बासुरि गमि नारैनि गमि -कबीर: Difference between revisions
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बासुरि गमि नारैनि गमि, नाँ सुपिनंतर गंम। | बासुरि गमि नारैनि गमि, नाँ सुपिनंतर गंम। | ||
कबीर तहाँ | कबीर तहाँ विलम्बिया, जहाँ छाँह नहिं धंम॥ | ||
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Latest revision as of 09:08, 10 February 2021
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बासुरि गमि नारैनि गमि, नाँ सुपिनंतर गंम। |
अर्थ सहित व्याख्या
कबीरदास कहते हैं कि हे मानव! मैं उस द्वन्द्वातीत अवस्था में स्थित हूँ जहाँ न दिन की पहुँच है, न रात की, जो स्वप्नों में भी नहीं जाना जा सकता और न जहाँ छाया है, न धूप।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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