अध्यक्ष: Difference between revisions
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[[संसद|भारतीय संसद]] का निम्न सदन (लोवर हाउस) का अध्यक्ष सामान्य निर्वाचनों के बाद प्रत्येक नई संसद के आरंभ में सदस्यों द्वारा अपने में से निर्वाचित किया जाता है। वह दुबारा निर्वाचन के लिए खड़ा हो सकता है। सभा के अधिष्ठाता के रूप में उसकी स्थिति बहुत ही अधिकारपूर्ण, गौरवमयी और निष्पक्ष होती है। वह सभा की | [[संसद|भारतीय संसद]] का निम्न सदन (लोवर हाउस) का अध्यक्ष सामान्य निर्वाचनों के बाद प्रत्येक नई संसद के आरंभ में सदस्यों द्वारा अपने में से निर्वाचित किया जाता है। वह दुबारा निर्वाचन के लिए खड़ा हो सकता है। सभा के अधिष्ठाता के रूप में उसकी स्थिति बहुत ही अधिकारपूर्ण, गौरवमयी और निष्पक्ष होती है। वह सभा की कार्रवाई को विनियमित करता है और प्रक्रिया संबंधी नियमों के अनुसार इसके विचार-विमर्श को आगे बढ़ाता है। वह उन सदस्यों के नाम पुकारता है जो बोलना चाहते हों और भाषणों का क्रम निश्चित करता है। वह औचित्य प्रश्नों (पाइंट्स ऑव आर्डर) का निर्णय करता है और आवश्यकता पड़ने पर उनके सारे विनिर्णय (रूलिंग्स) देता है। ये निर्णय अंतिम होते हैं और कोई भी सदस्य उनको चुनौती नहीं दे सकता। वह प्रश्नों, प्रस्तावों और संकल्पों, वस्तुत: उन सभी विषयों की ग्राह्ता का भी निर्णय करता है जो सदस्यों द्वारा सभा के सम्मुख लाए जाते हैं। उसे वादविवाद में असंगत और अवांछनीय बातों को रोकने की शक्ति है और वह अव्यवस्थापूर्ण आचरण के लिए किसी सदस्य का 'नाम' ले सकता है। उसे सभा और उसके सदस्यों के विशेषाधिकारों को भंग करने वाले किसी भी व्यक्ति को दंड देने की शक्ति है। वह विभिन्न संसदीय समितियों के कार्य की देखभाल करता है और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें निर्देश देता है। सभा की शक्ति, कार्रवाई और गरिमा के संबंध में वह सभा का प्रतिनिधि होता है और उससे यह आशा की जाती है कि वह सब प्रकार की दलबंदी और राजनीति से अलग रहे।''' सभा में अध्यक्ष सर्वोच्च अधिकारी होता है। किंतु उसे लोकसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकता है।''' | ||
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[[संसद|भारतीय संसद]] का उच्च सदन (अपर हाउस) के अधिष्ठाता को 'सभापति' कहते हैं, किंतु वह उसका सदस्य नहीं होता। अध्यक्ष और सभापति के कार्य में उनकी सहायता करने के लिए क्रमश: उपाध्यक्ष और उपसभापति होते हैं। [[भारत]] में राज्य-विधानमंडल भी थोड़े बहुत इसी ढंग पर बनाए गए हैं; उनमें अंतर केवल यह है कि उत्तर सदन के सभापति उनके सदस्यों में से निर्वाचित किए जाते हैं। | [[संसद|भारतीय संसद]] का उच्च सदन (अपर हाउस) के अधिष्ठाता को 'सभापति' कहते हैं, किंतु वह उसका सदस्य नहीं होता। अध्यक्ष और सभापति के कार्य में उनकी सहायता करने के लिए क्रमश: उपाध्यक्ष और उपसभापति होते हैं। [[भारत]] में राज्य-विधानमंडल भी थोड़े बहुत इसी ढंग पर बनाए गए हैं; उनमें अंतर केवल यह है कि उत्तर सदन के सभापति उनके सदस्यों में से निर्वाचित किए जाते हैं। | ||
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अध्यक्ष आधुनिक रूप में अध्यक्ष (स्पीकर) के पद का प्रादुर्भाव मध्य युग (13वीं और 14वीं शताब्दी) में इंग्लैंड में हुआ था। उन दिनों अध्यक्ष राजा के अधीन हुआ करते थे। सम्राट् के मुकाबले में अपने पद की स्वतंत्र सत्ता का प्रयोग तो उन्होंने धीरे-धीरे 17वीं शताब्दी के बाद ही आरंभ किया और तब से ब्रिटिश लोकसभा (हाउस ऑव कामन्स) के मुख्य प्रतिनिधि और प्रवक्ता के रूप में इस पद की प्रतिष्ठा और गरिमा बढ़ने लगी। इस ब्रिटिश संसद में अध्यक्ष के मुख्य कृत्य
(क) सभा की बैठकों का सभापतित्व करना,
(ख) सम्राट् और लार्ड सभा (हाउस ऑव लार्ड्स) इत्यादि के प्रति इसके प्रवक्ता और प्रतिनिधि का काम करना और
(ग) इसके अधिकारों और विशेषाधिकारों की रक्षा करना है।
अन्य देशों ने भी ग्रेट-ब्रिटेन के नमूने पर संसदीय प्रणाली अपनाई और उन सबमें थोड़ा ब्रिटिश अध्यक्ष के ढंग पर ही अध्यक्ष पद कायम किया गया।
भारत में अध्यक्ष पद
भारत ने भी स्वतंत्र होने पर संसदीय शासनपद्धति अपनाई और अपने संविधान में अध्यक्षपद की व्यवस्था की। किंतु भारत में अध्यक्ष का पद वस्तुत: बहुत पुराना है और यह 1921 से चला आ रहा है। उस समय अधिष्ठाता (प्रिसाइडिंग आफिसर) विधानसभा का 'प्रधान' (प्रेसिडेंट) कहलाता था। 1919 के संविधान के अंतर्गत पुरानी केंन्द्रीय विधानसभा का सबसे पहला प्रधान सर फ्रेडरिक ह्वाइट को, संसदीय प्रक्रिया और पद्धति में उनके विशेष ज्ञान के कारण, मनोनीत किया गया था, किंतु उसके बाद श्री विट्ठलभाई पटेल और उनके बाद के सब 'प्रधान' सभा द्वारा निर्वाचित किए गए थे। इन अधिष्ठाताओं ने भारत में संसदीय प्रक्रिया और कार्यसंचालन की नींव डाली, जो अनुभव के अनुसार बढ़ती गई और जिसे वर्तमान संसद ने अपनाया।
लोकसभा अध्यक्ष
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भारतीय संसद का निम्न सदन (लोवर हाउस) का अध्यक्ष सामान्य निर्वाचनों के बाद प्रत्येक नई संसद के आरंभ में सदस्यों द्वारा अपने में से निर्वाचित किया जाता है। वह दुबारा निर्वाचन के लिए खड़ा हो सकता है। सभा के अधिष्ठाता के रूप में उसकी स्थिति बहुत ही अधिकारपूर्ण, गौरवमयी और निष्पक्ष होती है। वह सभा की कार्रवाई को विनियमित करता है और प्रक्रिया संबंधी नियमों के अनुसार इसके विचार-विमर्श को आगे बढ़ाता है। वह उन सदस्यों के नाम पुकारता है जो बोलना चाहते हों और भाषणों का क्रम निश्चित करता है। वह औचित्य प्रश्नों (पाइंट्स ऑव आर्डर) का निर्णय करता है और आवश्यकता पड़ने पर उनके सारे विनिर्णय (रूलिंग्स) देता है। ये निर्णय अंतिम होते हैं और कोई भी सदस्य उनको चुनौती नहीं दे सकता। वह प्रश्नों, प्रस्तावों और संकल्पों, वस्तुत: उन सभी विषयों की ग्राह्ता का भी निर्णय करता है जो सदस्यों द्वारा सभा के सम्मुख लाए जाते हैं। उसे वादविवाद में असंगत और अवांछनीय बातों को रोकने की शक्ति है और वह अव्यवस्थापूर्ण आचरण के लिए किसी सदस्य का 'नाम' ले सकता है। उसे सभा और उसके सदस्यों के विशेषाधिकारों को भंग करने वाले किसी भी व्यक्ति को दंड देने की शक्ति है। वह विभिन्न संसदीय समितियों के कार्य की देखभाल करता है और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें निर्देश देता है। सभा की शक्ति, कार्रवाई और गरिमा के संबंध में वह सभा का प्रतिनिधि होता है और उससे यह आशा की जाती है कि वह सब प्रकार की दलबंदी और राजनीति से अलग रहे। सभा में अध्यक्ष सर्वोच्च अधिकारी होता है। किंतु उसे लोकसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकता है।
राज्यसभा अध्यक्ष
भारतीय संसद का उच्च सदन (अपर हाउस) के अधिष्ठाता को 'सभापति' कहते हैं, किंतु वह उसका सदस्य नहीं होता। अध्यक्ष और सभापति के कार्य में उनकी सहायता करने के लिए क्रमश: उपाध्यक्ष और उपसभापति होते हैं। भारत में राज्य-विधानमंडल भी थोड़े बहुत इसी ढंग पर बनाए गए हैं; उनमें अंतर केवल यह है कि उत्तर सदन के सभापति उनके सदस्यों में से निर्वाचित किए जाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
अध्यक्ष (हिंदी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 26 नवंबर, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख