उत्तिरमेरूर: Difference between revisions
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ग्राम सभा के सदस्यों का कार्यकाल वैसे तो 360 दिनों का ही रहता था परंतु इस बीच किसी सदस्य को अनुचित कर्मों के लिए दोषी पाए जाने पर बलपूर्वक हटाए जाने की भी व्यवस्था थी। उस समय के लोगों की प्रशासनिक एवं राजनैतिक सूजबूझ का अंदाज़ा इसी बात से लगता है कि लोक सेवकों के लिए वैयक्तिक तथा सार्वजनिक जीवन में आचरण के लिए आदर्श मानक निर्धारित थे। ग़लत आचरण के लिए जुर्माने की व्यवस्था बनाई गयी थी। जुर्माना ग्राम सभा ही लगाती थी और जिसे भी यह सज़ा मिलती, उसे दुष्ट कह कर पुकारा जाता। जुर्माने की राशि प्रशासक द्वारा उसी वित्तीय वर्ष में वसूलना होता था अन्यथा ग्राम सभा संज्ञान लेते हुए स्वयं मामले का निपटारा करती। जुर्माने की राशि के पटाने में देरी किए जाने पर विलंब शुल्क भी लगाया जाता था। निर्वाचित सदस्य भी ग़लतियों के लिए जुर्माने के भोगी बन सकते थे। | |||
वहाँ से प्राप्त शिलालेखों से पता चलता है कि हर व्यवसाय को पारदर्शी बनाए रखने के लिए परीक्षण की व्यवस्था बनाई गयी थी। इसके लिए एक 10 सदस्यों वाली समिति होती थी जो सत्यापित करती थी। 3 माह में एक बार ग्राम सभा के सम्मुख उपस्थित होकर इस समिति को शपथ लेना होता था कि उन्होने कोई भ्रष्ट आचरण नहीं किया है। इसी तरह अलग अलग कार्यों के लिए समितियों का गठन किया जाता था जैसे, जल आपूर्ति, उद्यान तथा वानिकी, कृषि उन्नयन आदि आदि और ऐसे हर समिति के लिए अलग से दिशा निर्देश भी दिए गये है। सार्वजनिक विद्यालयों में व्याख्यताओं की नियुक्ति के भी नियम थे। अनिवार्य रूप से वे शास्त्रों, [[वेदों]] आदि के ज्ञाता रहते थे, और सदैव बाहर से ही बुलाए जाते थे।<ref name="mlb"/> | |||
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उत्तिरमेरूर, उत्तरमेरूर अथवा उत्तरमेरुर (अंग्रेज़ी: Uthiramerur) दक्षिण भारत में तमिलनाडु राज्य के कांचीपुरम ज़िले का एक पंचायती ग्राम है। चोल राज्य के अंतर्गत ब्राह्मणों (अग्रहार) के एक बड़े ग्राम में दसवीं शताब्दी के पश्चात अनेक शिलालेख स्थानीय राजनीति पर प्रकाश पर प्रकाश डालते हैं, जो इस प्रकार हैं-
- ग्राम 30 भागों में विभाजित था, जिनमें से प्रत्येक भाग का प्रतिनिधि लाटरी द्वारा चुनी गई वार्षिक परिषद में उपस्थित होता था। परिषद पाँच उपसमितियों में विभाजित थी जिनमें से तीन क्रमश: उद्यानों तथा वाटिकाओं, तालाबों तथा सिंचाई और झगड़ों के निबटारे के लिए उत्तरदायी थीं, जबकि अंतिम दो के कार्य अनिश्चित हैं।
- सदस्य अवैतनिक होते थे तथा दुर्व्यवहार के कारण पदच्युत किये जा सकते थे। परिषद में सम्मिलित होने का आधिकार सम्पत्ति योग्यता द्वारा सीमित था, जिसमें मकान तथा छोटा भू-भाग सम्मिलित था। सदस्यता 35 तथा 70 वर्ष की आयु के मध्य वाले व्यक्तियों के लिए सीमित थी जो एक वर्ष तक कार्यभार सँभाल लेते थे, वे तीन वर्ष के लिए पुन: नियुक्ति हेतु अयोग्य हो जाते थे।
- उत्तिरमेरूर विधान की दो अंतिम विशेषताएँ अन्य ग्रामों के विधानों में भी पायी जाती हैं, जिनकी लेखा आज भी प्राप्त हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सभी ने युवकों तथा वृद्धों के प्रवेश का अपनी परिषदों में निषेध कर दिया था और कुछ में न्यूनतम आयु 40 वर्ष निश्चित की गयी थी। अधिकांश ने विश्राम-ग्रहण किये हुए सदस्यों की पुन:नियुक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिये थे। निस्सन्देह यह भ्रष्टाचार-निवारण के लिये तथा व्यक्तिगत प्रभाव की वृद्धि को रोकने के लिए किया गया था। एक स्थान में तो किसी विश्राम-ग्रहण करने वाले सदस्य के निकट सम्बंधियों को सदस्यता से पाँच वर्ष के लिए वंचित कर दिया था, दूसरे स्थान पर विश्राम प्राप्त सदस्य की दस वर्ष तक पुन: नियुक्ति नहीं हो सकती थी।
- दक्षिण की ये परिषदें न केवल झगड़ों का निबटारा करती थीं तथा सरकार की सीमा के बाहर सामाजिक कार्यों का प्रबन्ध करती थीं, अपितु मालगुजारी एकत्र करने, व्यक्तिगत सहयोग का मूल्य निर्धारित करने की बातचीत के लिए उत्तरदायी थीं। गाँव की बंजर भूमि का स्वामित्व विक्रय अधिकार सहित निश्चित रूप से उनका था तथा वे सिंचाई, मार्ग-निर्माण तथा अन्य जनकार्यों में विशेष रुचि रखते थे। उनके आदान प्रदान का विवरण ग्राम के मन्दिरों की दीवारों पर अंकित रहता था जिससे एक शक्तिशाली सामुदायिक जीवन का आभास मिलता है और जो प्रारम्भिक भारतीय राजनीति के सर्वश्रेष्ठ अंश के स्थायी स्मारक हैं।[1]
इतिहास
उत्तिरमेरूर से पल्लव एवं चोल काल के लगभग दो सौ अभिलेख मिले हैं। इन अभिलेखों से परिज्ञात होता है कि पल्लव एवं चोल शासन के अन्तर्गत ग्राम अधिकतम स्वायत्तता का उपभोग करते थे। 10वीं शताब्दी का एक लेख आज भी एक मन्दिर की दीवार पर ख़ुदा है, जो यह बताता है कि चोल शासन के अन्तर्गत स्थानीय 'सभा' किस प्रकार कार्य करती थी। सभा का चुनाव उपयुक्त व्यक्तियों में से लाटरी निकालकर होता था। ग्राम स्तर पर स्वायत्तता इतनी थी कि प्रशासन के उच्च स्तरों और राजनीतिक ढाँचे में होने वाले परिवर्तनों से गाँव का दैनन्दिन जीवन अप्रभावित रहता था। यह इसलिए सम्भव हो सका था, क्योंकि गाँव पर्याप्त रूप से आत्मनिर्भर थे। आधुनिक पंचायतों की चोल कालीन स्थानीय प्रशासन से तुलना करना सार्थक एवं रुचिकर होगा। [2]
प्रजातंत्र का संविधान
उस राजाओं के जमाने में भी ग्राम प्रशासन में प्रजातंत्र का जो अनोखा उदाहरण मिलता है, उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उन दिनों हमारी सामाजिक व्यवस्था कितनी सुसभ्य और उन्नत थी| बस अड्डे के पास ही एक शिव मंदिर है। उसकी दीवारों पर चारों तरफ हमारे संविधान की धाराओं की तरह ग्राम प्रशासन से संबंधित विस्तृत नियमावली उत्कीर्ण है जिसमें ग्राम सभा के सदस्यों के निर्वाचन विधि का भी उल्लेख मिलता है। इसे राजा परंतगा सुंदरा चोल ने अपने शासन के 14 वें वर्ष उत्कीर्ण करवाया था। उन दिनों ग्राम सभा के सदस्यों के निर्वाचन हेतु जो पद्धति अपनाई जाती थी। उसे “कुडमोलै पद्धति” कहा गया है। कूडम का अर्थ होता है मटका और ओलै ताड़ के पत्ते को कहते है। गाँव के केंद्र में कहीं एक बड़े मटके को रख दिया जाता था और नागरिक, उम्मेदवारों में से अपने पसंद के व्यक्ति का नाम एक ताड़ पत्र पर लिख कर मटके में डाल दिया करते थे। बाद में उसकी गणना होती थी और ग्राम सभा के सदस्यों का चुनाव हो जाया करता था। उत्कीर्ण अभिलेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि ग्राम सभा की सदस्यता के लिए जो निर्धारित मानदंड थे वे हमें शर्मिंदा करते हैं। निर्वाचन में भाग लेने के लिए जो पात्रताएँ दर्शाई गई हैं वे निम्नानुसार हैं।[3]
- प्रत्येक उम्मेदवार के पास एक चौथाई वेली (भूमि का क्षेत्र) कृषि भूमि का होना आवश्यक है।
- अनिवार्यतः उसके पास स्वयं का घर हो।
- आयु 35 या उससे अधिक परंतु 70 वर्ष से कम हो।
- मूल भूत शिक्षा प्राप्त किया हो और वेदों का ज्ञाता हो।
- पिछले तीन वर्षों में उस पद पर ना रहा हो।[3]
- ऐसे व्यक्ति ग्राम सभा के सदस्य नहीं बन सकते
- जिसने शासन को अपनी आय का ब्योरा ना दिया हो।
- यदि कोई भ्रष्ट आचरण का दोषी पाया गया हो तो उसके खुद के अतिरिक्त उससे रक्त से जुड़ा कोई भी व्यक्ति सात पीढ़ियों तक अयोग्य रहेगा।
- जिसने अपने कर ना चुकाए हों।
- गृहस्थ रह कर पर स्त्री गमन का दोषी।
- हत्यारा, मिथ्या भाषी और दारूखोर हो ।
- जिस किसी ने दूसरे के धन का हनन किया हो
- जो ऐसे भोज्य पदार्थ का सेवन करता हो जो मनुष्यों के खाने योग्य ना हो।[3]
दण्ड का प्रावधान
ग्राम सभा के सदस्यों का कार्यकाल वैसे तो 360 दिनों का ही रहता था परंतु इस बीच किसी सदस्य को अनुचित कर्मों के लिए दोषी पाए जाने पर बलपूर्वक हटाए जाने की भी व्यवस्था थी। उस समय के लोगों की प्रशासनिक एवं राजनैतिक सूजबूझ का अंदाज़ा इसी बात से लगता है कि लोक सेवकों के लिए वैयक्तिक तथा सार्वजनिक जीवन में आचरण के लिए आदर्श मानक निर्धारित थे। ग़लत आचरण के लिए जुर्माने की व्यवस्था बनाई गयी थी। जुर्माना ग्राम सभा ही लगाती थी और जिसे भी यह सज़ा मिलती, उसे दुष्ट कह कर पुकारा जाता। जुर्माने की राशि प्रशासक द्वारा उसी वित्तीय वर्ष में वसूलना होता था अन्यथा ग्राम सभा संज्ञान लेते हुए स्वयं मामले का निपटारा करती। जुर्माने की राशि के पटाने में देरी किए जाने पर विलंब शुल्क भी लगाया जाता था। निर्वाचित सदस्य भी ग़लतियों के लिए जुर्माने के भोगी बन सकते थे।
वहाँ से प्राप्त शिलालेखों से पता चलता है कि हर व्यवसाय को पारदर्शी बनाए रखने के लिए परीक्षण की व्यवस्था बनाई गयी थी। इसके लिए एक 10 सदस्यों वाली समिति होती थी जो सत्यापित करती थी। 3 माह में एक बार ग्राम सभा के सम्मुख उपस्थित होकर इस समिति को शपथ लेना होता था कि उन्होने कोई भ्रष्ट आचरण नहीं किया है। इसी तरह अलग अलग कार्यों के लिए समितियों का गठन किया जाता था जैसे, जल आपूर्ति, उद्यान तथा वानिकी, कृषि उन्नयन आदि आदि और ऐसे हर समिति के लिए अलग से दिशा निर्देश भी दिए गये है। सार्वजनिक विद्यालयों में व्याख्यताओं की नियुक्ति के भी नियम थे। अनिवार्य रूप से वे शास्त्रों, वेदों आदि के ज्ञाता रहते थे, और सदैव बाहर से ही बुलाए जाते थे।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वाशम, ए.एल. अद्भुत भारत (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: शिवलाल अग्रवाल कंपनी, आगरा-3, 74।
- ↑ जैन, डॉ. हुकम चन्द भारतीय ऐतिहासिक स्थल कोश (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: जैन प्रकाशन मन्दिर, जयपुर, 34।
- ↑ 3.0 3.1 3.2 3.3 1000 वर्ष पूर्व के प्रजातंत्र का संविधान (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) मल्हार ब्लॉग। अभिगमन तिथि: 29 अगस्त, 2011।
बाहरी कड़ियाँ
- Uthiramerur
- Constitution 1,000 years ago
- 1,200-year old temple restored to its original beauty
- Uthiramerur,Sri Sundara Varadhar Temple
- UthiraMerur Sundara Varadar
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