दोष -न्याय दर्शन

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Revision as of 11:38, 22 August 2011 by गोविन्द राम (talk | contribs) ('न्याय दर्शन में आठवाँ प्रमेय है दोष। जीवात्मा के र...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(diff) ← Older revision | Latest revision (diff) | Newer revision → (diff)
Jump to navigation Jump to search

न्याय दर्शन में आठवाँ प्रमेय है दोष। जीवात्मा के राग, द्वेष और मोह इन तीनों को दोष कहते हैं।[1] यह प्रवृत्ति का जनक-उत्पादक होता है। विषय में आसक्तिरूप राग, दूसरों के अनिष्ट की इच्छा रूप अथवा द्विष्ट साधनता ज्ञानजन्य गुण रूप, द्वेष तथा हित में अहित बुद्धि और अहित में हित बुद्धि रूप, मोह जीवात्मा को शुभाशुभ कर्मों में प्रवृत्त कराता है। काम, क्रोध, मत्सर, असूया, प्रभृति दोष इन तीन प्रकारों के दोष में ही अन्तर्भूत हो जाते हैं। इनमें भी मोह सबसे अधर्म है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वही 1.1.18

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                              अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र   अः