रामनगरिया मेला: Difference between revisions

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'''रामनगरिया मेला''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ramnagariya Mela'') प्रतिवर्ष [[माघ मास|माघ]] महीने में [[गंगा]] के किनारे उत्तर प्रदेश के [[फ़र्रुख़ाबाद ज़िला|फ़र्रुख़ाबाद ज़िले]] में लगता है। जनपद फ़र्रुख़ाबाद के पांचाल घाट पर लगने वाला यह मेला काफी लोकप्रिय है। प्राचीन ग्रथों में इस पूरे क्षेत्र को 'स्वर्गद्वारी' कहा गया है। देश-प्रदेश के श्रद्धालुओं को अपनी तरफ आकर्षित करने वाला यह मेला कब अस्तिस्त्व में आया, यह बहुत कम लोग ही जानते हैं। रामनगरिया मेले को 'मिनी कुम्भ' भी कहा जाता है। पांचाल घाट (प्राचीन नाम घाटिया घाट) पर हर वर्ष लगने वाला मेला रामनगरिया मेला प्रदेश के प्रसिद्ध मेलों में से एक महत्त्वपूर्ण मेला माना जाता है। देश के विभिन्न शहरों से आये लोग यहां एक माह के प्रवास के लिए आते हैं व गंगा किनारे तम्बू लगा [[कल्पवास]] करते हैं। वर्ष [[1985]] में [[नारायण दत्त तिवारी|एनडी तिवारी]] की सरकार ने मेले के लिए प्रतिवर्ष 5 लाख रुपए देना शुरू किया था।
'''रामनगरिया मेला''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ramnagariya Mela'') प्रतिवर्ष [[माघ मास|माघ]] महीने में [[गंगा]] के किनारे [[उत्तर प्रदेश]] के [[फ़र्रुख़ाबाद ज़िला|फ़र्रुख़ाबाद ज़िले]] में लगता है। जनपद फ़र्रुख़ाबाद के पांचाल घाट पर लगने वाला यह मेला काफी लोकप्रिय है। प्राचीन ग्रथों में इस पूरे क्षेत्र को 'स्वर्गद्वारी' कहा गया है। देश-प्रदेश के श्रद्धालुओं को अपनी तरफ आकर्षित करने वाला यह मेला कब अस्तिस्त्व में आया, यह बहुत कम लोग ही जानते हैं। रामनगरिया मेले को 'मिनी कुम्भ' भी कहा जाता है। पांचाल घाट (प्राचीन नाम घाटिया घाट) पर हर वर्ष लगने वाला मेला रामनगरिया मेला प्रदेश के प्रसिद्ध मेलों में से एक महत्त्वपूर्ण मेला माना जाता है। देश के विभिन्न शहरों से आये लोग यहां एक माह के प्रवास के लिए आते हैं व गंगा किनारे तम्बू लगा [[कल्पवास]] करते हैं। वर्ष [[1985]] में [[नारायण दत्त तिवारी|एनडी तिवारी]] की सरकार ने मेले के लिए प्रतिवर्ष 5 लाख रुपए देना शुरू किया था।
==इतिहास==
[[इतिहास]] में झांककर देखें तो फ़र्रुख़ाबाद में [[गंगा]] के तट पर कल्पवास कर रामनगरिया लगने का कोई लिखित प्रमाण नहीं है। शमसाबाद के खोर में प्राचीन गंगा के तट पर 'ढाई घाट का मेला' लगता चला आ रहा है। यह मेला काफी दूर होने के कारण कुछ साधू-संत वर्ष [[1950]] से माघ के महीने में कुछ दिन कल्पवास कर अपनी साधना करते थे, लेकिन आम जनता का इनसे कोई सरोकार नहीं होता था।<ref name="pp">{{cite web |url= https://www.patrika.com/farrukhabad-news/untold-story-of-farrukhabad-ramnagaria-mela-magh-mela-6674927/|title=जानें- क्यों लगता है फर्रुखाबाद का फेमस रामनगरिया मेला और क्या है इसका इतिहास|accessmonthday=30 जनवरी|accessyear=2024 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=patrika.com |language=हिंदी}}</ref>
 
वर्ष [[1955]] में पूर्व विधायक स्वर्गीय महरम सिंह ने इस तरफ अपनी दिलचस्पी दिखाई। उन्होंने इस वर्ष गंगा के तट पर साधु-संतों के ही साथ कांग्रेस पार्टी का एक कैम्प भी लगाया था। इसी के साथ ही साथ उन्होंने पंचायत सम्मलेन, शिक्षक सम्मेलन, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी सम्मेलन तथा सहकारिता सम्मेलन का आयोजन कराया, जिसमें क्षेत्र के लोगों की दिलचस्पी बढ़ गई। वर्ष [[1956]] में विकास खंड राजेपुर तथा पड़ोसी जनपद [[शाहजहांपुर ज़िला|शाहजंहांपुर]] के अल्लागंज क्षेत्र के श्रद्धालुओं ने माघ मेले में [[गंगा]] के तट पर मड़ैया डाली और [[कल्पवास]] शुरू किया। देखते ही देखते मेले की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी।
==मेले का नामकरण==
वर्ष [[1965]] में आयोजित हुए माघ मेले में पंहुचे [[स्वामी श्रद्धानंद]] के प्रस्ताव से माघ मेले का नाम रामनगरिया रखा गया। वर्ष [[1970]] में गंगा तट पर पुल का निर्माण कराया गया, जिसे 'लोहिया सेतु' नाम दिया गया था। पुल का निर्माण हो जाने से मेले में कल्पवासियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ने लगी, जिसके बाद फर्रुखाबाद के आस-पास के सभी जिलों के श्रद्धालु कल्पवास को आने लगे। वर्ष [[1985]] आते-आते यह संख्या कई हजारों में हो गई, जिसके बाद जिला परिषद को मेले की व्यवस्था का जिम्मा सौपा गया। तत्कालीन डीएम के.के. सिन्हा व जिला परिषद के मुख्य अधिकारी रघुराज सिंह ने मेले के दोनों तरफ प्रवेश द्वारों का निर्माण कराया।
 
वर्ष [[1989]] में तत्कालीन [[मुख्यमंत्री]] [[नारायण दत्त तिवारी]] ने मेला रामनगरिया का अवलोकन किया और सूरजमुखी गोष्ठी में हिस्सा लिया। इसके बाद उन्होंने प्रतिवर्ष शासन से मेले के लिए पांच लाख रुपये देने की घोषणा की। वर्ष [[1985]] से ही मेला जिला प्रशासन की देखरेख में संचालित हो रहा है। मेला [[उत्तर प्रदेश]] के साथ ही साथ अन्य प्रदेशों में भी अपनी अलग ही ख्याति रखता है।<ref name="pp">




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रामनगरिया मेला (अंग्रेज़ी: Ramnagariya Mela) प्रतिवर्ष माघ महीने में गंगा के किनारे उत्तर प्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद ज़िले में लगता है। जनपद फ़र्रुख़ाबाद के पांचाल घाट पर लगने वाला यह मेला काफी लोकप्रिय है। प्राचीन ग्रथों में इस पूरे क्षेत्र को 'स्वर्गद्वारी' कहा गया है। देश-प्रदेश के श्रद्धालुओं को अपनी तरफ आकर्षित करने वाला यह मेला कब अस्तिस्त्व में आया, यह बहुत कम लोग ही जानते हैं। रामनगरिया मेले को 'मिनी कुम्भ' भी कहा जाता है। पांचाल घाट (प्राचीन नाम घाटिया घाट) पर हर वर्ष लगने वाला मेला रामनगरिया मेला प्रदेश के प्रसिद्ध मेलों में से एक महत्त्वपूर्ण मेला माना जाता है। देश के विभिन्न शहरों से आये लोग यहां एक माह के प्रवास के लिए आते हैं व गंगा किनारे तम्बू लगा कल्पवास करते हैं। वर्ष 1985 में एनडी तिवारी की सरकार ने मेले के लिए प्रतिवर्ष 5 लाख रुपए देना शुरू किया था।

इतिहास

इतिहास में झांककर देखें तो फ़र्रुख़ाबाद में गंगा के तट पर कल्पवास कर रामनगरिया लगने का कोई लिखित प्रमाण नहीं है। शमसाबाद के खोर में प्राचीन गंगा के तट पर 'ढाई घाट का मेला' लगता चला आ रहा है। यह मेला काफी दूर होने के कारण कुछ साधू-संत वर्ष 1950 से माघ के महीने में कुछ दिन कल्पवास कर अपनी साधना करते थे, लेकिन आम जनता का इनसे कोई सरोकार नहीं होता था।[1]

वर्ष 1955 में पूर्व विधायक स्वर्गीय महरम सिंह ने इस तरफ अपनी दिलचस्पी दिखाई। उन्होंने इस वर्ष गंगा के तट पर साधु-संतों के ही साथ कांग्रेस पार्टी का एक कैम्प भी लगाया था। इसी के साथ ही साथ उन्होंने पंचायत सम्मलेन, शिक्षक सम्मेलन, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी सम्मेलन तथा सहकारिता सम्मेलन का आयोजन कराया, जिसमें क्षेत्र के लोगों की दिलचस्पी बढ़ गई। वर्ष 1956 में विकास खंड राजेपुर तथा पड़ोसी जनपद शाहजंहांपुर के अल्लागंज क्षेत्र के श्रद्धालुओं ने माघ मेले में गंगा के तट पर मड़ैया डाली और कल्पवास शुरू किया। देखते ही देखते मेले की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी।

मेले का नामकरण

वर्ष 1965 में आयोजित हुए माघ मेले में पंहुचे स्वामी श्रद्धानंद के प्रस्ताव से माघ मेले का नाम रामनगरिया रखा गया। वर्ष 1970 में गंगा तट पर पुल का निर्माण कराया गया, जिसे 'लोहिया सेतु' नाम दिया गया था। पुल का निर्माण हो जाने से मेले में कल्पवासियों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ने लगी, जिसके बाद फर्रुखाबाद के आस-पास के सभी जिलों के श्रद्धालु कल्पवास को आने लगे। वर्ष 1985 आते-आते यह संख्या कई हजारों में हो गई, जिसके बाद जिला परिषद को मेले की व्यवस्था का जिम्मा सौपा गया। तत्कालीन डीएम के.के. सिन्हा व जिला परिषद के मुख्य अधिकारी रघुराज सिंह ने मेले के दोनों तरफ प्रवेश द्वारों का निर्माण कराया।

वर्ष 1989 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने मेला रामनगरिया का अवलोकन किया और सूरजमुखी गोष्ठी में हिस्सा लिया। इसके बाद उन्होंने प्रतिवर्ष शासन से मेले के लिए पांच लाख रुपये देने की घोषणा की। वर्ष 1985 से ही मेला जिला प्रशासन की देखरेख में संचालित हो रहा है। मेला उत्तर प्रदेश के साथ ही साथ अन्य प्रदेशों में भी अपनी अलग ही ख्याति रखता है।<ref name="pp">


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