दानघाटी गोवर्धन: Difference between revisions

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'''दानघाटी का मन्दिर / गिरिराज जी मन्दिर / Danghati Temple / Giriraj Ji Temple'''<br />
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*[[मथुरा]]–[[डीग]] मार्ग पर [[गोवर्धन]] में यह मन्दिर स्थित है।  
*[[मथुरा]]–[[डीग भरतपुर|डीग]] मार्ग पर [[गोवर्धन]] में यह मन्दिर स्थित है।  
*गिर्राजजी की परिक्रमा हेतु आने वाले लाखों श्रृद्धालु इस मन्दिर में पूजन करके अपनी परिक्रमा प्रारम्भ कर पूर्ण लाभ कमाते हैं। [[ब्रज]] में इस मन्दिर की बहुत महत्ता है।  
*गिर्राजजी की परिक्रमा हेतु आने वाले लाखों श्रृद्धालु इस मन्दिर में पूजन करके अपनी परिक्रमा प्रारम्भ कर पूर्ण लाभ कमाते हैं। [[ब्रज]] में इस मन्दिर की बहुत महत्ता है।  
*यहाँ अभी भी इस पार से उसपार या उसपार से इस पार करने में टोल टैक्स देना पड़ता है। कृष्णलीला के समय [[कृष्ण]] ने दानी बनकर गोपियों से प्रेमकलह कर नोक–झोंक के साथ दानलीला की है।  
*यहाँ अभी भी इस पार से उसपार या उसपार से इस पार करने में टोल टैक्स देना पड़ता है। कृष्णलीला के समय [[कृष्ण]] ने दानी बनकर गोपियों से प्रेमकलह कर नोक–झोंक के साथ दानलीला की है।  

Revision as of 08:12, 18 April 2010

[[चित्र:Danghati Temple Govardhan Mathura 2.jpg|दानघाटी, गोवर्धन
DanGhati Temple, Govardhan|thumb|200px]] दानघाटी का मन्दिर / गिरिराज जी मन्दिर / Danghati Temple / Giriraj Ji Temple

  • मथुराडीग मार्ग पर गोवर्धन में यह मन्दिर स्थित है।
  • गिर्राजजी की परिक्रमा हेतु आने वाले लाखों श्रृद्धालु इस मन्दिर में पूजन करके अपनी परिक्रमा प्रारम्भ कर पूर्ण लाभ कमाते हैं। ब्रज में इस मन्दिर की बहुत महत्ता है।
  • यहाँ अभी भी इस पार से उसपार या उसपार से इस पार करने में टोल टैक्स देना पड़ता है। कृष्णलीला के समय कृष्ण ने दानी बनकर गोपियों से प्रेमकलह कर नोक–झोंक के साथ दानलीला की है।
  • दानकेलि-कौमुदी तथा दानकेलि- चिन्तामणि आदि गौड़ीय गोस्वामियों के ग्रन्थों में इस लीला का रस वर्णन है।

प्रसंग–

किसी समय श्रीभागुरी ऋषि गोविन्द कुण्ड के तट पर भगवत् प्रीति के लिए यज्ञ कर रहे थे। दूर–दूर से गोप-गोपियाँ यज्ञ के लिए द्रव्य ला रही थीं। राधिका एवं उनकी सखियाँ भी दानघाटी के उस पार से दधि, दुग्ध, मक्खन तथा दूध से बने हुए विविध प्रकार के रबडी आदि द्रव्य ला रही थीं। इसी स्थान पर सुबल, मधुमंगल आदि सखाओं के साथ श्रीकृष्ण अपने लाठियों को अड़ाकर बलपूर्वक दान (टोलटैक्स) माँग रहे थे। गोपियों के साथ उन लोगों की बहुत नोक–झोंक हुई। कृष्ण ने त्रिभंग ललित रूप में खड़े होकर भंगि से कहा- क्या ले जा रही हो ?
गोपियाँ– भागुरी ऋषि के यज्ञ के लिए दूध, दही, मक्खन ले जा रही हैं।
मक्खन का नाम सुनते ही मधुमंगल के मुख में पानी भर आया। वह जल्दी से बोल उठा, शीघ्र ही यहाँ का दान देकर आगे बढ़ो।
ललिता– तेवर भरकर बोली– कैसा दान ? हमने कभी दान नहीं दिया।
श्रीकृष्ण– यहाँ का दान चुकाकर ही जाना होगा।
श्रीमती जी– आप यहाँ दानी कब से बने ? क्या यह आपका बपौती राज्य है ?
श्रीकृष्ण– टेढ़ी बातें मत करो ? मैं वृन्दावन राज्य का राजा वृन्दावनेश्वर हूँ।
श्रीमतीजी– सो, कैसे ?
श्रीकृष्ण– वृन्दा मेरी विवाहिता पत्नी है। पत्नी की सम्पत्ति भी पति की होती है। वृन्दावन वृन्दादेवी का राज्य है, अत: यह मेरा ही राज्य है।
ललिता– अच्छा, हमने कभी भी ऐसा नहीं सुना। अभी वृन्दाजी से पूछ लेते हैं।
तुरन्त ही सखी ने वृन्दा की ओर मुड़कर मुस्कराते हुए पूछा– वृन्दे ! क्या यह 'काला' तुम्हारा पति है ?
वृन्दा– (तुनककर) कदापि नहीं। इस झूठे लम्पट से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है। हाँ यह राज्य मेरा था, किन्तु मैंने इसे वृन्दवनेश्वरी राधिकाजी को अर्पण कर दिया है। सभी सखियाँ ठहाका मारकर हँसने लगी। श्रीकृष्ण कुछ झेंप से गये किन्तु फिर भी दान लेने के लिए डटे रहे। फिर गोपियों ने प्रेमकलह के पश्चात कुछ दूर भीतर दान–निवर्तन कुण्ड पर प्रेम का दान दिया। और लिया भी।

वीथिका