शत्रुंजय पहाड़ी

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पालीताना के निकट पाँच पहाड़ियों में सबसे अधिक पवित्र पहाड़ी, जिस पर जैनों के प्रख्यात मन्दिर स्थित हैं। जैन ग्रन्थ 'विविध तीर्थकल्प' में शत्रुंजय के निम्न नाम दिए गए हैं–सिद्धिक्षेत्र, तीर्थराज, मरुदेव, भगीरथ, विमलाद्रि, महस्रपत्र, सहस्रकाल, तालभज, कदम्ब, शतपत्र, नगाधिराजध, अष्टोत्तरशतकूट, सहस्रपत्र, धणिक, लौहित्य, कपर्दिनिवास, सिद्धिशेखर, मुक्तिनिलय, सिद्धिपर्वत, पुंडरीक

मन्दिर

शत्रुंजय के पाँच शिखर (कूट) बताए गए हैं। ऋषभसेन और 24 जैन तीर्थकारों में से 23 (नेमिश्कर को छोड़कर) इस पर्वत पर आए थे। महाराजा बाहुबली ने यहाँ पर मरुदेव के मन्दिर का निर्माण कराया था। इस स्थान पर पार्श्व और महावीर के मन्दिर स्थित थे। नीचे नेमीदेव का विशाल मन्दिर था। युगादिश के मन्दिर का जीर्णोद्वार मंत्रीश्वर बाणभट्ट ने किया था। श्रेष्ठी जावड़ि ने पुंडरीक और कपर्दी की मूर्तियाँ यहाँ पर जैन चैत्य में प्रतिष्ठापित करके पुण्य प्राप्त किया था। अजित चैत्य के निकट अनुपम सरोवर स्थित था। मरुदेवी के निकट महात्मा शान्ति का चैत्य था, जिसके निकट सोने–चाँदी की खानें थीं। यहाँ पर वास्तुपाल नामक मंत्री ने आदि अर्हत ऋषभदेव और पुंडरीक की मूर्तियाँ स्थापित की थीं।

जैन ग्रन्थ

इस जैन ग्रन्थ में यह भी उल्लेख है कि पाँचों पाण्डवों और उनकी माता कुन्ती ने यहाँ पर आकर परमावस्था को प्राप्त किया था। एक अन्य प्रसिद्ध जैन स्तोत्र 'तीर्थमाला चैत्यवन्दन' में शत्रुजंय का अनेक तीर्थों की सूची में सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है—'श्री शत्रुजंयरैवताद्रिशिखरे द्वीपे भृगोः पत्तने'। शत्रुजंय की पहाड़ी पालीताना से डेढ़ मील की दूरी पर और समुद्रतल से 2000 फुट ऊँची है। इसे जैन साहित्य में सिद्धाचल भी कहा गया है। पर्वतशिखर पर 3 मील की कठिन चढ़ाई के पश्चात् कई जैनमन्दिर दिखाई पड़ते हैं। जो एक परकोटे के अन्दर बने हैं। इनमें आदिनाथ, कुमारपाल, विमलशाह, और चतुर्मुख के नाम पर प्रसिद्ध मन्दिर प्रमुख हैं। ये मन्दिर मध्यकालीन जैन राजस्थानी वास्तुकला के सुन्दर उदाहरण हैं। कुछ मन्दिर 11वीं शती के हैं। किन्तु अधिकांश 1500 ई. के आसपास बने थे। इन मन्दिरों की समानता आबू स्थित दिलवाड़ा मन्दिरों से की जा सकती है। कहा जाता है कि मूलरूप से ये मन्दिर दिलवाड़ा मन्दिरों की ही भाँति अलंकृत तथा सूक्ष्म शिल्प और नक़्क़ाशी के काम से युक्त थे, किन्तु मुसलमानों के आक्रमणों से नष्ट–भ्रष्ट हो गए और बाद में इनका जीर्णोद्वार न हो सका। फिर भी इन मन्दिरों की मूर्तिकारी इतनी सघन है कि एक बार तीर्थकरों की लगभग 6500 मूर्तियों की गणना यहाँ पर की गई थी।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • ऐतिहासिक स्थानावली से पेज संख्या 889-890 | विजयेन्द्र कुमार माथुर | वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार

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