धन्वन्तरि: Difference between revisions
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*[[अमरावती]] उनका निवास बनी। | *[[अमरावती]] उनका निवास बनी। | ||
*कालक्रम से [[पृथ्वी]] पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये। | *कालक्रम से [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये। | ||
*प्रजापति [[इन्द्र]] ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की। | *प्रजापति [[इन्द्र]] ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की। | ||
*भगवान ने काशीराज [[दिवोदास]] के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया। | *भगवान ने काशीराज [[दिवोदास]] के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया। |
Revision as of 05:58, 2 May 2010
धन्वन्तरि / Dhanvantari
- देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के श्रान्त हो जाने पर क्षीरोदधि का मन्थन स्वयं क्षीर-सागरशायी कर रहे थे। हलाहल, गौ, ऐरावत, उच्चै:श्रवा अश्व, अप्सराएँ, कौस्तुभमणि, वारूणी, महाशंख, कल्पवृक्ष, चन्द्रमा, लक्ष्मी जी और कदली वृक्ष उससे प्रकट हो चुके थे। अन्त में हाथ में अमृतपूर्ण स्वर्ण कलश लिये श्याम वर्ण, चतुर्भुज भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए।
- अमृत-वितरण के पश्चात देवराज इन्द्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वन्तरि ने देव-वैद्य का पद स्वीकार कर लिया।
- अमरावती उनका निवास बनी।
- कालक्रम से पृथ्वी पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये।
- प्रजापति इन्द्र ने धन्वन्तरि जी से प्रार्थना की।
- भगवान ने काशीराज दिवोदास के रूप में पृथ्वी पर अवतार धारण किया।
- इनकी 'धन्वन्तरि-संहिता' आयुर्वेद का मूल ग्रन्थ है।
- आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वन्तरि जी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया।
आयु के पुत्र का नाम धन्वंतरि था। वह वीर यशस्वी तथा धार्मिक था। राज्यभोग के उपरांत योग की ओर प्रवृत्त होकर वह गंगा सागर संगम पर समाधि लगाकर तपस्या करने लगा। गत अनेक वर्षों से उससे त्रस्त महाराक्षस समुद्र में छुपा हुआ था। वैरागी धन्वंतरि को देख उसने नारी का रूप धारण कर उसका तप भंग कर दिया, तदनंतर अंतर्धान हो गया। धन्वंतरि उसी की स्मृतियों में भटकने लगा। ब्रह्मा ने उसे समस्त स्थिति से अवगत किया तथा विष्णु की आराधना करने के लिए कहा। विष्णु को प्रसन्न करके उसने इन्द्र पद प्राप्त किया, किंतु पूर्वजन्मों के कर्मों के फलस्वरूप वह तीन बार इन्द्र पद से च्युत हुआ-
- वृत्रहत्या के फलस्वरूप नहुष द्वारा
- सिंधुसेन वध के कारण
- अहिल्या से अनुचित व्यवहार के कारण। तदनंतर बृहस्पति के साथ इन्द्र ने विष्णु और शिव को आराधना से प्रसन्न करके अपने राज्य की स्थिरता का वर प्राप्त किया। वह स्थान पूर्णतीर्थ नाम से विख्यात है।[1]
टीका-टिप्पणी
- ↑ ब्रह्म पुराण, 122 ।-