कुणाल: Difference between revisions

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एक अन्य कथा के अनुसार अँधा कुणाल वर्षों बाद अशोक के दरबार में एक संगीतकार के रूप में पहुंचा और अपने गायन से सम्राट अशोक को प्रसन्न कर दिया। सम्राट इस गायक से अपने लिए उपहार चुनने के लिए कहा जिसके उत्तर में गायक ने कहा मै कुणाल हूँ, मुझे साम्राज्य चाहिए। अशोक ने दुखी होकर कहा कि अंधत्व के कारण तुम अब इस योग्य नहीं रहे हो। कुणाल ने कहा कि साम्राज्य उसे अपने लिए नहीं वरन अपने बेटे के लिए चाहिए। आश्चर्य से अशोक ने पूछा कि तुम्हे पुत्र कब हुआ। संप्रति अर्थात अभी अभी और यही नाम कुणाल के पुत्र का रख दिया गया। उसे अशोक का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया गया हालाँकि अभी वह गोद में ही था। ऐसा कहा जाता है कि कुमार कुणाल ने [[मिथिला]] में अपना राज्य स्थापित किया था और [[भारत]]    और नेपाल सीमा पर [[कोसी नदी]] के तट पर वर्तमान कुनौली ग्राम ही कभी कुणाल की नगरी थी।
एक अन्य कथा के अनुसार अँधा कुणाल वर्षों बाद अशोक के दरबार में एक संगीतकार के रूप में पहुंचा और अपने गायन से सम्राट अशोक को प्रसन्न कर दिया। सम्राट इस गायक से अपने लिए उपहार चुनने के लिए कहा जिसके उत्तर में गायक ने कहा मै कुणाल हूँ, मुझे साम्राज्य चाहिए। अशोक ने दुखी होकर कहा कि अंधत्व के कारण तुम अब इस योग्य नहीं रहे हो। कुणाल ने कहा कि साम्राज्य उसे अपने लिए नहीं वरन अपने बेटे के लिए चाहिए। आश्चर्य से अशोक ने पूछा कि तुम्हे पुत्र कब हुआ। संप्रति अर्थात अभी अभी और यही नाम कुणाल के पुत्र का रख दिया गया। उसे अशोक का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया गया हालाँकि अभी वह गोद में ही था। ऐसा कहा जाता है कि कुमार कुणाल ने [[मिथिला]] में अपना राज्य स्थापित किया था और [[भारत]]    और नेपाल सीमा पर [[कोसी नदी]] के तट पर वर्तमान कुनौली ग्राम ही कभी कुणाल की नगरी थी।
 
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Revision as of 05:49, 19 November 2011

  • सम्राट अशोक के एक पुत्र का नाम ‘कुणाल’था । हिमालय की तराइयों में कुणाल एक पक्षी पाया जाता है जिसकी आँखे बहुत ही सुन्दर होती हैं।
  • दिव्यावदान [1] में एक तीसरी पत्नी पद्मावती का भी नाम आया है।
  • यह धर्मविवर्धन के माता थी। यही धर्मविवर्धन आगे कुणाल नाम से विख्यात हुआ।
  • फाहियान [2] ने धर्मविवर्धन नाम के अशोक के एक पुत्र का भी उल्लेख किया है, जो गंधार का वाइसराय था।
  • इस बालक के नयन कुणाल पक्षी के सदृश थे। बौद्ध ग्रंथों में कुणाल की कहानी मिलती है।
  • ‘कुणाल अवदाना’ के अनुसार पाटलिपुत्र के सम्राट अशोक की अनेकों रानियाँ थीं। उनमे से एक पद्मावती (जैन मतावलंबी) थी, जिसके पुत्र का नाम कुणाल था। उसे वीर कुणाल और ‘धर्म विवर्धना’ कह कर संबोधित किया गया है।
  • कुणाल की आँखें बहुत सुंदर थी और उसमें लोगों को सम्मोहित करने की भी विशेषता थी। वह ऊर्जा से भरपूर था और गठीला बदन उसके पौरुष की पहचान थी। उसकी अनेकों विमाताओं में एक का नाम तिश्यरक्षा था।

अशोक की युवा रानी का क्रोध

सम्राट अशोक की युवा रानी तिश्यरक्षा, बहुत ही सुन्दर थी। उसके सामने अप्सराएँ भी शर्माती थीं। तिश्यरक्षा कुणाल की आँखों के सम्मोहन से मोहित हो गयी और उसके प्रेम के लिए इतनी आतुर हो गयी कि उसने एक दिन कुणाल को अपने कक्ष में बुलाकर अपने बाहुपाश में जकड लिया और प्रणय निवेदन करने लगी। कुणाल ने किसी तरह अपने आप को अलग किया और अपनी विमाता को धिक्कारते हुए चला गया। इस प्रकार तिरस्कृत होना तिश्यरक्षा को असहनीय हो गया। वह क्रोध से काँपने लगी। कुछ देर बाद सहज होकर उसने दृढ़ निश्चय किया कि वह उन आँखों से बदला लेगी जिसने उसे आसक्त किया था। कुछ दिन व्यतीत होने पर तक्षशिला से समाचार मिला कि वहाँ का राज्यपाल (संभवतः तिश्यरक्षा  के कहने पर) बग़ावत पर उतारू है। उसे नियंत्रित करने के लिए सम्राट अशोक ने अपने पुत्र कुणाल को तक्षशिला भेजा। कुणाल अपनी पत्नी कंचनमाला को साथ लेकर (जिसके प्रति वह पूर्ण निष्‍ठावान था) एक सैनिक टुकड़ी के साथ तक्षशिला की ओर कूच कर गया। इधर सम्राट अशोक अपने प्रिय पुत्र कुणाल के विरह में बुरी तरह बीमार पड़ गया। तिश्यरक्षा की देखभाल और दिन रात की सेवा से सम्राट अशोक पुनः स्वस्थ हो गया। सम्राट ने प्रतिफल स्वरूप तिश्यरक्षा  को एक सप्ताह तक  साम्राज्ञी के रूप में साम्राज्य के  एकल संचालन के लिए अधिकृत कर दिया।

विमाता का प्रतिशोध

तिश्यरक्षा ने इस अवसर का फ़ायदा उठाया और तक्षशिला के राज्यपाल को निर्देशित किया कि वह कुणाल की आँखें निकाल दे। वह पत्र धोखे से कुणाल के हाथ में पड़ गया और अपनी विमाता की इच्छा पूर्ति के लिए उसने स्वयं अपने ही हाथों से अपनी आँखें फोड़ लीं। कंचनमाला अंधे कुणाल को साथ लेकर वापस पाटलिपुत्र पहुँची। सम्राट अशोक को तिश्यरक्षा के षड्यंत्र की कोई जानकारी नहीं थी वह तो केवल यही जानता था कि उसका प्रिय पुत्र अब अँधा हो गया है। अपने पुत्र की दयनीय अवस्था को देखकर सम्राट की आँखों से अनवरत अश्रु धारा बहने लगी। कुणाल को अपनी विमाता से कोई द्वेष भावना नहीं थी और उसके मन में अपनी विमाता के प्रति आदर भाव भी यथावत था। कुणाल की निश्चलता के कारण कालांतर में उसे उसकी दृष्टि वापस मिल गयी थी।

दूसरी कथा

सम्राट अशोक ने अपने आठ वर्षीय पुत्र कुणाल को लालन-पालन और विद्यार्जन के लिए उज्जैन भेजा। अशोक ने कुणाल के भावी गुरु को प्राकृत में पत्र लिखा और शिक्षा प्रारंभ करने के लिए “अधियव” शब्द का प्रयोग किया। तिश्यरक्षा ने उस पत्र को पढ़ा और अपने स्वयं के पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने की नीयत से अधियव शब्द को परिवर्तित कर अन्धियव कर दिया। इससे आशय यह बना कि कुणाल अंधत्व को प्राप्त हो। यह पत्र युवा कुणाल के हाथों में लग गया और उसने स्वयं अपने ही हाथों से अपने आँखों की पुतलियाँ निकाल दी। अशोकवंदना के अनुसार कहानी का अंत कुछ भिन्न है। जब सम्राट अशोक को सही जानकारी मिली तो उसने अपने प्रधानमन्त्री यश की सलाह पर तिश्यरक्षा को ज़िंदा ही जलवा दिया। एक बौद्ध भिक्षु गॉश या घोष की चिकित्सा से कुणाल को अपनी दृष्टि वापस मिल गयी थी। कहा जाता है कि पूर्व जन्म में कुणाल ने 500 हिरणों की आँखें ली थीं जिसका फल उसे भुगतना पड़ा था।

अन्य कथा

एक अन्य कथा के अनुसार अँधा कुणाल वर्षों बाद अशोक के दरबार में एक संगीतकार के रूप में पहुंचा और अपने गायन से सम्राट अशोक को प्रसन्न कर दिया। सम्राट इस गायक से अपने लिए उपहार चुनने के लिए कहा जिसके उत्तर में गायक ने कहा मै कुणाल हूँ, मुझे साम्राज्य चाहिए। अशोक ने दुखी होकर कहा कि अंधत्व के कारण तुम अब इस योग्य नहीं रहे हो। कुणाल ने कहा कि साम्राज्य उसे अपने लिए नहीं वरन अपने बेटे के लिए चाहिए। आश्चर्य से अशोक ने पूछा कि तुम्हे पुत्र कब हुआ। संप्रति अर्थात अभी अभी और यही नाम कुणाल के पुत्र का रख दिया गया। उसे अशोक का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया गया हालाँकि अभी वह गोद में ही था। ऐसा कहा जाता है कि कुमार कुणाल ने मिथिला में अपना राज्य स्थापित किया था और भारत और नेपाल सीमा पर कोसी नदी के तट पर वर्तमान कुनौली ग्राम ही कभी कुणाल की नगरी थी।  

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दिव्यावदान के अनुसार अशोक ने अपनी रानी पद्मावती में उत्पन्न अपने नवजात पुत्र को धर्मविवर्धन नाम दिया था। पर जैसा उसके साथ गये मंत्रियों ने कहा था शिशु की आँखें हिमालय के कुणाल पक्षी की तरह थीं। इसलिए अशोक ने उसे कुणाल कहना शुरू कर दिया था। दिव्यावदान, अध्याय 27,
  2. लेग्गे का अनुवाद, पृ. 31

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