सिस्टर निवेदिता: Difference between revisions

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==संबंधित लेख==
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Revision as of 11:20, 7 October 2013

सिस्टर निवेदिता
पूरा नाम मार्ग्रेट एलिज़ाबेथ नोबल
जन्म 28 अक्टूबर, 1867
जन्म भूमि डेंगानेन, आयरलैण्ड
मृत्यु 11 अक्टूबर, 1911
मृत्यु स्थान दार्जिलिंग, भारत
गुरु स्वामी विवेकानन्द
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता
विशेष योगदान निवेदिता ने प्रत्यक्ष रूप से कभी किसी आन्दोलन में भाग नहीं लिया, लेकिन उन्होंने भारतीय युवाओं को प्रेरित किया, जो उन्हें रूमानी राष्ट्रीयता और प्रबल भारतीयता का दर्शनशास्त्री मानते थे।
अन्य जानकारी भारत की स्वतंत्रता की कट्टर समर्थक थीं और अरविंदो घोष सरीखे राष्ट्रवादियों से उनका घनिष्ठ सम्पर्क था।

सिस्टर निवेदिता (अंग्रेज़ी:Sister Nivedita, जन्म:28 अक्टूबर, 1867 - मृत्यु: 11 अक्टूबर, 1911) का पूरा नाम 'मार्ग्रेट एलिज़ाबेथ नोबल' था। इनका जन्म 28 अक्टूबर, 1867, डेंगानेन, आयरलैण्ड में हुआ और मृत्यु 11 अक्टूबर, 1911, दार्जिलिंग, भारत में हुई। इन्हें 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना और राष्ट्रीय चेतना, एकता, पुनर्जागरण व राष्ट्रीय स्वाधीनता के नए विचार, जो 1947 में भारत की स्वतंत्रता में फलीभूत हुए, को बढ़ावा देने वाले प्रखर वक्ताओं में से एक माना जाता है।

विवेकानन्द से भेंट

रेंवरेंड सैमुअल रिचमंड नोबल और उनकी पत्नी 'मेरी' की तीन सन्तानों में मार्ग्रेट सबसे बड़ी थीं। 17 वर्ष की आयु में वह शिक्षिका बनीं और आयरलैण्ड तथा इंग्लैण्ड के विभिन्न विद्यालयों में अध्यापन का कार्य किया। अन्तत: उन्होंने 1892 में विंबलडन में अपने विद्यालय की शुरुआत की। वह एक अच्छी पत्रकार तथा वक्ता थीं। उन्होंने 'सेसमि क्लब' में दाख़िला लिया, जहाँ उनकी मुलाक़ात 'जॉर्ज बर्नाड शॉ' और 'टॉमस हक्सले' से हुई। 1895 में मार्ग्रेट स्वामी विवेकानन्द से उनकी इंग्लैण्ड यात्रा के दौरान मिलीं। वह वेदान्त के सार्वभौम सिद्धान्तों, विवेकानन्द की मीमांसा और वेदान्त दर्शन की मानववादी शिक्षाओं की ओर आकर्षित हुईं तथा उन्होंने विवेकानन्द के 1896 में भारत आने से पहले तक वह इंग्लैण्ड में वेदान्त आन्दोलन के लिए काम करती रहीं।

भारत आगमन

उनके सम्पूर्ण समर्पण के कारण विवेकानन्द ने उन्हें निवेदिता नाम दिया, जिसका अर्थ है, जो समर्पित है। आरम्भ में वह एक शिक्षिका के रूप में भारत आई थीं, ताकि विवेकानन्द की स्त्री-शिक्षा की योजनाओं को मूर्त किया जा सके। उन्होंने कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के एक छोटे से घर में स्थित स्कूल में कुछ महीनों तक पश्चिमी विचारों को भारतीय परम्पराओं के अनुकूल बनाने के प्रयोग किए। 1899 में स्कूल बन्द करके धन इकट्ठा करने के लिए वह पश्चिमी देशों की यात्रा पर चली गईं। 1902 में लौटकर उन्होंने फिर से स्कूल की शुरुआत की। 1903 में निवेदिता ने आधारभूत शिक्षा के साथ-साथ युवा महिलाओं को कला व शिल्प का प्रशिक्षण देने के लिए एक महिला खण्ड भी खोला। उनके स्कूल ने शिक्षण और प्रशिक्षण जारी रखा।

नि:स्वार्थ सेवा

भारत में विधिवत दीक्षित होकर वह स्वामी जी की शिष्या बन गई और उन्हें रामकृष्ण मिशन के सेवाकार्य में लगा दिया गया। इस प्रकार वह पूर्णरूप से समाजसेवा के कार्यों में निरत हो गई और कलकत्ता में भीषण रूप से प्लेग फैलने पर भारतीय बस्तियों में प्रशंसनीय सुश्रुषा कार्य उसने एक आदर्श स्थापित कर दिया। उत्तरी कलकत्ता के उस भाग में एक बालिका विद्यालय की स्थापना उन्होंने की, जहाँ पर घोर कट्टरपंथी हिन्दू बहुसंख्या में थे। प्राचीन हिन्दू आदर्शों को शिक्षित जनता तक पहुँचाने के लिए अंग्रेज़ी में पुस्तकें लिखीं और सम्पूर्ण भारत में घूम-घूमकर अपने व्याख्यानों के द्वारा उनका प्रचार किया। वह भारत की स्वतंत्रता की कट्टर समर्थक थीं और अरविंदो घोष सरीखे राष्ट्रवादियों से उनका घनिष्ठ सम्पर्क था।

संघ से त्यागपत्र

रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें जननी की संज्ञा दी। धीरे-धीरे निवेदिता का ध्यान भारत की राजनीतिक मुक्ति की ओर गया। विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास रामकृष्ण संघ परम्परा के शुद्ध आध्यात्मिक और मानवतावादी सिद्धान्तों और आदर्शों में था। जिनका राजनीति से कोई लेना-देना न था, उनके इस विश्वास का मान रखते हुए उन्होंने विवेकानन्द की मृत्यु के बाद संघ से त्यागपत्र दे दिया।

युवा-प्रेरणा

भारतीय कला के पुनरुद्धार से निवेदिता गहरे रूप से जुड़ी थीं और इसे वह राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का अभिन्न हिस्सा मानती थीं। भारतीय नेताओं द्वारा राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने की कोशिशों को ब्रिटिश सरकार द्वारा कुचले जाने से उन्हें बहुत नाराज़गी थी। निवेदिता ने प्रत्यक्ष रूप से कभी किसी आन्दोलन में भाग नहीं लिया, लेकिन उन्होंने भारतीय युवाओं को प्रेरित किया, जो उन्हें रूमानी राष्ट्रीयता और प्रबल भारतीयता का दर्शनशास्त्री मानते थे।

मृत्यु

निवेदिता की मृत्यु दार्जिलिंग में 44 वर्ष की आयु में हुई। भारतीयों के साथ उनके घनिष्ठ सम्पर्क के दौरान यहाँ के लोगों ने अपनी 'सिस्टर' को पूज्य भावना के साथ श्रद्धापूर्ण प्रशंसा और प्रेम दिया। उनकी समाधि पर अंकित है-यहाँ सिस्टर निवेदिता का अस्थि कलश विश्राम कर रहा है, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत को दे दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

(पुस्तक 'भारत ज्ञानकोश') भाग-3, पृष्ठ संख्या-142

बाहरी कड़ियाँ

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