भाषाविज्ञान: Difference between revisions

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*[महावीर सरन जैन का आलेख - भाषा-संरचना – वर्णानात्मक भाषाविज्ञान एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान रचनाकार: महावीर सरन जैन का आलेख - भाषा-संरचना – वर्णानात्मक भाषाविज्ञान एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान http://www.rachanakar.org/2015/02/blog-post_60.html#ixzz3SUxQJnMF]
*[http://www.rachanakar.org/2015/02/blog-post_60.html#ixzz3SUxQJnM भाषा-संरचना – वर्णानात्मक भाषाविज्ञान एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान ]
*[महावीर सरन जैन का आलेख - चॉम्स्की का रचनांतरणपरक व्याकरण एवं सार्वभौमिक व्याकरण और उसकी सीमाएँ (रचनाकार, 09 मार्च, 2015)
*[http://www.rachanakar.org/2015/03/functional-linguistics-sfl.html#ixzz3U41DdhAX प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (Functional Linguistics) ]
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*[महावीर सरन जैन का आलेख - प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (Functional Linguistics) (हैलिडे के व्यवस्थागत प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (SFL) के विशेष संदर्भ में)
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==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==

Revision as of 06:27, 13 March 2015

भाषाविज्ञान भाषा के अध्ययन की वह शाखा है जिसमें भाषा की उत्पत्ति, स्वरूप, विकास आदि का वैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाता है। भाषाविज्ञान के अध्ययेता 'भाषाविज्ञानी' कहलाते हैं। भाषाविज्ञान संभंधित आरंभिक गतिविधियों में पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' का प्रमुख रूप से उल्लेख किया जाता है। भाषाविज्ञान, व्याकरण से भिन्न है। व्याकरण में किसी भाषा का कार्यात्मक अध्ययन (functional description) किया जाता है जबकि भाषाविज्ञानी इसके आगे जाकर भाषा का अत्यन्त व्यापक अध्ययन करता है। अध्ययन के अनेक विषयों में से आजकल भाषा-विज्ञान को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है।

भाषाविज्ञान का इतिहास

प्राचीन एवं मध्यकाल

भारत की तुलना में यूरोप में भाषाविषयक अध्ययन बहुत देर से प्रारंभ हुआ और उसमें वह पूर्णता और गंभीरता न थी जो हमारे शिक्षाग्रंथों, प्रातिशाख्यों और पाणिनीय व्याकरण में थी। पश्चिमी दुनिया के लिये भाषाविषयक प्राचीनतम उल्लेख ओल्ड टेस्टामेंट में बुक ऑव जेनिसिस (Book of Genesis) के दूसरे अध्याय में पशुओं के नामकरण के संबंध में मिलता है। यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस (पाँचवी शताब्दी ई. पू.) ने मिस्र के राजा संमेतिकॉस (Psammetichos) द्वारा संसार की भाषा ज्ञात करने के लिये दो नवजात शिशुओं पर प्रयोग करने का उल्लेख किया है। यूनान में प्राचीनतम भाषावैज्ञानिक विवेचन प्लेटो (425-348 47 ई. पू.) के संवाद में मिलता है और यह मुख्यतया ऊहापोहात्मक है। अरस्तू (384-322,21 ई. पू.) पाश्चात्य भाषाविज्ञान के पिता कहे जाते हैं। उन्होंने भाषा की उत्पति और प्रकृति के संबंध में उपने गुरु प्लेटो से कुछ विरोधी विचार व्यक्त किए। उनके अनुसार भाषा समझौते (thesis) और परंपरा (Synthesis) का परिणाम है। अर्थात्‌ उन्होंने भाषा को यादृच्छिक कहा है। अरस्तू का यह मत आज भी सर्वमान्य है। गाय को 'गाय' इसलिये नहीं कहा जाता है कि इस शब्द से इस विशेष चौपाए जानवर का बोध होना अनिवार्य है, किंतु इसलिये कहा जाता है कि कभी उक्त पशु का बोध कराने के लिये इस शबद का यादृच्छिक प्रयोग कर लिया गया था, जिसे मान्यता मिल गई और जो परंपरा से चला आ रहा है उन्होंने 'संज्ञा', 'क्रिया', 'निपात' ये शब्दभेद किए।
यूनान में भाषा का अध्ययन केवल दार्शनिकों तक ही सीमित रहा। यूनानियों की दूसरी विशेषता यह थी कि उन्होंने अपनी भाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं में कोई रुचि नहीं दिखाई। यह बात इस तथ्य से प्रमाणित होती है कि सिकंदर की सेनाओं ने यूनान से लेकर भारत की उत्तरी सीमा तक के विस्तृत प्रदेश को पदाक्रांत किया, किंतु उनके विवरणों में उन प्रदेशों की बोलियों का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। यूनान में कुछ भाषाविषयक कार्य भी हुए अरिस्तार्कस (Aristarchus) ने होमर की कविता की भाषा का विश्लेषण किया। अपोलोनिअस डिस्कोलस (Appollonios Dyskolos) ग्रीक वाक्यप्रक्रिया पर प्रकाश डाला। डिओनिसओस थ्रौक्स (Dionysios Thrax) ने एक प्रभावशाली व्याकरण लिखा। कुछ शब्दकोश ऐसे भी मिलते है जिनमें ग्रीक और लैटिन के अतिरिक्त एशिया माइनर में बोली जाने वाली भाषाओं के अनेक शब्दों का समावेश किया गया है। संक्षेप में यूनानियों ने भाषा को तत्वमीमांसा की दृष्टि से परखा। उनके द्वारा प्रस्तुत भाषाविश्लेषण को दार्शनिक व्याकरण की संज्ञा दी गई है। रोम वालों ने यूनानियों के अनुकरण पर व्याकरण और कोश बनाए। वारो (116-27 ई. पू.) ने 26 खंडों में लैटिन व्याकरण रचा। प्रिस्किअन (512-60) का 20 खंडोवाला लैटिन व्याकरण बहुत प्रसिद्ध है।

मध्य युग

मध्य युग में ईसाई मिशनरियों को औरोें की भाषाएँ सीखनी पड़ी। जनता को जनता की भाषा में उपदेश देना प्रचार के लिये अनिवार्य था। फलस्वरूप परभाषा सीखने की व्यावहारिक पद्धतियाँ निकलीं। मिशनरियों ने अनेक भाषाओं के व्याकरण तथा कोश बनाए। पर ग्रीक लैटिन व्याकरण के ढाँचों में रचे जाने के कारण ये अपूर्ण तथा उनुपयुक्त थे। उसी युग में सैनिकों और उपनिवेशों ने शासकीय वर्ग के लोगों ने स्थानीय भाषाओं का विश्लेषण शुरू किया। साथ ही व्यापार विस्तार के कारण अनेकानेक भाषाओं से यूरोपीयों का परिचय बढ़ा। 17वीं शताब्दी में (1647 में) फैंसिस लोडविक (Francis Lodwick) तथा रेवरेंड केव डेक (Rev. Cave Deck) जैसे विद्वानों ने 'ए कॉमन राइटिंग' तथा 'यूनिवर्सल कैरेक्टर' जैसे ग्रंथ लिखे थे, जिससे उनके स्वनविज्ञान के ज्ञान का परिचय मिलता है। लोडविक ने एक आशुलिपि का अविष्कार किया था, जो अंग्रेज़ी और डच दोनों के लिये 1650 ई. के लगभग व्यवहृत की गई थी। मध्यकाल में सभी ज्ञात भाषाओं के सर्वेक्षण का प्रयत्न हुआ। अतएव अनेक बहुभाषी कोश तथा बहुभाषी संग्रह निकले। 18वीं शताब्दी में पल्लास (P.S. Pallas) की विश्वभाषाओं की तुलनात्मक शब्दावली में 285 शब्द ऐसे हैं जो 272 भाषाओं में मिलते हैं। एडेलुंग (Adelung) की माइ्थ्रोडेटीज (Mithridates) में 500 भाषाओं में 'ईश प्रार्थना' है।

18वीं एवं 19वीं शती

इस प्रकार 18वीं शती के पूर्व भाषाविषयक प्रचुर सामग्री एकत्र हो चुकी थी। किंतु विश्लेषण तथा प्रस्तुतीकरण क पद्धतियाँ वही पुरानी थीं। इनमें सर्वप्रथम जर्मन विद्वान्‌ लाइबनित्स (Leibnitz) ने परिष्कार किया। इन्होंने ही संभवत: सर्वप्रथम यह बताया कि 'यूरेशियाई' भाषाओं का एक ही प्रागैतिहासिक उत्स है। इस प्रकार 18वीं शती में तुलात्मक ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की भूमिका बनी, जो 19वीं शती में जाकर विकसित हुई। संक्षेप में, 19वीं शताब्दी से पूर्व यूरोपीय भाषाओं का जो अध्ययन किया गया, वह भाषावैज्ञानिक की अपेक्षा तार्किक अधिक, रूपात्मक की अपेक्षा संकल्पनात्मक अधिक और वर्णनात्मक की अपेक्षा विध्यात्मा (Prescriptive) अधिक था। 19वीं शती (ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान) - उन्नीसवीं शती ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान का युग था इसके प्रारंभ का श्रेय संस्कृत भाषा से पाश्चात्यों के परिचय को है। तुलनात्मक भाषा विज्ञान का सूत्रपात एक प्रकार से उस समय हुआ जब 2 फ़रवरी, 1786 को सर विलियम जोंस ने कलकत्ते में यह घोषणा की कि संस्कृत भाषा की संरचना अद्भुत है, वह ग्रीक से अधिक पूर्ण, लैटिन से अधिक समृद्ध और दोनों से ही अधिक परिष्कृत है। फिर भी इसका दोनों से घनिष्ठ संबंध है। उन्होंने देखा कि संस्कृत की एक ओर ग्रीक और लैटिन तथा दूसरी और गॉथीक, केल्टी से इतनी अधिक समानता है कि निश्चय ही इन सब का एक ही स्त्रोत रहा होगा। यह पारिवारिक धारणा इस नए विज्ञान के मूल में है।
इस दिशा में पहला सुव्यवस्थित कार्य डेनमार्क वासी रास्क (1787-1832) का है। रास्क ने भाषाओं की समग्र संरचना की तुलना पर अधिक बल दिया और केवल शब्दावली साम्य आगत शब्दों के कारण भी हो सकता है। इन्होंने स्वनों के साम्य को भी पारिवारिक संबंध निर्धारण का महत्वपूर्ण अंग माना। इस धारणा को सुव्यवस्थित पुष्टि दी याकोव ग्रीम (1785-1863) ने, जिनके स्वन नियम भाषा विज्ञान में प्रसिद्ध हैं। इन स्वन नियमों में भारत यूरोपीय से प्राग्जर्मनीय में, तदनंतर उच्चजर्मनीय में होनेवाले व्यवस्थित व्यंजन स्वन परिवर्तनों की व्याख्या है। इसी बीच संस्कृत के अधिकाधिक परिचय से पारिवारिक तुलना का क्रम अधिकाधिक गहरा होता गया। बॉप (1791-1967) ने संस्कृत, अवेस्ता ग्रीक, लैटिन, लिथुएनी, गॉथिक, जर्मन, प्राचीन स्लाव केल्टी और अल्बानी भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण प्रकाशित किया। रास्क और ग्रिम ने स्वन परिवर्तनों पर प्रकाश डाला, बॉप ने मुख्यत: रूपप्रक्रिया का आधार ग्रहण किया।
रास्क, ग्रिम और बॉप के पश्चात्‌ मैक्समूलर (1823-1900) और श्लाइखर (1823-68) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मैक्सूमूलर की महत्वपूर्ण कृति 'लेसंस इन दि सायंस ऑव लैंग्वेज' (1861) है। श्लाइखर ने भारत-यूरोपीय परिवार की भाषाओं का एक सुव्यवस्थित सर्वागीण तुलनात्मक व्याकरण प्रस्तुत किया श्लाइखर ने तुलनात्मक भाषा विज्ञान के सैद्धांतिक पक्ष पर भी विशेष कार्य किया। इनके अनुसार यदि दो भाषाओं में समान परिवर्तन पाए जाते हैं, तो ये दोनों भाषाएँ किसी काल में एक साथ रही होंगी। इस प्रकार उन्होंने तुलनात्मक आधार पर आदिभाषा (Ursprache) की पुनर्रचना (Reconstruction) के लिये मार्ग प्रशस्त किया। पुनर्रचना के अतिरिक्त भाषाविज्ञान को इनकी एक और मुख्य देन भाषाओं का प्ररूपसूचक वर्गीकरण है। इन दिनों भाषाविज्ञान के क्षेत्र में आने वाली अमेरिकी विद्वानों में हिवटनी (1827-1894) अग्रणी हैं। इन्होंने भाषा के विकास और भाषा के अध्ययन पर पुस्तकें लिखीं। 1876 में प्रकाशित इनक संस्कृत व्याकरण अपने क्षेत्र का अद्वितीय ग्रंथ है। श्लाइखर के तुरंत बाद फिक (1833-1916) ने 1868 में सर्वप्रथम भारत-यूरोपीय भाषाओं का तुलतात्मक शब्दकोश प्रकाशित किया, जिसमें आदि भाषा के पुनर्रचित रूप भी दिए गए थे।
कुछ समय बाद विद्वानों का ध्यान ग्रिम नियम की कुछ अंसगतियों पर गया। डेनमार्क वासी वार्नर ने 1875 में एक ऐसी असंगति को नियमबद्ध अपवाद के रूप में स्थापित किया। यह असंगति थी भारत-यूरोपीय प्‌, त्‌, क्‌ का जर्मनीय में सघोष बन जाना। वार्नर ने ग्रीक और संस्कृत की तुलना से इसका अपवाद ढूँढ़ निकाला जो वार्नर नियम के नाम से प्रचलित है। ऐसे अपवादों की स्थापना से विद्वानों के एक संप्रदाय को उनके अपने विश्वासों में पुष्टि मिली। ये नव्य वॅयाकरण (Jung grammatiker) कहलाते हैैं। इनके मत से स्वन नियमों का कोई अपवाद नहीं होता। स्वन परिवर्तन आकस्मिक और अव्यवस्थित नहीं है, प्रत्युत नियत और सुव्यवस्थित हैं। असंगति इस कारण मिलती है कि हम उनकी प्रक्रिया को पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं, क्योकि भाषा के नमूनों की कमी है। कुछ असंगतियों के मूल में सादृश्य है, जिसकी पूर्वाचार्यो ने उपेक्षा की थी। इस प्रकार ये नव्य वैयाकरण बड़े व्यवस्थावादी थे।

20वीं शती

ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान पर 20वीं सदी में भी कार्य हुआ है। भारत यूरोपीय परिवार पर ब्रुगमैन और डेलब्रुक एवं हर्मन हर्ट (Hermann Hirt) के तुलनात्मक व्याकरण महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। मेइए (Meillet) का भारत-यूरोपीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन की भूमिका नामक ग्रंथ सनातन महत्व का कहा जा सकता है। हिटाइट नामक प्राचीन भाषा का पता लगने के बाद भारत-यूरोपीय भाषा विज्ञान पर नये सिरे से कार्य प्रारंभ हुआ। भारत यूरोपीयेतर परिवारों पर ऐतिहासिक तुलनात्मक कार्य हो रहा है। ग्रीनबर्ग का अफ्रीकी भाषाओं का वर्गीकरण अनुकरणीय है। इसकी अधुनातन शाखा भाषा कालक्रम विज्ञान (Giotto chronology या Lixico statistics) है, जिसके अंतर्गत तुलनात्मक पद्धति से उस समय के निरूपण का प्रयास किया जाता है जब किसी भाषापरिवार के दो सदस्य पृथक्‌ पृथक्‌ हुए थे। अमरीकी मानव विज्ञानी मॉरिस स्वेडिश इस प्रक्रिया के जन्मदाता हैं। यह पद्धति रेडियो रसायन द्वारा ली गई है।

वर्णनात्मक भाषाविज्ञान

बीसवीं शती का भाषाविज्ञान मुख्यत: वर्णनात्मक अथवा संरचनात्मक भाषाविज्ञान कहा जा सकता है। इसे आधुनिक रूप देने वालों में प्रमुख बॉदें (Baudouin de courtenay), हेनरी स्वीट और सोसुर (Saussure) हैं। स्विस भाषा वैज्ञानिक सोसुर (1857-1913) द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों से भी पूर्व हंबोल्ट (Humboldt) ने प्रतिपादित किया था कि भाषाविशेष का अध्ययन किसी अन्य भाषा से तुलना किए बिना उसी भाषा के आंतरिक अवयवों के आधार पर होना चाहिए। सोसुर ने सर्वप्रथम भाषा की प्रवृति पर प्रकाश डालते हुए संकेतित (Signified) और संकेतन (Signifier) के संबंध को वस्तु न मानकर प्रकार्य (function) माना और उसे भाषाई चिह्न (Linguistic Sign) से अभिहित किया। चिह्न यादृच्छिक है अर्थात ‘संकेतित’ का ‘संकेतक’ से कोई तर्कसंगत संबंध नहीं है। वृक्ष के लिये ‘पेड़’ कहने में कोई तर्क नहीं है; ‘प’, ‘ए’, ‘ड’, श्स्वनों कुछ ऐसा नहीं कि वह वृक्ष का ही संकेतक हो, यह केवल परंपरा के कारण है। इसके अतिरिक्त चिह्न का मूल्य भाषा में प्रयुक्त पूरी शब्दावली (अन्य सभी चिह्नों) के परिप्रेक्ष्य में होता है, अर्थात्‌श् उनके विरोध से होता है। भाषा का इन्हीं विरोधों की प्रकार्यता पर निर्भर रहना वर्णनात्मक भाषा विज्ञान का आधारस्तंभ है। इन (स्वनिम, रूपिम, अर्थिम आदि) की सत्ता विरोध के सिद्धांत पर ही आश्रित है।
सोसूर ने भाषा के दो प्रयोगों पैरोल (वाक) और लांग (भाषा) में भी भेद किया। प्रथम भाषा का जीवित रूप है, हमारा भाषणउच्चार पैरोल है। किंतु द्वितीय भावानयन (Abstraction) की प्रक्रिया से उद्भूत एक अमूर्त भावना है। आपकी हिंदी, हमारी हिंदी, सभी की हिंदी व्यक्तिगत स्तर पर उच्चारण शब्दप्रयोगादि भेद से भिन्न है: फिर भी हिंदी भाषा जैसी अमूर्त धारणा लांग है जो भावानयन प्रक्रिया का परिणाम है और जो इन अनेक वैयक्तिक भेदों स परे और सामान्यकृत हैं। यह साकालिक है (Synchronic) है। सोसुर का महत्व संरचनत्मक भाषाविज्ञान में क्रांतिकारी माना जा सकता है। परकालीन यूरोप के अनेक स्कूल कोपेनहेगेन, प्राहा (प्राग) लंदन तथा अमेरिका के भाषावैज्ञानिक संप्रदाय इनके कुछ मूल सिद्धांतो को लेकर विकसित हुए हैैं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भाषाविज्ञान (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 10 मार्च, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

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