सनातन गोस्वामी का बाल्यकाल और शिक्षा: Difference between revisions
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[[सनातन गोस्वामी]] [[चैतन्य महाप्रभु]] के प्रमुख शिष्य थे। सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात् मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की। उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दिलायी रामभद्र वाणीविलास नामक एक पंडित से। उसके पश्चात् उन्हें नवद्वीप भेज दिया , जो उस समय शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ कुछ दिन प्रसिद्ध नैयायिक श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य से न्याय-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् वे उनके छोटे भाई विद्यावाचस्पति <ref> डॉ. दीनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने सिद्धि किया है कि उनका प्रकृत नाम था। विष्णुदास भट्टाचार्य (साहित्य परिषद पत्रिका, वर्ष 56 3य-4र्थ संख्या पृ0 66-81</ref> की [[टोल]] में पढ़ने लगे। | |||
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विभिन्न भाषाओं और शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते हुए भी सनातन गोस्वामी प्रारम्भ से ही [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] में विशेष | विभिन्न भाषाओं और शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते हुए भी सनातन गोस्वामी प्रारम्भ से ही [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] में विशेष रुचि रखते थे। [[जीव गोस्वामी|श्रीजीव गोस्वामी]] ने लघुवैष्णवतोषणी के अन्त में दी हुई। वंशपरिचायिका में उल्लेख किया है कि उन्हें बाल्यावस्था में स्वप्न में एक ब्राह्मण द्वारा श्रीमद्भागवत की एक प्रति प्राप्त हुई थी और प्रभात होने पर उसी ब्राह्मण ने वही प्रति उन्हें भेंट की थी। तभी से वे नियमित रूप से श्रीमद्भागवत का पाठ किया करते थे। अपने वृन्दावनवास के प्रारम्भ में उन्होंने परमानन्द भट्टाचार्य नामक एक भक्ति-सिद्ध आचार्य से भी भागवत के निगूढ़ तत्त्व की शिक्षा ग्रहण की थी। | ||
वृहत्वैष्णवतोष्णी के प्रारम्भ में मंगलाचरण में उन्होंने उन सभी महानुभावों की वन्दना करते हुए, जिनसे उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी, लिखा है- | वृहत्वैष्णवतोष्णी के प्रारम्भ में मंगलाचरण में उन्होंने उन सभी महानुभावों की वन्दना करते हुए, जिनसे उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी, लिखा है- | ||
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सनातन गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात् मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की। उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा दिलायी रामभद्र वाणीविलास नामक एक पंडित से। उसके पश्चात् उन्हें नवद्वीप भेज दिया , जो उस समय शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ कुछ दिन प्रसिद्ध नैयायिक श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य से न्याय-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात् वे उनके छोटे भाई विद्यावाचस्पति [1] की टोल में पढ़ने लगे।
प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति
असाधारण मेधावान और प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण दोनों थोड़े ही दिनों में साहित्य, व्याकरण और नाना शास्त्रों में पारंगत हो गये। परन्तु उन दिनों केवल संस्कृत साहित्य और शास्त्रादि में व्युत्पन्न होना ही वैषयिक जीवन में उन्नति करने के लिए पर्याप्त न था, क्योंकि सरकार का सारा काम फारसी और अरबी में हुआ करता था। इसलिए मुकुन्ददेव ने उन्हें अरबी और फारसी की शिक्षा देना भी आवश्यक समझा। इसके लिए उन्होंने दोनों भाइयों को सप्तग्राम भेज दिया। सप्तग्राम के शासक फकरूद्दीन उनके बंधु थें उनकी देखरेख में वे अरबी और फारसी के विशेषज्ञ मुल्लाओं से इन भाषाओं का अध्ययन करने लगे। थोड़े ही दिनों में उन्होंने इन भाषाओं में भी पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया।
भागवत की शिक्षा
विभिन्न भाषाओं और शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते हुए भी सनातन गोस्वामी प्रारम्भ से ही श्रीमद्भागवत में विशेष रुचि रखते थे। श्रीजीव गोस्वामी ने लघुवैष्णवतोषणी के अन्त में दी हुई। वंशपरिचायिका में उल्लेख किया है कि उन्हें बाल्यावस्था में स्वप्न में एक ब्राह्मण द्वारा श्रीमद्भागवत की एक प्रति प्राप्त हुई थी और प्रभात होने पर उसी ब्राह्मण ने वही प्रति उन्हें भेंट की थी। तभी से वे नियमित रूप से श्रीमद्भागवत का पाठ किया करते थे। अपने वृन्दावनवास के प्रारम्भ में उन्होंने परमानन्द भट्टाचार्य नामक एक भक्ति-सिद्ध आचार्य से भी भागवत के निगूढ़ तत्त्व की शिक्षा ग्रहण की थी। वृहत्वैष्णवतोष्णी के प्रारम्भ में मंगलाचरण में उन्होंने उन सभी महानुभावों की वन्दना करते हुए, जिनसे उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी, लिखा है-
भट्टाचार्य सार्वभौम विद्यावाचस्पतीन् गुरुन्।
बन्दे विद्याभूषणञ्च गौड़देशविभूषणम्॥
बन्दे श्रीपरमानन्द भट्टाचार्य रसप्रियं।
रामभद्रं तथा बाणी विलासञ्चोपदेशकम्॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ डॉ. दीनेशचन्द्र भट्टाचार्य ने सिद्धि किया है कि उनका प्रकृत नाम था। विष्णुदास भट्टाचार्य (साहित्य परिषद पत्रिका, वर्ष 56 3य-4र्थ संख्या पृ0 66-81