प्रेमचंद: Difference between revisions

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# परीक्षा। प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इन कहानियों की गणना होती है। <br />
# परीक्षा। प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इन कहानियों की गणना होती है। <br />
==प्रेमचंद के साहित्य की विशेषताएँ==
==प्रेमचंद के साहित्य की विशेषताएँ==
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। अपनी कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं। ‘बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊं फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है। इसी प्रकार नमक का दारोग़ा बहुत ईमानदार व्यक्ति है। घूस देकर उसे बिगाड़ने में सभी असमर्थ हैं। सरकार उसे, सख्ती से उचित कार्यवाही करने के कारण, नौकरी से बर्खास्त कर देती है, किन्तु जिस सेठ की घूस उसने अस्वीकार की थी, वह उसे अपने यहां ऊंचे पद पर नियुक्त करता है। वह अपने यहाँ ईमानदार और कर्तव्यपरायण कर्मचारी रखना चाहता है। इस प्रकार प्रेमचंद के संसार में सत्कर्म का फल सुखद होता है। वास्तविक जीवन में ऐसी आश्चर्यप्रद घटनाएं कम घटती हैं। गाँव का पंच भी व्यक्तिगत विद्वेष और शिकायतों को भूलकर सच्चा न्याय करता है। उसकी आत्मा उसे इसी दिशा में ठेलती है। असंख्य भेदों, पूर्वाग्रहों, अन्धविश्वासों, जात-पांत के झगड़ों और हठधर्मियों से जर्जर ग्राम-समाज में भी ऐसा न्याय-धर्म कल्पनातीत लगता है। हिन्दी में प्रेमचंद की कहानियों का एक संग्रह [[बम्बई]] के एक सुप्रसिद्ध प्रकाशन गृह, हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर ने प्रकाशित किया। यह संग्रह ‘नवनिधि’ शीर्षक से निकला और इसमें ‘राजा हरदौल’ और ‘रानी सारन्धा’ जैसी बुन्देल वीरता की सुप्रसिद्ध कहानियाँ शामिल थीं। इसके कुछ समय के बाद प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानियों का एक और संग्रह प्रकाशित किया। इस संग्रह का शीर्षक था ‘प्रेम-पूर्णिमा’। ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘पंच परमेश्वर’ की ही परम्परा की एक और अद्भुत कहानी ‘ईश्वरीय न्याय’ इस संग्रह में थी।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। अपनी कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं। ‘बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊं फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है। इसी प्रकार नमक का दारोग़ा बहुत ईमानदार व्यक्ति है। घूस देकर उसे बिगाड़ने में सभी असमर्थ हैं। सरकार उसे, सख्ती से उचित कार्यवाही करने के कारण, नौकरी से बर्खास्त कर देती है, किन्तु जिस सेठ की घूस उसने अस्वीकार की थी, वह उसे अपने यहां ऊंचे पद पर नियुक्त करता है। वह अपने यहाँ ईमानदार और कर्तव्यपरायण कर्मचारी रखना चाहता है। इस प्रकार प्रेमचंद के संसार में सत्कर्म का फल सुखद होता है। वास्तविक जीवन में ऐसी आश्चर्यप्रद घटनाएं कम घटती हैं। गाँव का पंच भी व्यक्तिगत विद्वेष और शिकायतों को भूलकर सच्चा न्याय करता है। उसकी आत्मा उसे इसी दिशा में ठेलती है। असंख्य भेदों, पूर्वाग्रहों, अन्धविश्वासों, जात-पांत के झगड़ों और हठधर्मियों से जर्जर ग्राम-समाज में भी ऐसा न्याय-धर्म कल्पनातीत लगता है। हिन्दी में प्रेमचंद की कहानियों का एक संग्रह [[बम्बई]] के एक सुप्रसिद्ध प्रकाशन गृह, हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर ने प्रकाशित किया। यह संग्रह ‘नवनिधि’ शीर्षक से निकला और इसमें ‘राजा हरदौल’ और ‘रानी सारन्धा’ जैसी बुन्देल वीरता की सुप्रसिद्ध कहानियाँ शामिल थीं। इसके कुछ समय के बाद प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानियों का एक और संग्रह प्रकाशित किया। इस संग्रह का शीर्षक था ‘प्रेम-पूर्णिमा’। ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘पंच परमेश्वर’ की ही परम्परा की एक और अद्भुत कहानी ‘ईश्वरीय न्याय’ इस संग्रह में थी।

Revision as of 10:09, 28 August 2010

thumb|मुंशी प्रेमचंद
Munshi Premchand
भारत के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के युग का विस्तार सन 1880 से 1936 तक है। यह कालखण्ड भारत के इतिहास में बहुत महत्त्व का है। इस युग में भारत का स्वतंत्रता-संग्राम नई मंजिलों से गुज़रा। यह संघर्ष अधिक सशक्त और गहरा हुआ। प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब हिन्दी में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं फिर भी इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ।

जन्म

प्रेमचंद का जन्म बनारस से लगभग चार मील दूर, लमही नाम के गाँव में 31 जुलाई, 1880 को हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनन्दी देवी थीं। प्रेमचंद का बचपन गाँव में बीता था। वे नटखट और खिलाड़ी बालक थे और खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। बचपन में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में हुई और एक मौलवी साहब से उन्होंने उर्दू और फ़ारसी पढ़ना सीखा। एक रुपया चुराने पर ‘बचपन’ में उन पर बुरी तरह मार पड़ी थी। उनकी कहानी, ‘कज़ाकी’, उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है। कज़ाकी डाक-विभाग का हरकारा था और बड़ी लम्बी लम्बी यात्राएं करता था। वह बालक प्रेमचंद के लिए सदैव अपने साथ कुछ सौगात लाता था। कहानी में वह बच्चे के लिये हिरन का छौना लाता है और डाकघर में देरी से पहुंचने के कारण नौकरी से अलग कर दिया जाता है। हिरन के बच्चे के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह अति विलम्ब से डाक घर लौटा था। कज़ाकी का व्यक्तित्व अतिशय मानवीयता में डूबा है। वह शालीनता और आत्मसम्मान का पुतला है, किन्तु मानवीय करुणा से उसका ह्रदय भरा है।

पारिवारिक जीवन

उनका कुल फटेहाल कायस्थों का था, जिनके पास क़रीब छै बीघे ज़मीन थी और जिनका परिवार बड़ा था। प्रेमचंद के पितामह, मुंशी गुरुसहाय लाल, पटवारी थे। उनके पिता, मुंशी अजायब लाल, डाकमुंशी थे और उनका वेतन लगभग पच्चीस रुपये मासिक था। उनकी मां, आनन्द देवी, सुन्दर सुशील और सुघड़ महिला थीं। छ: महीने की बीमारी के बाद प्रेमचंद की मां की मृत्यु हो गई। तब वे आठवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। दो वर्ष के बाद उनके पिता ने फिर विवाह कर लिया और उनके जीवन में विमाता का अवतरण हुआ। प्रेमचंद के इतिहास में विमाता के अनेक वर्णन हैं । यह स्पष्ट है कि प्रेमचंद के जीवन में मां के अभाव की पूर्ति विमाता द्वारा न हो सकी थी। जब प्रेमचंद पंद्रह वर्ष के थे, उनका विवाह हो गया। वह विवाह उनके सौतेले नाना ने तय किया था। उस काल के विवरण से लगता है कि लड़की न तो देखने में सुंदर थी, न वह स्वभाव से शीलवती थी। वह झगड़ालू भी थी। प्रेमचंद के कोमल मन का कल्पना-भवन मानो नींव रखते-रखते ही ढह गया। प्रेमचंद का यह पहला विवाह था। इस विवाह का टूटना आश्चर्य न था। प्रेमचंद की पत्नी के लिए यह विवाह एक दु:खद घटना रहा होगा। जीवन पर्यन्त यह उनका अभिशाप बन गया। इस सब का दोष भारत की परम्पराग्रस्त विवाह-प्रणाली पर है, जिसके कारण यह व्यवस्था आवश्यकता से भी अधिक जुए का खेल बन जाती है। प्रेमचंद ने निश्चय किया कि अपना दूसरा विवाह वे किसी विधवा कन्या से करेंगे। यह निश्चय उनके उच्च विचारों और आदर्शों के ही अनुरूप था। शिवारानी देवी बाल-विधवा थीं। उनके पिता फ़तेहपुर के पास के इलाक़े में एक साहसी ज़मीदार थे और शिवरानी जी के पुनर्विवाह के लिए उत्सुक थे। सन 1916 के आदिम युग में ऐसे विचार-मात्र की साहसिकता का अनुमान किया जा सकता है। इसी वर्ष प्रेमचंद का दूसरा विवाह संपन्न हुआ। शिवरानी जी की पुस्तक ‘प्रेमचंद-घर में’, प्रेमचंद के घरेलू जीवन का सजीव और अंतरंग चित्र प्रस्तुत करती है। प्रेमचंद अपने पिता की तरह पेचिश के शिकार थे और निरंतर पेट की व्याधियों से पीड़ित रहते थे। प्रेमचंद स्वभाव से सरल, आदर्शवादी व्यक्ति थे। वे सभी का विश्वास करते थे, किन्तु निरंतर उन्हें धोखा खाना पड़ा। उन्होंने अनेक लोगों को धन-राशि कर्ज़ दी, किन्तु बहुधा यह धन लौटा ही नहीं । शिवरानी देवी की दृष्टि कुछ अधिक सांसारिक और व्यवहार-कुशल थी। वे निरंतर प्रेमचंद की उदार-ह्रदयता पर ताने कसती थीं, क्योंकि अनेक बार कुपात्र ने ही इस उदारता का लाभ उठाया। प्रेमचंद स्वयं सम्पन्न न थे और अपनी उदारता के कारण अर्थ-संकट में फंस जाते थे। ‘ढपोरशंख’ शीर्षक कहानी में प्रेमचंद एक कपटी साहित्यिक द्वारा अपने ठगे जाने की मार्मिक कथा कहते हैं।

शिक्षा

ग़रीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में ही गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाना पड़ता था। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे, मगर ग़रीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने - जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर में एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रेमचन्द ने मैट्रिक पास किया।

साहित्यिक जीवन

प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे। जब सरकार ने उनका पहला कहानी-संग्रह, ‘सोज़े वतन’ ज़ब्त किया, तब उन्हें नवाब राय नाम छोड़ना पड़ा। बाद का उनका अधिकतर साहित्य प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित हुआ। इसी काल में प्रेमचंद ने कथा-साहित्य बड़े मनोयोग से पढ़ना शुरू किया। एक तम्बाकू-विक्रेता की दुकान में उन्होंने कहानियों के अक्षय भण्डार, ‘तिलिस्मे होशरूबा’ का पाठ सुना। इस पौराणिक गाथा के लेखक फ़ैज़ी बताए जाते हैं, जिन्होंने अकबर के मनोरंजन के लिए ये कथाएं लिखी थीं। एक पूरे वर्ष प्रेमचंद ये कहानियां सुनते रहे और इन्हें सुनकर उनकी कल्पना को बड़ी उत्तेजना मिली। कथा साहित्य की अन्य अमूल्य कृतियां भी प्रेमचंद ने पढ़ीं। इनमें ‘सरशार’ की कृतियां और रेनाल्ड की ‘लन्दन-रहस्य’ भी थी। गोरखपुर में बुद्धिलाल नाम के पुस्तक-विक्रेता से उनकी मित्रता हुई। वे उनकी दुकान की कुंजियां स्कूल में बेचते थे और इसके बदले में वे कुछ उपन्यास अल्प काल के लिए पढ़ने को घर ले जा सकते थे। इस प्रकार उन्होंने दो-तीन वर्षों में सैकड़ों उपन्यास पढ़े होंगे। इस समय प्रेमचंद के पिता गोरखपुर में डाकमुंशी की हैसियत से काम कर रहे थे। गोरखपुर मे ही प्रेमचंद ने अपनी सबसे पहली साहित्यिक कृति रची। यह रचना एक अविवाहित मामा से सम्बंधित प्रसहन था। मामा का प्रेम एक छोटी जाति की स्त्री से हो गया था। वे प्रेमचंद को उपन्यासों पर समय बर्बाद करने के लिए निरन्तर डांटते रहते थे। मामा की प्रेम-कथा को नाटक का रूप देकर प्रेमचंद ने उनसे बदला लिया। यह प्रथम रचना उपलब्ध नहीं है, क्योंकि उनके मामा ने क्रुद्ध होकर पांडुलिपि को अग्नि को समर्पित कर दिया। गोरखपुर में प्रेमचंद को एक नये मित्र महावीर प्रसाद पोद्दार मिले और इनसे परिचय के बाद प्रेमचंद और भी तेज़ी से हिन्दी की ओर झुके। उन्होंने हिन्दी में शेख़ सादी पर एक छोटी-सी पुस्तक लिखी थी, टॉल्सटॉय की कुछ कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया था और ‘प्रेम-पचीसी’ की कुछ कहानियों का रूपान्तर भी हिन्दी में कर रहे थे। ये कहानियां ‘सप्त-सरोज’ शीर्षक से हिन्दी संसार के सामने सर्वप्रथम सन 1917 में आयीं। ये सात कहानियां थीं:-

  1. बड़े घर की बेटी,
  2. सौत,
  3. सज्जनता का दण्ड,
  4. पंच परमेश्वर,
  5. नमक का दारोग़ा,
  6. उपदेश,
  7. परीक्षा। प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इन कहानियों की गणना होती है।

प्रेमचंद के साहित्य की विशेषताएँ

प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। अपनी कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं। ‘बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊं फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है। इसी प्रकार नमक का दारोग़ा बहुत ईमानदार व्यक्ति है। घूस देकर उसे बिगाड़ने में सभी असमर्थ हैं। सरकार उसे, सख्ती से उचित कार्यवाही करने के कारण, नौकरी से बर्खास्त कर देती है, किन्तु जिस सेठ की घूस उसने अस्वीकार की थी, वह उसे अपने यहां ऊंचे पद पर नियुक्त करता है। वह अपने यहाँ ईमानदार और कर्तव्यपरायण कर्मचारी रखना चाहता है। इस प्रकार प्रेमचंद के संसार में सत्कर्म का फल सुखद होता है। वास्तविक जीवन में ऐसी आश्चर्यप्रद घटनाएं कम घटती हैं। गाँव का पंच भी व्यक्तिगत विद्वेष और शिकायतों को भूलकर सच्चा न्याय करता है। उसकी आत्मा उसे इसी दिशा में ठेलती है। असंख्य भेदों, पूर्वाग्रहों, अन्धविश्वासों, जात-पांत के झगड़ों और हठधर्मियों से जर्जर ग्राम-समाज में भी ऐसा न्याय-धर्म कल्पनातीत लगता है। हिन्दी में प्रेमचंद की कहानियों का एक संग्रह बम्बई के एक सुप्रसिद्ध प्रकाशन गृह, हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर ने प्रकाशित किया। यह संग्रह ‘नवनिधि’ शीर्षक से निकला और इसमें ‘राजा हरदौल’ और ‘रानी सारन्धा’ जैसी बुन्देल वीरता की सुप्रसिद्ध कहानियाँ शामिल थीं। इसके कुछ समय के बाद प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानियों का एक और संग्रह प्रकाशित किया। इस संग्रह का शीर्षक था ‘प्रेम-पूर्णिमा’। ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘पंच परमेश्वर’ की ही परम्परा की एक और अद्भुत कहानी ‘ईश्वरीय न्याय’ इस संग्रह में थी।

प्रेमचंद का स्वर्णिम युग

प्रेमचंद की उपन्यास-कला का यह स्वर्ण युग था। सन 1931 के आरम्भ में ‘ग़बन’ प्रकाशित हुआ था। 16 अप्रॅल, 1931 को प्रेमचंद ने अपनी एक और महान रचना, ‘कर्मभूमि’ शुरू की। यह अगस्त, 1932 में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद के पत्रों के अनुसार सन 1932 में ही वह अपना अन्तिम महान उपन्यास, ‘गोदान’ लिखने में लग गये थे, यद्यपि ‘हंस’ और ‘जागरण’ से सम्बंधित अनेक कठिनाइयों के कारण इसका प्रकाशन जून, 1936 में ही सम्भव हो सका। अपनी अन्तिम बीमारी के दिनों में उन्होंने एक और उपन्यास, ‘मंगलसूत्र’, लिखना शुरू किया था, किन्तु अकाल मृत्यु के कारण यह अपूर्ण रह गया। ‘ग़बन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’- उपन्यासत्रयी पर विश्व के किसी भी कृतिकार को गर्व हो सकता है। ‘कर्मभूमि’ अपनी क्रांतिकारी चेतना के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है। लाहौर कांग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्ष-पद से भाषण देते हुए जवाहरलाल नेहरू ने घोषित किया था। ‘मैं गणतंत्रवादी और समाजवादी हूँ।’ कर्मभूमि इस अशान्त काल की प्रतिध्वनियों से भरा हुआ उपन्यास है। गोर्की के उपन्यास, ‘माँ’ के समान ही यह उपन्यास भी क्रान्ति की कला पर लगभग एक प्रबंध-ग्रन्थ है। यह उपन्यास अद्भुत पात्रों की एक सम्पूर्ण श्रंखला प्रस्तुत करता ह। अमर कांत, समरकान्त, सक़ीना, सुखदा, पठानिन, मुन्नी। अमरकान्त और समरकान्त पाठकों को पिता और पुत्र, नेहरू-द्वय का स्मरण दिलाते हैं। मुन्नी, पठानिन, सक़ीना और लाला समरकान्त सभी की परिणति घटनाओं द्वारा होती है।

कृतियाँ

प्रेमचंद की कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की, किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही उपन्यास सम्राट की पदवी मिल गयी थी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की।

प्रेमचंद की प्रमुख कहानियाँ और उपन्यास
प्रमुख कहानियाँ उपन्यास
अंधेर अनाथ लड़की अपनी करनी अमृत अलग्योझा बाँका ज़मीदार बेटों वाली विधवा सेवासदन
आख़िरी तोहफ़ा आख़िरी मंज़िल आत्म-संगीत आत्माराम आधार बैंक का दिवाला बोहनी प्रेमाश्रम
आल्हा इज्ज़त का ख़ून इस्तीफ़ा ईदगाह ईश्वरीय न्याय मैकू मंत्र रंगभूमि
उद्धार एक ऑंच की कसर एक्ट्रेस कप्तान साहब कर्मों का फल मंदिर और मस्जिद मनावन कायाकल्प
कफ़न कवच क़ातिल कौशल ख़ुदी मुबारक बीमारी ममता वरदान
ग़ैरत की कटार गुल्ली डंडा घरजमाई स्‍वामिनी ज्योति माँ माता का हृदय निर्मला
जेल जुलूस ठाकुर का कुआँ झाँकी तेंतर मिलाप मोटेराम जी शास्त्री ग़बन
त्रिया चरित्र तांगेवाले की बड़ दिल की रानी दण्ड दूसरी शादी र्स्वग की देवी राजहठ कर्मभूमि
दो सखियाँ नेउर मचंद नेकी नरक का मार्ग नैराश्य रामलीला राष्ट्र का सेवक गोदान
नैराश्य लीला नशा नसीहतों का दफ्तर नागपूजा नादान दोस्त लैला वफ़ा का खंजर कृष्णा
निर्वासन पंच परमेश्वर पत्नी से पति पुत्र-प्रेम पैपुजी वासना की कड़ियाँ विजय प्रतिज्ञा
प्रतिशोध प्रेम-सूत्र पर्वत-यात्रा प्रायश्चित परीक्षा विश्वास शंखनाद प्रतापचन्द्र
पूस की रात बड़े घर की बेटी बड़े बाबू बड़े भाई साहब बन्द दरवाज़ा शूद्र शराब की दुकान श्यामा
शांति शादी की वजह शोक का पुरस्कार स्त्री और पुरुष स्वर्ग की देवी स्वांग सभ्यता का रहस्य मंगलसूत्र (अपूर्ण)
समर यात्रा समस्या सैलानी बंदर स्‍वामिनी सोहाग का शव सौत होली की छुट्टी असरारे मुआबिद (अपूर्ण)

आलोचना

प्रेमचंद की बढ़ती हुई ख्याति से कुछ व्यक्तियों के मन में बड़ी कुढ़न और ईर्ष्या हो रही थी। इनमें से एक, श्री अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के विरुद्ध साहित्यिक चोरी का अभियोग लगाया और उनके विरुद्ध छ: महीने तक लेख लिखे। बीजगणित के मान्य फ़ार्मूलों से वे सिद्ध करते रहे कि—

क+ख+ग / द = प+फ+ब /

यानी प्रेमचंद की 1/3 सोफ़िया थैकरे की ¼ अमीलिया का स्मरण दिलाती है। एक और असफल कथाकार ने आलोचक का बाना धारण करते हुए प्रेमचंद को ‘घृणा का प्रचारक’ कहा था।

मृत्यु

सन 1936 ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण 8 अक्तूबर 1936 में इनका स्वर्गवास हो गया।


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