त्रित: Difference between revisions
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Revision as of 09:30, 25 November 2010
त्रित प्राचीन देवताओं में से थे। उन्होंने सोम बनाया था तथा इंद्रादि अनेक देवताओं की स्तुतियाँ समय-समय पर की थीं। त्रित ने बल के दुर्ग को नष्ट किया था। युद्ध के समय मरुतों ने त्रित की शक्ति की रक्षा की थी। वही त्रित अपनी अनेक गायों को लेकर जा रहे थे। मार्ग में आततायी सालावृकों ने उप पर आक्रमण कर दिया। त्रित को बाँधकर एक अंधे कुएँ में डाल दिया तथा वे लोग गायों को बलपूर्वक हाँकते हुए ले गये। जलविहीन टूटे-फूटे कुएँ में गिरकर त्रित को बहुत खेद हुआ। सूखे कुएँ पर सब ओर सूखी हुई काई और टूटी हुई दीवारें थीं। त्रित अपने विगत पराक्रम, पौरुष, स्तुतियों तथा देव-मित्रों का स्मरण करके बहुत क्षुब्ध हुए, कि उनमें से कोई भी उनकी सहायता करने के लिए नहीं आया। त्रित निरन्तर सोचते रहे कि भविष्य में उनका कंकाल उसी कुएँ में पड़ा रहेगा और ऋतुएँ उसे नष्ट कर डालेंगी। टूटे कुएँ की दीवारों से टकरा कर आहत त्रित की स्थिति पर दया कर देवगुरु बृहस्पति ने वहाँ जाकर उन्हें बाहर निकाला तथा सालावृक से उनकी गऊएँ लौटवा दीं।[1]
महाभारत के अनुसार
महात्मा गौतम के तीन पुत्र थे। तीनों ही मुनि थे। उनके नाम एकत, द्वित और त्रित थे। उन तीनों में सर्वाधिक यश के भागी तथा संभावित मुनि त्रित ही थे। कालान्तर में महात्मा गौतम के स्वर्गवास के उपरान्त उनके समस्त यजमान तीनों पुत्रों का आदर-सत्कार करने लगे। उन तीनों में से त्रित सबसे अधिक लोकप्रिय हो गये। अत: शेष दोनों भाई इस विचार में मग्न रहने लगे कि उसके साथ यज्ञ करके धन-धान्य प्राप्त करें तथा शेष जीवन सुख-सुविधा से यापन करें। एक बार तीनों ने किसी यज्ञ में सम्मिलित होकर अनेक पशु आदि धन प्राप्त किया। नि:स्पृह त्रित आगे चलते जा रहे थे, दोनों भाई पशुओं के पीछे-पीछे उनकी सुरक्षा करते चले जा रहे थे। पशुओं के महान समुदाय को देखकर उन दोनों के मन में बार-बार उठता था कि कौन से उपाय से त्रित को दिये बिना, समस्त पशु प्राप्त किये जा सकते हैं। तभी सामने एक भेड़िया देखकर त्रित भागा और एक अंधे कुएँ में गिर गया। एकत और द्वित उसे वहीं पर छोड़कर पशुओं सहित घर लौट गये। त्रित ने कुएँ में बहुत शोर मचाया, किन्तु कोई उसके त्राण के लिए आता नहीं दिखा। कुएँ में तृण, वीरुघ (झाड़ियाँ) और लताएँ थीं। त्रित सोम से वंचित तथा मृत्यु से भयभीत था। मुनि ने बालू भरे कुएँ में संकल्प और भावना से जल, अग्नि आदि की स्थापना की और होता के स्थान पर अपनी प्रतिष्ठा की तदन्तर फैली हुई लता में सोम की भावना करके ऋग्, यजु, साम का चिंतन किया। लता को पीसकर सोमरस निकाला। उसकी आहुति देते हुए वेद-मंत्रों का गम्भीर उच्चारण किया। वेद घ्वनि स्वर्गलोक तक गूँज उठी। तुमुलनाद को सुनकर देवताओं सहित बृहस्पति त्रित मुनि के यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए गए। न पहुँचने पर उन्हें मुनि के शाप का भय था। मुनि ने विधिपूर्वक सब देवताओं को भाग समर्पित किये। देवताओं ने प्रसन्न होकर उनसे वर मांगने के लिए कहा। त्रित ने उनसे दो वर मांगे- एक यह कि वे कूप से बाहर निकल आयें और दूसरा भविष्य में जो भी आचमन करे, वही यज्ञ में सोमपान का अधिकारी हो। देवताओं ने दोनों वर दे दिये। वह कुआँ सरस्वती नदी के तट पर था, तुरन्त ही उसमें जल लहलहाता हुआ भरने लगा। त्रित मुनि जल के साथ-साथ ऊपर उठने लगे और फिर कुएँ से बाहर निकल आये। देवतागण अपने लोक में चले गये। त्रित अपने घर पहुँचे तो उन्होंने दोनों भाइयों से कहा, "तुम पशुओं के लालच में पड़कर मुझे कुएँ में ही छोड़ आये, अत: तुम भयानक दाढ़ी वाले भेड़िये बनकर भटकोगे तथा तुम्हें बंदर-लंगूर जैसी संताने प्राप्त होंगी।" दोनों भाई तुरन्त ही भेड़ियों की सूरत के हो गये।[2]
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