डाकिया

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हमारे जीवन में डाकिए की भूमिका अत्यन्त महत्तपूर्ण है। खाकी पैंट और खाकी कमीज़ पहने, कंधे पर खाकी झोला लटकाए जब वह सामने से गुजरता, तो उसकी ओर सबकी दृष्टि अनायास खिंच जाती है। भले ही अब कंप्यूटर और ई-मेल का ज़माना आ गया है पर, डाकिया का महत्व अभी भी उतना ही बना हुआ है जितना पहले था। डाकिया ग्रामीण जन-जीवन का एक सम्मानित सदस्य माना जाता है। डाकिया केवल संदेश-दाता नहीं, अर्थ दाता भी है। डाकिया का कार्य बड़ा कठिन होता है। वह सुबह से शाम तक चलता ही रहता है। डाकिया कम वेतन पाकर भी अपना काम अत्यन्त परिश्रम और लगन के साथ सम्प्पन्न करता है। गर्मी, जाड़ा और बरसात का सामना करते हुए वह समाज की सेवा करता है। डाकिया एक सुपरिचित व्यक्ति है। उससे हमारा व्यक्तिगत संपर्क होता है। [1]

डाकिया भारतीय सामाजिक जीवन की एक आधारभूत कड़ी है। डाकिया द्वारा डाक लाना, पत्रों का बेसब्री से इंतज़ार, डाकिया से ही पत्र पढ़वाकर उसका जवाब लिखवाना इत्यादि तमाम महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन्हें नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। उसके परिचित सभी तबके के लोग हैं। कभी-कभी जो काम बड़े अधिकारी भी नहीं करा पाते वह डाकिया चंद मिनटों में करा देता है। कारण डाक विभाग का वह सबसे मुखर चेहरा है। जहाँ कई अन्य देशों ने होम-टू-होम डिलीवरी को खत्म करने की तरफ कदम बढ़ाये हैं, या इसे सुविधा-शुल्क से जोड़ दिया है, वहीं भारतीय डाकिया आज भी देश के हर होने में स्थित गाँव में निःशुल्क अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। जैसे-जैसे व्यक्तिगत एवं सामाजिक रिश्तों में आत्मीयता व भावनात्मकता कम होती गयी, वैसे-वैसे ही डाकिया का दृष्टिकोण भी भावनात्मक की बजाय व्यवसायिक होता गया। [2]

==विभिन्न नाम==

डाकिया भैया, पोस्टमैन,चिट्ठीरसा और जाने कितने नाम से डाकिया को जाना जाता है। भारतीय समाज में उसकी एक अलग हैसियत और पहचान है। भीड़ में हमेशा उसे अलग से ही पहचाना जा सकता है। अपने इलाके में वह परिवार के सदस्य से कम नहीं माना जाता। इसी नाते डाक प्रणाली में सबसे ज्यादा लोक गीत और साहित्य डाकिया या पोस्टमैन पर लिखे गए हैं। तमाम गीतों में डाकिया के लंबे जीवन की कामना की गयी है। सरकारी अमले में पोस्टमैन ही ऐसा है जिसकी देहात में खास तौर पर सबसे ज्यादा गुडविल है। बाकी सरकारी कर्मचारी अगर गांव-गिरांव में आते हैं और किसी का नाम अगर सूखा राहत देने के लिए भी बुलाते है तो एक बारगी लोग सहम जाते है,पर डाकिया किसी का नाम बुलाए तो उसके चेहरे पर अपने आप खुशी तैर आती है। भले ही डाकिया के थैले से कोई बुरी ख़बर क्यों न निकले । भारत ही नहीं दुनिया की करीब सभी डाक प्रणालियों की रीढ़ डाकिया या पोस्टमैन ही माना जाता है। ज़मीनी स्तर पर पोस्टमैन ही डाक विभाग का वास्तविक प्रतिनिधि होता है।भारतीय समाज मे डाकिया को सबसे सम्मान का दर्जा मिला है। सरकार और जनता के बीच संवाद की वह सबसे मजबूत कड़ी है। यही नहीं एक डाकिया अपने इलाके के समाज और भूगोल की जितनी गहरी समझ रखता है, उतनी किसी और को नहीं होती। पुलिस तथा राजस्व विभाग भी दुर्गम देहात तक यूँ अपनी मौजूदगी रखते हैं। पर इन विभागों के प्रतिनिधि सिपाही ,चौकीदार या पटवारी की विश्वसनीयता और गुडविल कभी भी डाकिया जैसी नहीं बन सकी। सदियों में भारतीय समाज में डाकिया वह घर-घर की खबर रखता है। देहात हो या शहर सभी उसे अपना शुभचिंतक और हितैषी मानते हैं। वह अपने इलाके का मानव कमप्यूटर है, जिसे किसी का पता न मिल रहा हो, किसी बाहर गए हुए आदमी का ठिकाना जानना हो,तो वह डाकिया से बेहतर कोई नहीं बता सकता। डाकिया केवल पत्र बांटते ही नहीं अशिक्षित गरीबों को उसे बांच कर सुनाते भी हैं। इन चिट्ठियों में बहुत सी बातें होती हैं पर वे किसी की पारिवारिक प्रतिष्ठा को सड़क पर लाकर नही खड़ा करते। अपने इलाके में डाकिया कमोवेश सबको जानता-पहचानता है और हर गली-कूचा संचार क्रांति के बावजूद उसका बेसब्री से इंतजार करता नजर आता है। एक -एक घर से वह इतना करीब से जुड़ा है कि उसके पहुंचने पर सर्वत्र स्वागत ही होता है। [3]

साहित्य में

पोस्टमैनों को भारतीय कथा - कहानियों, लोक गीतों और फिल्मों में बहुत सम्मानजनक जगह मिली है। डाकियो की समाज में रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका के आलोक में ही तमाम गीत-लोक गीत और फिल्में बनी हैं। भारतीय डाक प्रणाली की गुडविल बनाने में उनका सर्वाधिक योगदान माना जाता है। गांवों के लोग तो डाकिए की भूमिका की सराहना करते हुए तमाम गीतों में उनके लंबे जीवन की कामना करते हैं। 'युग युग जियो डाकिया भैया' नाम से 1956 में प्रकाशित 'अनिल मोहन' की यह कविता इस संदर्भ में उल्लेखनीय है-

युग-युग जियो डाकिया भैया,
सांझ सबेरे इहै मनाइत है..
हम गंवई के रहवैयापाग लपेटे,
छतरी ताने, काँधे पर चमरौधा झोला,
लिए हाथ मा कलम दवाती,
मेघदूत पर मानस चोला
सावन हरे न सूखे काति,
एकै धुन से सदा चलैया....
शादी,गमी,मनौती,मेला,
बारहमासी रेला पेलापूत
कमासुत की गठरी के बल पर,
फैला जाल अकेला गांव
 सहर के बीच तुहीं एक डोर,
तुंही मरजाद रखवैया
थानेदार,तिलंगा,चौकी दार,सिपाही
तहसीलन केकरु·अमीन गिरदावर आवत,
लोटत नागिन छातिन पैतुहैं देख के फूलत छाती,
नयन जुड़ात डाकिया भैया
युग-युग जियो डाकिया भैया

चाहे वह रेगिस्तान की तपन हो या बर्फबारी और बाढ़ के बीच में काम कर रहे डाकिए हों या फिर दंगे फसाद के बीच जान हथेली पर रख कर लोगों के बीच खड़े डाकिए ,इन सबने समाज में अपनी एक अलग साख बनायी। लोक गीतों से लेकर स्कूली क़िताबों तक का हिस्सा बन गए डाकिए ही वह सबसे मजबूत कड़ी है जिसके नाते डाक विभाग (तार विभाग भी) को देश के सबसे विश्वसनीय विभागों में माना गया।उनकी ही गुडविल के नाते लोग आज तमाम विकल्पों के बाद भी गरीब लोग डाक घरों में ही रूपया जमा करना पसंद करते हैं। अपनी लंबी चौडी़ सेवाओं के बदले डाकिया किसी से कुछ नहीं मांगता।[4]

सिनेमा में

कहानी, कविता या लोकगीत ही नहीं, सिनेमा ने भी डाकिया की साख को भुनाने का प्रयास किया। कुछ फिल्मों में उनको विलेन की भूमिका में भी रखा गया पर वे बहुत कम हैं। शुरू में तो डाकिए या डाक बाबू की मौजूदगी करीब हर फिल्म मे देखने को मिलती थी, पर धीरे-धीरे उनका स्थान टेलीफोन ने और अब मोबाइल फोन ने ले लिया है। कुछ साल पहले एक चीनी फिल्म पोस्टमैन दुनिया भर में चर्चा में रही। इसी तरह पोस्टमैनों को केंद्रित कर अंगे्रजी मे कई फिल्मे बनीं। संचार क्रांति के पहले डाकिए ही असली स्टार रहे और उनकी परदे पर चरित्र अभिनेता के रूप में मानवीय मौजूदगी देखी जाती रही। जासूसी सिनेमा में 'पोस्ट बाक्स नंबर 999' और 'पोस्ट बाक्स नंबर 27' बनी। पोस्ट बाक्स नंबर की सुविधा डाक विभाग ने खास उपभोक्ताओं को दी थी। 1964 में कन्नड़ फिल्म 'पोस्टमास्टर' में डाकिए को देहात में अहम भूमिका में रखा। हिंदी में डाक घर, गमन, दुश्मन, स्वदेश जैसी फिल्मों में भी डाकिया बहुत अहम भूमिका में रहा। फिल्म स्टार राजेश खन्ना तो अपनी शानदार डाकिए की भूमिका और 'डाकिया डाक लाया' गाने से काफी चर्चा में रहे। हिदीं फिल्मों में डाकिया तमाम मौकों पर दिखता रहा है। 'डाक हरकारा' फिल्म में भी डाकिए को बहुत अहम भूमिका में रखा गया।[5]

महत्त्व

हरेक पारंपरिक समुदाय के लोक साहित्य में डाकिये का स्थान काफी ऊंचा है । भारत में प्रायः सभी क्षेत्रीय भाषाओं में डाकिए की कहानियां और कविताएं मिल जाएंगी। पुराने जमाने में हरेक डाकिए को ढोल बजाने वाला मिलता था जो जंगली रास्तों से गुजरते समय डाकिए की सहायता करता था । रात घिरने के बाद खतरनाक रास्तों से गुजरते समय डाकिए के साथ दो मशालची और दो तीरंदाज़ भी चलते थे। ऐसे कई किस्से मिलते हैं जिनमें डाकिए को शेर उठा ले गया या वह उफनती नदी में डूब गया या उसे जहरीले सांप ने काट लिया या वह चटटान फिसलने या मिटटी गिरने से दब गया या चोरों ने उसकी हत्या कर दी । भारत सरकार के जन सूचना निदेशक ने 1923 में संसद को बताया था कि वर्ष 1921-22 के दौरान राहजनी करने वाले चोरों द्वारा डाक लूटने की 57 घटनाएं हुई थीं, जबकि इसके पिछले साल ऐसे 36 मामले हुए थे । 457 मामलों में से सात मामलों में लोगों की जानें गई थीं, 13 मामलों में डाकिये घायल हो गए थे। हमारे समाज में कभी डाकिए का स्थान हर परिवार में एक सदस्य की तरह ही होता था। हर खुशी और दुख में डाकिया ही खबरें पहुंचाता था. बरसात हो या ठंड यह शख्स अपनी सेवाएं कभी नहीं रोकते थे।[6]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवान के डाकिए (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  2. डाकिया: बदलते हुए रूप (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  3. भारतीय पोस्टमैन (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  4. भारतीय पोस्टमैन (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  5. भारतीय पोस्टमैन (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।
  6. World Post Day: कहीं खो तो नहीं जाएगा डाकिया (हिंदी)। । अभिगमन तिथि: 27 दिसम्बर, 2013।

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