गृहस्थ

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स्मृतियों और पुराणों में गृहस्थ के लक्षण और कर्तव्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।[1]

  • मनुस्मृति के अनुसार आयु के प्रथम चतुर्थ भाग को गुरुगृह में व्यतीत करने के बाद द्वितीय चतुर्थ भाग में विवाह करके पत्नी के साथ घर में रहना चाहिए। ऐसा व्यक्ति गृहस्थ कहलाता है।
  • गरुड़ पुराण के अनुसार कुटुंब के भरण-पोषण में नियमपूर्वक लगा हुआ गृहस्थ साधक होता है। वह स्वाध्याय द्वारा ऋषि ऋण, यज्ञ द्वारा देव ऋण और संतानोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से मुक्त होकर मोक्ष की कामना करता है। उसके लिए नित्य पंच महायज्ञों का अनुष्ठान है- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और भूतयज्ञ अर्थात् जीवधारियों की सेवा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय संस्कृति कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: राजपाल एंड सन्ज, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 291 |

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