ब्रह्मराक्षस -गजानन माधव मुक्तिबोध: Difference between revisions

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अति भव्य असफलता
अति भव्य असफलता
...अतिरेकवादी पूर्णता
...अतिरेकवादी पूर्णता
की ये व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...
की ये व्यथाए
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
              भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...
...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
              कब रहा आसान
मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!
 
रवि निकलता
लाल चिंता की रुधिर-सरिता
प्रवाहित कर दीवारों पर,
उदित होता चंद्र
व्रण पर बाँध देता
श्वेत-धौली पट्टियाँ
उद्विग्न भालों पर
सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
अनगिन दशमलव से
दशमलव-बिंदुओं के सर्वतः
पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
मारा गया, वह काम आया,
और वह पसरा पड़ा है...
वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
एक शोधक की।
व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा,
प्रासाद में जीना
व जीने की अकेली सीढ़ियाँ
चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
वे भाव-संगत तर्क-संगत
कार्य सामंजस्य-योजित
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
हम छोड़ दें उसके लिए।
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-शोध में
सब पंडितों, सब चिंतकों के पास
वह गुरु प्राप्त करने के लिए
भटका!!
 
किंतु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
...लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अंतःकरण में से
सत्य की झाईं
निरंतर चिलचिलाती थी।
 
आत्मचेतस् किंतु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
विश्वचेतस् बे-बनाव!!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन!
मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
उसकी महत्ता!
व उस महत्ता का
हम सरीखों के लिए उपयोग,
उस आंतरिकता का बताता मैं महत्व!!
 
पिस गया वह भीतरी
औ' बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!
बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ' मर गया...
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम-विवर में
            मरे पक्षी-सा
            विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई
यह क्यों हुआ !
क्यों यह हुआ !!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक
            पहुँचा सकूँ।
</poem>
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==संबंधित लेख==
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Revision as of 14:01, 27 October 2014

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ब्रह्मराक्षस -गजानन माधव मुक्तिबोध
कवि गजानन माधव 'मुक्तिबोध'
जन्म 13 नवंबर, 1917
जन्म स्थान श्यौपुर, ग्वालियर
मृत्यु 11 सितंबर 1964
मृत्यु स्थान दिल्ली
मुख्य रचनाएँ कविता संग्रह- चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी भूरी खाक धूल कहानी संग्रह- काठ का सपना, विपात्र, सतह से उठता आदमी आलोचना- कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, एक साहित्यिक की डायरी रचनावली- मुक्तिबोध रचनावली (6 खंडों में)
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनाएँ

<poem> शहर के उस ओर खंडहर की तरफ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठंडे अँधेरे में बसी गहराइयाँ जल की... सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में... समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन बात गहरी हो।

बावड़ी को घेर डालें खूब उलझी हैं, खड़े हैं मौन औदुंबर। व शाखों पर लटकते घुग्घुओं के घोंसले परित्यक्त भूरे गोल।

विद्युत शत पुण्य का आभास जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर हवा में तैर बनता है गहन संदेह अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि दिल में एक खटके सी लगी रहती।

बावड़ी की इन मुँडेरों पर मनोहर हरी कुहनी टेक बैठी है टगर ले पुष्प तारे-श्वेत

उसके पास लाल फूलों का लहकता झौंर - मेरी वह कन्हेर... वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का शून्य अंबर ताकता है।

बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य ब्रह्मराक्षस एक पैठा है, व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज, हड़बड़ाहट शब्द पागल से। गहन अनुमानिता तन की मलिनता दूर करने के लिए प्रतिपल पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात स्वच्छ करने - ब्रह्मराक्षस घिस रहा है देह हाथ के पंजे बराबर, बाँह-छाती-मुँह छपाछप खूब करते साफ, फिर भी मैल फिर भी मैल!!

और... होठों से अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार, अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार, मस्तक की लकीरें बुन रहीं आलोचनाओं के चमकते तार !! उस अखंड स्नान का पागल प्रवाह... प्राण में संवेदना है स्याह!!

किंतु, गहरी बावड़ी की भीतरी दीवार पर तिरछी गिरी रवि-रश्मि के उड़ते हुए परमाणु, जब तल तक पहुँचते हैं कभी तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने झुककर नमस्ते कर दिया।

पथ भूलकर जब चाँदनी की किरन टकराए कहीं दीवार पर, तब ब्रह्मराक्षस समझता है वंदना की चाँदनी ने ज्ञान-गुरु माना उसे।

अति प्रफुल्लित कंटकित तन-मन वही करता रहा अनुभव कि नभ ने भी विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!

और तब दुगुने भयानक ओज से पहचान वाला मन सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से मधुर वैदिक ऋचाओं तक व तब से आज तक के सूत्र छंदस्, मंत्र, थियोरम, सब प्रेमियों तक कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गांधी भी सभी के सिद्ध-अंतों का नया व्याख्यान करता वह नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम प्राक्तन बावड़ी की उन घनी गहराइयों में शून्य।

...ये गरजती, गूँजती, आंदोलिता गहराइयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता, वह रूप अपने बिंब से भी जूझ विकृताकार-कृति है बन रहा ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ

बावड़ी की इन मुँडेरों पर मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं टगर के पुष्प-तारे श्वेत

                     वे ध्वनियाँ!

सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुंबर सुन रहा हूँ मैं वही पागल प्रतीकों में कही जाती हुई वह ट्रेजिडी जो बावड़ी में अड़ गई। ...

खूब ऊँचा एक जीना साँवला

             उसकी अँधेरी सीढ़ियाँ...

वे एक आभ्यंतर निराले लोक की। एक चढ़ना औ' उतरना, पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना, मोच पैरों में व छाती पर अनेकों घाव। बुरे-अच्छे-बीच के संघर्ष से भी उग्रतर अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर गहन किंचित सफलता, अति भव्य असफलता ...अतिरेकवादी पूर्णता की ये व्यथाए