"हे प्रभो, इस समय मैं वृद्वप्राय और अन्धप्राय हो गया हूँ, फिर भी इस शरणागत के प्रति आपकी कृपादृष्टि नहीं हुई।"<ref>"पालितंकरणीदशा प्रमो मुहुरन्धंकरणी चमां गता।<br/>
शुभंकरणी कृपा शुभैर्ण तवाद्-यंकरणी च मय्यभूत॥"(स्तवमाला)-</ref> गोविन्द-विरूदावली रूपगोस्वामी के 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में उद्वत है। भक्तिरसामृतसिन्धु का रचना-काल सन् 1541 है। इस आधार पर गोविन्द-विरूदावली का रचनाकाल 1540 माना जाय और उस समय रूपगोस्वामी का आविर्भाव सन् 1470 के लगभग मानना होगा। सनातन गोस्वामी को रूपगोस्वामी से 4।5 साल बड़ा माना जाय, तो उनका जन्म 1465।66 के लगभग ही मानना होगा।
 
==शिक्षा==
सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की। उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दिलायी रामभद्र वाणीविलास नामक एक पंडित से। उसके पश्चात उन्हें नवद्वीप भेज दिया , जो उस समय शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ कुछ दिन प्रसिद्ध नैयायिक श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य से न्याय-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात वे उनके छोटे भाई विद्यावाचस्पति <ref> डा. दीनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने सिद्धि किया है कि उनका प्रकृत नाम था विष्णुदास भट्टाचार्य (साहित्य परिषद पत्रिका, वर्ष 56 3य-4र्थ संख्या पृ0 66-81</ref> की [[टोल]] में पढ़ने लगे। असाधारण मेधावान् और प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण दोनों थोड़े ही दिनों में [[साहित्य]], [[व्याकरण]] और नाना शास्त्रों में पारंगत हो गये। परन्तु उन दिनों केवल [[संस्कृत साहित्य]] और शास्त्रादि में व्युत्पन्न होना ही वैषयिक जीवन में उन्नति करने के लिए पर्याप्त न था, क्योंकि सरकार का सारा काम [[फारसी भाषा|फारसी]] और [[अरबी भाषा|अरबी]] में हुआ करता था। इसलिए मुकुन्ददेव ने उन्हें अरबी और फारसी की शिक्षा देना भी आवश्यक समझा। इसके लिए उन्होंने दोनों भाइयों को सप्तग्राम भेज दिया। सप्तग्राम के शासक फकरूद्दीन उनके बंधु थें उनकी देखरेख में वे अरबी और फारसी के विशेषज्ञ मुल्लाओं से इन भाषाओं का अध्ययन करने लगे। थोड़े ही दिनों में उन्होंने इन भाषाओं में भी पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया।  
====भागवत  की शिक्षा====
विभिन्न भाषाओं और शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते हुए भी सनातन गोस्वामी प्रारम्भ से ही [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] में विशेष रूचि रखते थे। [[जीव गोस्वामी|श्रीजीव गोस्वामी]] ने लघुवैष्णवतोषणी के अन्त में दी हुई। वंशपरिचायिका में उल्लेख किया है कि उन्हें बाल्यावस्था में स्वप्न में एक ब्राह्मण द्वारा श्रीमद्भागवत की एक प्रति प्राप्त हुई थी और प्रभात होने पर उसी ब्राह्मण ने वही प्रति उन्हें भेंट की थी। तभी से वे नियमित रूप से श्रीमद्भागवत का पाठ किया करते थे। अपने वृन्दावनवास के प्रारम्भ में उन्होंने परमानन्द भट्टाचार्य नामक एक भक्ति-सिद्ध आचार्य से भी भागवत के निगूढ़ तत्त्व की शिक्षा ग्रहण की थी।  
वृहत्वैष्णवतोष्णी के प्रारम्भ में मंगलाचरण में उन्होंने उन सभी महानुभावों की वन्दना करते हुए, जिनसे उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी, लिखा है-
वृहत्वैष्णवतोष्णी के प्रारम्भ में मंगलाचरण में उन्होंने उन सभी महानुभावों की वन्दना करते हुए, जिनसे उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी, लिखा है-
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बन्दे श्रीपरमानन्द भट्टाचार्य रसप्रियं।<br />
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रामभद्रं तथा बाणी विलासञ्चोपदेशकम्॥</blockquote>
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सनातन गोस्वामी विषय सूची

सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात् मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की। उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दिलायी रामभद्र वाणीविलास नामक एक पंडित से। उसके पश्चात् उन्हें नवद्वीप भेज दिया , जो उस समय शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ कुछ दिन प्रसिद्ध नैयायिक श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य से न्याय-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् वे उनके छोटे भाई विद्यावाचस्पति [1] की टोल में पढ़ने लगे।

प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति

असाधारण मेधावान और प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण दोनों थोड़े ही दिनों में साहित्य, व्याकरण और नाना शास्त्रों में पारंगत हो गये। परन्तु उन दिनों केवल संस्कृत साहित्य और शास्त्रादि में व्युत्पन्न होना ही वैषयिक जीवन में उन्नति करने के लिए पर्याप्त न था, क्योंकि सरकार का सारा काम फारसी और अरबी में हुआ करता था। इसलिए मुकुन्ददेव ने उन्हें अरबी और फारसी की शिक्षा देना भी आवश्यक समझा। इसके लिए उन्होंने दोनों भाइयों को सप्तग्राम भेज दिया। सप्तग्राम के शासक फकरूद्दीन उनके बंधु थें उनकी देखरेख में वे अरबी और फारसी के विशेषज्ञ मुल्लाओं से इन भाषाओं का अध्ययन करने लगे। थोड़े ही दिनों में उन्होंने इन भाषाओं में भी पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया।

भागवत की शिक्षा

विभिन्न भाषाओं और शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते हुए भी सनातन गोस्वामी प्रारम्भ से ही श्रीमद्भागवत में विशेष रुचि रखते थे। श्रीजीव गोस्वामी ने लघुवैष्णवतोषणी के अन्त में दी हुई। वंशपरिचायिका में उल्लेख किया है कि उन्हें बाल्यावस्था में स्वप्न में एक ब्राह्मण द्वारा श्रीमद्भागवत की एक प्रति प्राप्त हुई थी और प्रभात होने पर उसी ब्राह्मण ने वही प्रति उन्हें भेंट की थी। तभी से वे नियमित रूप से श्रीमद्भागवत का पाठ किया करते थे। अपने वृन्दावनवास के प्रारम्भ में उन्होंने परमानन्द भट्टाचार्य नामक एक भक्ति-सिद्ध आचार्य से भी भागवत के निगूढ़ तत्त्व की शिक्षा ग्रहण की थी। वृहत्वैष्णवतोष्णी के प्रारम्भ में मंगलाचरण में उन्होंने उन सभी महानुभावों की वन्दना करते हुए, जिनसे उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी, लिखा है-

भट्टाचार्य सार्वभौम विद्यावाचस्पतीन् गुरुन्।
बन्दे विद्याभूषणञ्च गौड़देशविभूषणम्॥
बन्दे श्रीपरमानन्द भट्टाचार्य रसप्रियं।

रामभद्रं तथा बाणी विलासञ्चोपदेशकम्॥


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. डॉ. दीनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने सिद्धि किया है कि उनका प्रकृत नाम था। विष्णुदास भट्टाचार्य (साहित्य परिषद पत्रिका, वर्ष 56 3य-4र्थ संख्या पृ0 66-81

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