ब्रह्मराक्षस -गजानन माधव मुक्तिबोध: Difference between revisions
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अति भव्य असफलता | अति भव्य असफलता | ||
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<poem> शहर के उस ओर खंडहर की तरफ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठंडे अँधेरे में बसी गहराइयाँ जल की... सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में... समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन बात गहरी हो। बावड़ी को घेर डालें खूब उलझी हैं, खड़े हैं मौन औदुंबर। व शाखों पर लटकते घुग्घुओं के घोंसले परित्यक्त भूरे गोल। विद्युत शत पुण्य का आभास जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर हवा में तैर बनता है गहन संदेह अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि दिल में एक खटके सी लगी रहती। बावड़ी की इन मुँडेरों पर मनोहर हरी कुहनी टेक बैठी है टगर ले पुष्प तारे-श्वेत उसके पास लाल फूलों का लहकता झौंर - मेरी वह कन्हेर... वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का शून्य अंबर ताकता है। बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य ब्रह्मराक्षस एक पैठा है, व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज, हड़बड़ाहट शब्द पागल से। गहन अनुमानिता तन की मलिनता दूर करने के लिए प्रतिपल पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात स्वच्छ करने - ब्रह्मराक्षस घिस रहा है देह हाथ के पंजे बराबर, बाँह-छाती-मुँह छपाछप खूब करते साफ, फिर भी मैल फिर भी मैल!! और... होठों से अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार, अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार, मस्तक की लकीरें बुन रहीं आलोचनाओं के चमकते तार !! उस अखंड स्नान का पागल प्रवाह... प्राण में संवेदना है स्याह!! किंतु, गहरी बावड़ी की भीतरी दीवार पर तिरछी गिरी रवि-रश्मि के उड़ते हुए परमाणु, जब तल तक पहुँचते हैं कभी तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने झुककर नमस्ते कर दिया। पथ भूलकर जब चाँदनी की किरन टकराए कहीं दीवार पर, तब ब्रह्मराक्षस समझता है वंदना की चाँदनी ने ज्ञान-गुरु माना उसे। अति प्रफुल्लित कंटकित तन-मन वही करता रहा अनुभव कि नभ ने भी विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!! और तब दुगुने भयानक ओज से पहचान वाला मन सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से मधुर वैदिक ऋचाओं तक व तब से आज तक के सूत्र छंदस्, मंत्र, थियोरम, सब प्रेमियों तक कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गांधी भी सभी के सिद्ध-अंतों का नया व्याख्यान करता वह नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम प्राक्तन बावड़ी की उन घनी गहराइयों में शून्य। ...ये गरजती, गूँजती, आंदोलिता गहराइयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता, वह रूप अपने बिंब से भी जूझ विकृताकार-कृति है बन रहा ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ बावड़ी की इन मुँडेरों पर मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं टगर के पुष्प-तारे श्वेत वे ध्वनियाँ! सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुंबर सुन रहा हूँ मैं वही पागल प्रतीकों में कही जाती हुई वह ट्रेजिडी जो बावड़ी में अड़ गई। ... खूब ऊँचा एक जीना साँवला उसकी अँधेरी सीढ़ियाँ... वे एक आभ्यंतर निराले लोक की। एक चढ़ना औ' उतरना, पुनः चढ़ना औ' लुढ़कना, मोच पैरों में व छाती पर अनेकों घाव। बुरे-अच्छे-बीच के संघर्ष से भी उग्रतर अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर गहन किंचित सफलता, अति भव्य असफलता ...अतिरेकवादी पूर्णता की ये व्यथाए |