खारवेल: Difference between revisions

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*लेख के अनुसार खारवेल ने '[[पिथुण्ड]]' नगर में गदहों का हल चलवाया था। इस नगर की पहचान मसुलीपट्टम स्थित पिटुण्ड्र नामक स्थान से की जाती थी।  
*लेख के अनुसार खारवेल ने '[[पिथुण्ड]]' नगर में गदहों का हल चलवाया था। इस नगर की पहचान मसुलीपट्टम स्थित पिटुण्ड्र नामक स्थान से की जाती थी।  
*अपने शासनकाल में 8वें वर्ष में खारवेल [[मगध]] पर आक्रमण कर बराबर पहाड़ी गया तक पहुंच गया । उसने बराबर पहाड़ी में स्थित गोरठरि क़िले को नष्ट कर दिया। फलस्वरूप उसने [[राजगृह]] पर आक्रमण कर लिया।  
*अपने शासनकाल में 8वें वर्ष में खारवेल [[मगध]] पर आक्रमण कर बराबर पहाड़ी गया तक पहुंच गया । उसने बराबर पहाड़ी में स्थित गोरठरि क़िले को नष्ट कर दिया। फलस्वरूप उसने [[राजगृह]] पर आक्रमण कर लिया।  
*अपने शासन के 9वें वर्ष में खारवेल ने ब्राह्मणों को सोने का कल्पवृक्ष भेंट किया। इस वृक्ष के पत्ते तक सोने के बने थे। इसी वर्ष खारवेल ने प्राचीन नदी के दोनों किनारों पर लगभग 35 लाख रजत मुद्राओं की लागत से 'विजय प्रासाद' नामक एक महल बनवाया।  
*अपने शासन के 9वें वर्ष में खारवेल ने ब्राह्मणों को सोने का [[कल्पवृक्ष]] भेंट किया। इस वृक्ष के पत्ते तक सोने के बने थे। इसी वर्ष खारवेल ने प्राचीन नदी के दोनों किनारों पर लगभग 35 लाख रजत मुद्राओं की लागत से 'विजय प्रासाद' नामक एक महल बनवाया।  
*शासन के 11 वें वर्ष में खारवेल ने लकड़ी द्वारा निर्मित 1300 वर्ष पुरानी केतुभद्र की प्रतिमा के साथ एक जुलूस निकाला, इसके पूर्व यह प्रतिमा पृथु-दक-दर्भ शहर में स्थापित की गई थी। *शासन के 12 वें में खारवेल ने [[उत्तरापथ]] पर आक्रमण कर [[अंग महाजनपद|अंग]] और [[मगध]] से कीमती उपहार प्राप्त किया। इन उपहारों में प्रथम जिनकी प्रतिमा तथा पद-चिह्न शामिल है जो नंदों के पास था। खारवेल ने शासन के 12 वें वर्ष में ही दक्षिण पाड्य राजाओं से हाथी, घोड़े, हीरे तथा जवाहरात उपहार में प्राप्त किए। पाण्ड्य नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। यह खारवेल का झुकाव धर्म की ओर हुआ जिसके परिणामस्वरूप कुमारी पर्वत पर अर्हतों के लिए उसने देवालय निर्मित करवाया।  
*शासन के 11 वें वर्ष में खारवेल ने लकड़ी द्वारा निर्मित 1300 वर्ष पुरानी केतुभद्र की प्रतिमा के साथ एक जुलूस निकाला, इसके पूर्व यह प्रतिमा पृथु-दक-दर्भ शहर में स्थापित की गई थी। *शासन के 12 वें में खारवेल ने [[उत्तरापथ]] पर आक्रमण कर [[अंग महाजनपद|अंग]] और [[मगध]] से कीमती उपहार प्राप्त किया। इन उपहारों में प्रथम जिनकी प्रतिमा तथा पद-चिह्न शामिल है जो नंदों के पास था। खारवेल ने शासन के 12 वें वर्ष में ही दक्षिण पाड्य राजाओं से हाथी, घोड़े, हीरे तथा जवाहरात उपहार में प्राप्त किए। पाण्ड्य नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। यह खारवेल का झुकाव धर्म की ओर हुआ जिसके परिणामस्वरूप कुमारी पर्वत पर अर्हतों के लिए उसने देवालय निर्मित करवाया।  
*उसने [[उदयगिरि और खण्डगिरि गुफ़ाएँ|उदयगिरि]] में 19 तथा खण्डीगिरी में 16 गुहा विहारों का निर्माण कराया।  
*उसने [[उदयगिरि और खण्डगिरि गुफ़ाएँ|उदयगिरि]] में 19 तथा खण्डीगिरी में 16 गुहा विहारों का निर्माण कराया।  

Revision as of 08:01, 4 April 2013

thumb|राजा खारवेल (काल्पनिक चित्र) पहली सदी ई.पू. तक कलिंग का जैन राजा 'खारवेल' इस महाद्वीप का सर्वश्रेष्ठ सम्राट बन चुका था और मौर्य शासकों का मगध कलिंग साम्राज्य का एक प्रांत बन चुका था। कलिंग राज्य के विषय में जानकारी के महत्त्वपूर्ण स्रोत अष्टाध्यायी, महाभारत, पुराण, रामायण, कालिदास कृत रघुवंश महाकाव्य, दण्डी का दशकुमारचरित, जातक, जैन ग्रंथ उत्तराध्ययनसूत्र, टॉल्मी का भूगोल, अशोक के लेख एवं खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख है। हाथीगुम्फा अभिलेख से खारवेल के पिता तथा पितामह के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती है। सम्पूर्ण अभिलेख में खारवेल का नाम विभिन्न उपाधियों - आर्य महाराज, महामेघवाहन, कलिंगाधिपति श्री खारवेल तथा राजा श्री खारवेल तथा लेमराज, बृद्धराज, धर्मराज तथा महाविजय राज जैसे विशेषणों के साथ उल्लिखित है।

उपलब्धियाँ

15 वर्ष की अवस्था में खारवेल 'युवराज' बना और 24 वर्ष की अवस्था में इसका 'राज्याभिषेक' किया गया। खारवेल कलिंग के तीसरे राजवंश चेदि वंश का था। खारवेल को ऐरा, महाराज, महामेघवाहन, एवं कलिंगाधिपति कहा गया है।

  • खारेवल ने अपने शासनकाल के दूसरे वर्ष में शातकर्णी (सातवाहन) की उपेक्षा करते हुए कश्यप क्षत्रियों के सहयोग से 'यूषिक' राजाओं की राजधानी को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया।
  • शासनकाल के पांचवे वर्ष में खारवेल ने नंदों द्वारा खुदवाई नहर तनसूलि को अपनी राजधानी में मिला लिया।
  • सम्भवतः शासनकाल के सातवें वर्ष में खारवेल ने अपना विवाह ललक हथिसिंह नामक एक राजा की कन्या से किया और साथ ही मसुलीपट्टम को जीता। ऐसा प्रतीत होता है कि खारेवल का सामना करने के लिए दक्षिण के तमिल राजाओं ने एक संघ का निर्माण कर लिया था जिसे खारवेल ने नष्ट कर दिया।
  • लेख के अनुसार खारवेल ने 'पिथुण्ड' नगर में गदहों का हल चलवाया था। इस नगर की पहचान मसुलीपट्टम स्थित पिटुण्ड्र नामक स्थान से की जाती थी।
  • अपने शासनकाल में 8वें वर्ष में खारवेल मगध पर आक्रमण कर बराबर पहाड़ी गया तक पहुंच गया । उसने बराबर पहाड़ी में स्थित गोरठरि क़िले को नष्ट कर दिया। फलस्वरूप उसने राजगृह पर आक्रमण कर लिया।
  • अपने शासन के 9वें वर्ष में खारवेल ने ब्राह्मणों को सोने का कल्पवृक्ष भेंट किया। इस वृक्ष के पत्ते तक सोने के बने थे। इसी वर्ष खारवेल ने प्राचीन नदी के दोनों किनारों पर लगभग 35 लाख रजत मुद्राओं की लागत से 'विजय प्रासाद' नामक एक महल बनवाया।
  • शासन के 11 वें वर्ष में खारवेल ने लकड़ी द्वारा निर्मित 1300 वर्ष पुरानी केतुभद्र की प्रतिमा के साथ एक जुलूस निकाला, इसके पूर्व यह प्रतिमा पृथु-दक-दर्भ शहर में स्थापित की गई थी। *शासन के 12 वें में खारवेल ने उत्तरापथ पर आक्रमण कर अंग और मगध से कीमती उपहार प्राप्त किया। इन उपहारों में प्रथम जिनकी प्रतिमा तथा पद-चिह्न शामिल है जो नंदों के पास था। खारवेल ने शासन के 12 वें वर्ष में ही दक्षिण पाड्य राजाओं से हाथी, घोड़े, हीरे तथा जवाहरात उपहार में प्राप्त किए। पाण्ड्य नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। यह खारवेल का झुकाव धर्म की ओर हुआ जिसके परिणामस्वरूप कुमारी पर्वत पर अर्हतों के लिए उसने देवालय निर्मित करवाया।
  • उसने उदयगिरि में 19 तथा खण्डीगिरी में 16 गुहा विहारों का निर्माण कराया।
  • उदयगिरि में रानी गुफा तथा खण्डगिरि में अनन्तगुफा उत्कीर्ण रिलीफ चित्रकला की दृष्टि से उच्चकोटि के है।
  • खारवेल को शान्ति एवं समृद्धि का सम्राट, भिक्षुसम्राट एवं धर्मराज के रूप में भी जाना जाता था।
  • सम्भवतः खारवेल जैन धर्म का अनुयायी था।
  • उदयगिरि का हाथीगुम्फा अभिलेख भारतीय इतिहास में मौर्यो के अधिपतन से लेकर गुप्तों के अभ्युदय के पूर्व के अंधकार युग को प्रकाशित करता है।
  • उड़ीसा में भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि की पहाड़ियों में खारवेल के शासनकाल के 'स्मारक प्राप्य प्राचीन स्मारकों' में सबसे प्राचीन हैं। उपलब्ध शिलालेखों में राजा खारवेल को केवल सैन्य कौशल में ही माहिर नहीं बताया गया है बल्कि उसे साहित्य, गणित और सामाजिक विज्ञान का भी ज्ञाता बताया गया है। कला के संरक्षक के रूप में भी उसकी महान ख्याति थी और अपनी राजधानी में नृत्य और नाट्य कला को भी प्रोत्साहन देने का श्रेय उसे मिला।[1]

'प्रसिद्ध इतिहासकार के.पी. जायसवाल ने मेघवंश राजाओं को चेदीवंश का माना है. ‘भारत अंधकार युगीन इतिहास (सन 150 ई. से 350 ई. तक)’ में वे लिखते हैं, ‘ये लोग मेघ कहलाते थे. ये लोग उड़ीसा तथा कलिंग के उन्हीं चेदियों के वंशज थे, जो खारवेल के वंशधर थे और अपने साम्राज्य काल में ‘महामेघ’ कहलाते थे. भारत के पूर्व में जैन धर्म फैलाने का श्रेय खारवेल को जाता है. कलिंग राजा जैन धर्म के अनुयायी थे, उनका वैष्णव धर्म से विरोध था. अत: वैष्णव धर्मी राजा अशोक ने उस पर आक्रमण किया इसका दूसरा कारण समुद्री मार्ग पर क़ब्ज़ा भी था. इसे ‘कलिंग युद्ध’ के नाम से जाना जाता है. युद्ध में एक लाख से अधिक लोग मारे जाने से व्यथित अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया और अहिंसा पर ज़ोर देकर बौद्ध धर्म को अन्य देशों तक फैलाया.' [2]

शिलालेख में उल्लेख

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

मौर्य वंश की शक्ति के शिथिल होने पर जब मगध साम्राज्य के अनेक सुदूरवर्ती प्रदेश मौर्य सम्राटों की अधीनता से मुक्त होने लगे, तो कलिंग भी स्वतंत्र हो गया। उड़ीसा के भुवनेश्वर नामक स्थान से तीन मील दूर उदयगिरि नाम की पहाड़ी है, जिसकी एक गुफ़ा में एक शिलालेख उपलब्ध हुआ है, जो 'हाथीगुम्फ़ा लेख' के नाम से प्रसिद्ध है। इसे कलिंगराज ख़ारवेल ने उत्कीर्ण कराया था। यह लेख प्राकृत भाषा में है, और प्राचीन भारतीय इतिहास के लिए इसका बहुत अधिक महत्त्व है। इसके अनुसार कलिंग के स्वतंत्र राज्य के राजा प्राचीन 'ऐल वंश' के चेति या चेदि क्षत्रिय थे। चेदि वंश में 'महामेधवाहन' नाम का प्रतापी राजा हुआ, जिसने मौर्यों की निर्बलता से लाभ उठाकर कलिंग में अपना स्वतंत्र शासन स्थापित किया। महामेधवाहन की तीसरी पीढ़ी में ख़ारवेल हुआ, जिसका वृत्तान्त हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में विशद के रूप से उल्लिखित है। ख़ारवेल जैन धर्म का अनुयायी था, और सम्भवतः उसके समय में कलिंग की बहुसंख्यक जनता भी वर्धमान महावीर के धर्म को अपना चुकी थी।

ख़ारवेल की शक्ति के उत्कर्ष और दिग्विजय का यह वृत्तान्त निस्सन्देह बहुत महत्त्व का है। चेदि क्षत्रियों के शौर्य के कारण कलिंग न केवल मौर्य साम्राज्य की अधीनता से मुक्त होकर स्वतंत्र हो गया था, अपितु उनके अन्यतम राजा ख़ारवेल ने भारत के सुदूर प्रदेशों को जीतकर अपने अधीन भी कर लिया था। ऐसा प्रतीत होता है, कि ख़ारवेल अपने विजित प्रदेशों पर स्थिर रूप से कार्य नहीं कर सका, और उसने किसी स्थायी साम्राज्य की स्थापना नहीं की।

ऐतिहासिक अभी यह निर्णय नहीं कर सके हैं कि ख़ारवेल का समय कौन सा है। श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने सबसे पूर्व हाथीगुम्फ़ा शिलालेख को प्रकाशित कराया था, और उन्होंने उसका जो पाठ पढ़ा था, उसमें ख़ारवेल के समकालीन मगधराज के नाम को बहसतिमित पढ़कर और बृहस्पतिमित्र को पुष्यमित्र का पर्यायवाची मानकर उन्होंने यह प्रतिपादित किया था कि ख़ारवेल शुंगवंशी राजा पुष्यमित्र का समकालीन था। साथ ही, जो यवनराज ख़ारवेल के आक्रमण के भय से मध्यदेश को छोड़कर वापस चला गया था, उसका नाम भी जायसवाल जी ने हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में 'दिमित' पढ़ा था। जिसे उन्होंने बैक्ट्रिया के यवन राजा डेमेट्रियस से मिलाया था। पर बाद में अनेक ऐतिहासिकों ने हाथीगुम्फ़ा शिलालेख के इन पाठों से असहमति प्रगट की। उनके अनुसार इस शिलालेख में न बहसतिमित का नाम है, और न ही दिमित का।

जिन दिनों मगध पर पुष्पमित्र राज करता था, उन्हीं दिनों कलिंग में खारवेल नाम का बहुत ही वीर और महत्त्वाकांक्षी राजा हुआ । खारवेल इतना बहादुर था कि दक्षिण में जिस तमिल देशों के संघ को चन्द्रगुप्त मौर्य भी अपने अधीन नहीं कर सका था, उसे खारवेल ने अपने अधीन कर लिया। खारवेल ने पाटलिपुत्र पर भी चढ़ाई की। खारवेल ने यवनों को भी परास्त किया। ईसा पूर्व दूसरी शताब्‍दी में खारवेल राजा के कलिंग एक शाक्तिशाली साम्राज्‍य बन गया। खारवेल की मृत्‍यु के बाद उड़ीसा की ख्‍याति लुप्‍त हो गई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारत का इतिहास (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) itihaasam.blogspot.com। अभिगमन तिथि: 4सितम्बर, 2010।
  2. मेघवंश: एक सिंहावलोकन (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) maheshpanthi.net। अभिगमन तिथि: 4सितम्बर, 2010।

बाहरी कड़ियाँ