उड़िया साहित्य: Difference between revisions
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Revision as of 07:59, 7 November 2017
उड़िया साहित्य अर्थात् 'उड़िया भाषा का रचना संसार'। भारतीय इतिहास में 14वीं शताब्दी का काल उड़िया साहित्य के लिए काफ़ी रचनात्मक रहा। मध्यकालीन प्रसिद्ध उड़िया कवि जगन्नाथदास थे, जो बंगाल के वैष्णव संत चैतन्य के 16वीं सदी के शिष्य थे। ब्रिटिश शासन तथा भारत की आज़ादी के बाद बदलते परिवेश के साथ ही उड़िया साहित्य के स्वरूप में भी बदलाव आया।
इतिहास
'मादल-पांजी' के रूप में एक क्षेत्रीय भारतीय-आर्य भाषा में सबसे पुराना गद्य उड़िया भाषा में मिलता है, जो पुरी के महान् जगन्नाथ मंदिर का इतिहास है। इसका काल 12वीं शताब्दी का है, लेकिन इसे साहित्यिक रचना नहीं कहा जा सकता। 14वीं शताब्दी का काल उड़िया साहित्य के लिए काफ़ी रचनात्मक रहा। इस काल की रचनाओं में अज्ञात लेखक द्वारा रचित 'कैलास-चौतिशा', जिसमें भगवान शिव और पार्वती के विवाह के 34 पद हैं तथा सरलदास रचित प्रख्यात 'चंडी-पुराण' उल्लेखनीय है। इसके बाद 'भक्ति काल' एक बार फिर प्रेरणादायक रहा; इसमें सबसे प्रख्यात मध्यकालीन उड़िया कवि जगन्नाथदास थे, जो बंगाल के वैष्णव संत चैतन्य के 16वीं सदी के शिष्य थे तथा जिन्होंने अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा पुरी में बिताया था। जगन्नाथदास की कई कृतियों में संस्कृत के भागवतपुराण का रूपांतरण भी शामिल है, जो उड़ीसा में आज भी लोकप्रिय है।[1]
स्वरूप में बदलाव
आज़ादी के बाद बदलते परिवेश के साथ उड़ीसा के साहित्य के स्वरूप में भी बदलाव आया। पुरानी ज़मींदारी प्रथा के अंग और नए आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों की छाया का प्रभाव उड़िया साहित्य पर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इन्हीं परिस्थितियों का अपने साहित्य में जीवंत चित्रण कर उड़िया साहित्यकारों ने अपनी विरासत को और भी समृद्ध बनाया। जहां सुरेंद्र मोहंती के 'अंध दिगंत' (अंधी दिशाएं), लक्ष्मीधर नायक के 'हरे दुर्भागा देश' (ओ देश के दुर्भाग्य) और चंद्रशेखर रथ के 'असूर्य उपनिबेश' (सूर्य रहित उपनगर) में उड़ीसा के सामाजिक एवं राजनीतिक दर्शन का चित्रण मिलता है, वहीं हरेकृष्ण महताब के 'तृतीय पर्ब', बृजमोहन मोहती के 'निशब्द आकाश' व 'अंध पृथ्बी', शांतनु कुमार आचार्य के 'शकुंतला', अनादि साहू के 'मुंडमेखला' और ज्ञानेश्वर मिश्र के 'नेता' में आम उड़िया लोगों के दु:ख-दर्द को अभिव्यक्ति मिली।
विकास
सुरेंद्र मोहंती के 'नील-शैल', 'नीलाद्री विजय', 'कृष्णवेणिरे संध्या' और बामाचरण मित्रा के 'चंदा ओ चंपा' में उड़िया कला, संस्कृति, परंपरा और इतिहास के विकास का प्रतिबिंब शब्दों के दर्पण में दिखाई देता है। आम महिलाओं की त्रासदीपूर्ण स्थिति और भावनाओं को कान्हूचरण मोहंती, गोपीनाथ मोहंती, राजकिशोर पटनायक, कृष्णप्रसाद रथ और शांतनु कुमार आचार्य जैसे अग्रणी लेखकों ने क्रमश: अपनी कृतियों 'डीहदेउख', 'लयबिलय', 'चलाबाट' (पगडंडी), 'नेपथ्य' और 'नरकिन्नर' में विस्तारपूर्णक व बेहद भावपूर्ण तरीक़े से उभारा है।[1]
विषयवस्तु
एक तरफ़ ग्रामीण परिवेश और रहन-सहन पर गोपीनाथ मोहंती ने 'माटीमटाल' में विवचेना की है, तो दूसरी तरफ़ कान्हूचरण मोहंती के 'झांझा', 'तुंडबैद' (अफ़वाह), 'क्षण-क्षण के आन' व 'बृजबहु'; गोपीनाथ मोहंती की 'दानापानी', नित्यानंद महापात्र की 'घरडिह' व 'बनगहरा'; सुरेंद्र मोहंती के 'कांलातर', गायत्री बसु मलिक के 'कावेरी' और अनादि साहु के 'क्षण भंगुर' में आधुनिक शहरी जीवन और उनके प्रभाव का खाका बड़े ही सुंदर ढ़ंग से खींचा गया है। इनमें अधिकांश में ग़रीबी और भुखमरी से बचने के लिए शहरों की ओर पलायन और शहरी जीवन के साए में खो रहे मूल्यों के यथार्थ चित्रण का प्रयास किया गया है।
लेखक तथा कवि
कविता के क्षेत्र में गुरुप्रसाद मोहंती, सीताकांत महापात्र (शब्द र आकाश), सच्चिदानंद राउतराय और बीनापाणि महापात्र ने अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। अपनी कृतियों में समकालीन परिवेश के अपने अनुभवों का जीवंत चित्रण कर मनोज दास ('कथा ओ कहानी', 'मनोज पंचविंशति', 'दूरदूरांतर'), प्रतिभा रे ('जझसेनी'), सुभाषिनी नंदा, गोबिंद दास और बृजमोहन मोहंती जैसे रचनाकार अपने क़लम के माध्यम से उड़िया साहित्य को समृद्ध बनाने में लगे हुए हैं।
ज्ञानपीठ पुरस्कार
उड़िया साहित्य के लिए 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' विजेताओं के नाम इस प्रकार हैं-
साहित्य अकादमी पुरस्कार
'साहित्य अकादमी पुरस्कार' विजेताओं के नाम हैं-
- कान्हूचरण मोहंती (1950) - 'का'
- सुरेंद्र मोहंती (अंध दिगंत)
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