कविकुलकंठा भरण: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (श्रेणी:रीतिकाल; Adding category Category:रीति काल (को हटा दिया गया हैं।))
 
Line 24: Line 24:
{{रीतिकालीन साहित्य}}
{{रीतिकालीन साहित्य}}
[[Category:रीतिकालीन साहित्य]][[Category:पद्य साहित्य]]
[[Category:रीतिकालीन साहित्य]][[Category:पद्य साहित्य]]
[[Category:रीतिकाल]][[Category:साहित्य कोश]][[Category:काव्य कोश]]
[[Category:साहित्य कोश]][[Category:काव्य कोश]]
[[Category:रीति काल]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Latest revision as of 10:14, 5 May 2015

कविकुलकंठा भरण कवि दूलह कृत अलंकारों का यह एक श्रेष्ठ और प्रामाणिक ग्रंथ है। इसका रचनाकाल क्या है, ग्रंथ से पता नहीं चलता पर अनुमानत: सन् 1743 माना जा सकता हैं। प्रकाशित रूप में दुलारेलाल भार्गव, लखनऊ से प्राप्त है।

विशेषताएँ

  • कुल 85 छन्दों में (8 दोहे, 1 सवैया और शेष कवित्त) कवि ने 115 अलंकारों का (मिश्र बन्धुओं ने अपनी टीका में भ्रमवश 117 संख्या दी है) वर्णन इस प्रकार किया है कि स्पष्ट परिभाषा के साथ ही साथ पाठक को लक्षण और उदाहरण के लिए कठिनाई न उठानी पड़े। इसलिए लक्षण के ठीक बाद उदाहरण दिये गये हैं।
  • कवित्त और सवैया छन्दों का प्रयोग ही इस सुविधा का कारण है, क्योंकि दोहा जैसे छोटे छन्द का प्रयोग करने के कारण 'भाषा-भूषण' जैसे अलंकार ग्रंथों में इसकी गुंजाइश सम्भव नहीं हो सकती।
  • दूलह का मुख्य उद्देश्य पाठक को इस योग्य बनाना था कि वह सभा में अपनी विद्वत्ता प्रकट कर सके इसलिए प्रारम्भ में ही उन्होंने इसे स्पष्ट कर दिया है कि -

"जो या कण्ठा भरन को कण्ड करे चितलाय। सभा मध्य सोभा लहे अलंकृती ठहराय।"

  • प्राय: अन्य अलंकार ग्रंथों के समान ही दूलह ने भी 'कवि कुल कण्ठा भरण' की रचना के लिए 'कुवलयानन्द' और 'चन्द्रालोक' को ही अपना आधार बनाया। इसे वे स्वीकार भी कहते हैं- "

'कुवलयानन्द' चन्द्रालोक के मते ते कहीं लुपता ये आठों-आठों प्रहर प्रमानिये।"

किंतु उनसे इनकी भिन्नता भी कहीं-कहीं स्पष्ट है। इन्होंने इन ग्रंथों के समान दोहा जैसे छोटे छन्दों में लक्षण-उदाहरण प्रस्तुत नहीं किये, यद्यपि "थोरे क्रम-क्रम ते कही अलंकार की रीरि" के द्वारा अपनी शैली को भी संक्षिप्त माना है। विषयप्रतिपादन में कहीं-कहीं अंतर भी है।

  • दूलह ने उन 15 अलंकारों का वर्णन किया है जिन्हें प्राचीन कवियों ने छोड़ दिया था 'कुवलयानन्द' और 'चन्द्रालोक' में जिनमें सात अलंकारों रसवत्, प्रेय, उजस्वित्, समाहित, भावोसन्धि, भावशबलता का सम्बन्ध रस से माना गया है, किंतु दूलह ने अन्य आठ अलंकारों-यथा, अनुमिति, उपमिति, शब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि, सम्भव, ऐतिह्य का वर्णन मीमांसा और तर्कशास्त्र के शब्दों के माध्यम से किया है।
  • दूलह और पद्माकर के अतिरिक्त इनका वर्णन पूर्ववर्ती आचार्यों के ग्रंथों में नहीं मिलता। केवल भिखारीदास ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अनुपलब्धि, सम्भव और अर्थापत्ति का उदाहरण मात्र दिया है जबकि दूलह ने लक्षण और उदाहरण के साथ ही साथ एतिह्य आदि नाम के नये अलंकारों को भी जोड़ा है, संकर और संसृष्टि अलंकार का भी न्याय शब्दावली में विवेचन दिया है और संकर के भेदों द्वारा अलंकारों की श्रीवृद्धि की है।
  • उन्होंने काव्यगत रस और भाव की स्थितियों से उत्पन्न चमत्कारिक स्थलों की पहचान करके अपनी तीव्र कविवृष्टि द्वारा ज्ञान के अन्य क्षेत्रों से शब्द लेकर उनको प्रकाशित करने का प्रयत्न किया है।
  • उद्देश्य की सीमा के कारण प्राय: लक्षणों को संक्षिप्त कर देना पड़ा है। अधिक से अधिक अलंकारों का कम-से-कम स्थान में वर्णन करने की प्रवृत्ति के कारण कहीं-कहीं अत्यधिक क्लिष्टता आ जाती है।
  • जिन अलंकारों के कई भेद प्रचलित हैं, उनके लक्षण न देकर केवल भेदों स्पष्ट और सुगम हैं- तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टांत, निदर्शना और विभावना। ये परिभाषाएँ इतनी पूर्ण हैं और इनका वर्णन इस कुशलता के साथ किया गया है कि ग्रंथ अपने नाम की सार्थकता सिद्ध करता है।[1]



पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पुस्तक- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 | सम्पादक- धीरेंद्र वर्मा (प्रधान) | प्रकाशन- ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी | पृष्ठ संख्या- 75

संबंधित लेख