नील: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
(One intermediate revision by one other user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
{{बहुविकल्प|बहुविकल्पी शब्द=नील|लेख का नाम=नील (बहुविकल्पी)}} | |||
'''नील''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Indigo'') एक प्रकार का रंजक है, जो सूती कपड़ों में पीलेपन से निज़ात पाने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह चूर्ण तथा तरल दोनों रूपों में प्रयुक्त होता है। यह पादपों से तैयार किया जाता है, किन्तु इसे कृत्रिम रूप से भी तैयार कर सकते हैं। [[भारत]] में नील की खेती बहुत प्राचीन काल से होती आई है। इसके अलावा नील रंजक का भी सबसे पहले भारत में ही निर्माण एवं उपयोग किया गया। | '''नील''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Indigo'') एक प्रकार का रंजक है, जो सूती कपड़ों में पीलेपन से निज़ात पाने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह चूर्ण तथा तरल दोनों रूपों में प्रयुक्त होता है। यह पादपों से तैयार किया जाता है, किन्तु इसे कृत्रिम रूप से भी तैयार कर सकते हैं। [[भारत]] में नील की खेती बहुत प्राचीन काल से होती आई है। इसके अलावा नील रंजक का भी सबसे पहले भारत में ही निर्माण एवं उपयोग किया गया। | ||
==परिचय== | ==परिचय== | ||
Line 13: | Line 14: | ||
19वीं सदी के उत्तरार्ध में 47000 एकड़ से ज्यादा में नील की खेती होती थी। बेहतरीन जर्मन नील से प्रतिस्पर्धा की वजह से [[1914]] तक नील-रोपण तकरीबन 8100 एकड़ तक ही सीमित रह गयी थी। प्रथम विश्व युद्ध के वजह अंग्रेज़ हुकूमत नें [[जर्मनी]] से नील का आयात बंद कर दिया था। इस वजह से नील की माँग फिर बढ़ने लगी और चम्पारण नील की खेती के लिहाज से फिर से प्रासांगिक होने लगा। सरकार और जमीनदारों ने नील उत्पाद क्षेत्रफल विस्तृत करना आरंभ कर दिया। इसके अलावा शाषन व्यवस्था और ज़मींदारों ने एक 'तीन कठिआ' सिस्टम लगा रखा था, जिसमें एक बीघे में तीन कट्ठे नील की खेती आरक्षित होते थे। एक चम्पारणी बीघा<ref>जो तकरीबन 0.4 एकड़ के सामन होता है</ref> के अंदर 20 कट्ठे होते थे। फलस्वरूप इसका नाम 'तीन कठिआ' पड़ा। [[1967]] के पहले इन ज़मीनों पर पाँच कट्ठे आरक्षित होते थे नील खेती के लिए। फैक्ट्रियों में फसल देने के दौरान भी खेतिहरों पर अनेक तरह के कर लगते थे, जिसमें बपाही-पुताही, मरवच और सगौरा प्रमुख थे। इन सब करों के बावजूद फैक्ट्रियाँ फसलों का गलत मूल्यांकन करती थीं और किसानों को फसल अदायगी कभी समय पर नहीं होता था।इन परिस्तिथियों में भी नील कंपनियों के बहीखातों को सुधारने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत नें नए करों को लगाने और पुराने करों को बढ़ाने की इज़ाज़त दे दी। उस वक़्त ये कम्पनियाँ किसानों से जबरन वसूली के लिए 'खलीफ़ा'<ref>आज भी चम्पारण के कुछ इलाकों मे पहलवान को खलीफ़ा ही बोलते है</ref> रखा करती थीं। सन [[1914]] के दौरान खलीफ़ाओं के साथ-साथ [[अकाल]] भी किसानों के दरवाजे पर दस्तक देने लगे थे। | 19वीं सदी के उत्तरार्ध में 47000 एकड़ से ज्यादा में नील की खेती होती थी। बेहतरीन जर्मन नील से प्रतिस्पर्धा की वजह से [[1914]] तक नील-रोपण तकरीबन 8100 एकड़ तक ही सीमित रह गयी थी। प्रथम विश्व युद्ध के वजह अंग्रेज़ हुकूमत नें [[जर्मनी]] से नील का आयात बंद कर दिया था। इस वजह से नील की माँग फिर बढ़ने लगी और चम्पारण नील की खेती के लिहाज से फिर से प्रासांगिक होने लगा। सरकार और जमीनदारों ने नील उत्पाद क्षेत्रफल विस्तृत करना आरंभ कर दिया। इसके अलावा शाषन व्यवस्था और ज़मींदारों ने एक 'तीन कठिआ' सिस्टम लगा रखा था, जिसमें एक बीघे में तीन कट्ठे नील की खेती आरक्षित होते थे। एक चम्पारणी बीघा<ref>जो तकरीबन 0.4 एकड़ के सामन होता है</ref> के अंदर 20 कट्ठे होते थे। फलस्वरूप इसका नाम 'तीन कठिआ' पड़ा। [[1967]] के पहले इन ज़मीनों पर पाँच कट्ठे आरक्षित होते थे नील खेती के लिए। फैक्ट्रियों में फसल देने के दौरान भी खेतिहरों पर अनेक तरह के कर लगते थे, जिसमें बपाही-पुताही, मरवच और सगौरा प्रमुख थे। इन सब करों के बावजूद फैक्ट्रियाँ फसलों का गलत मूल्यांकन करती थीं और किसानों को फसल अदायगी कभी समय पर नहीं होता था।इन परिस्तिथियों में भी नील कंपनियों के बहीखातों को सुधारने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत नें नए करों को लगाने और पुराने करों को बढ़ाने की इज़ाज़त दे दी। उस वक़्त ये कम्पनियाँ किसानों से जबरन वसूली के लिए 'खलीफ़ा'<ref>आज भी चम्पारण के कुछ इलाकों मे पहलवान को खलीफ़ा ही बोलते है</ref> रखा करती थीं। सन [[1914]] के दौरान खलीफ़ाओं के साथ-साथ [[अकाल]] भी किसानों के दरवाजे पर दस्तक देने लगे थे। | ||
[[1914]] में पिपरा में नील की खेती करने वालों किसानों ने अनुबंधित मज़दूरों के साथ मिलकर इस नाइंसाफी का विरोध किया। यह अहिंसा पर आधारित एक असहयोग था। खलीफ़ाओं के छिटपुट दमन पर भी उनका असहयोग हिंसा से दूर रहा। पेट की आग ने आनन-फानन में इस असहाय असहयोग आंदोलन को निबटा | [[1914]] में पिपरा में नील की खेती करने वालों किसानों ने अनुबंधित मज़दूरों के साथ मिलकर इस नाइंसाफी का विरोध किया। यह अहिंसा पर आधारित एक असहयोग था। खलीफ़ाओं के छिटपुट दमन पर भी उनका असहयोग हिंसा से दूर रहा। पेट की आग ने आनन-फानन में इस असहाय असहयोग आंदोलन को निबटा ज़रूर दिया, पर किसानों-मज़दूरों को एक रास्ता दिख चुका था। सन [[1916]] में पुनः तुरकौलिया में एक अहिंसक असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ। यह आंदोलन एक बड़े पैमाने पर था और कुछ लंबा भी खिंचा। स्व-निर्वाह के कारण इसका टूटना भी लाजिमी था और वही हुआ। इतना अवश्य था कि दोनों आंदोलन के दौरान किसानों, मज़दूरों पर दमन होने के बावजूद हिंसा नहीं हुई। शायद [[इतिहास]] ने कभी इन करुणामय मगर अद्वितीय परस्थितियों को महातम की निगाह से नहीं देखा, लेकिन यह एक बड़ी घटना थी जो [[महात्मा गाँधी]] के अहिंसा के विचारों से पंक्तिबद्ध थी और शायद इसी ने महात्मा गाँधी को चंपारण आने के लिए प्रेरित भी किया।<ref name="aa"/> | ||
[[दिसंबर]], 1916 में [[लखनऊ]] में आयोजित 31वें [[कांग्रेस अधिवेशन]] में राजकुमार शुक्ल कई कांग्रेसी नेताओं से मिले। उन्होंने सभी बड़े नेताओं को चम्पारण के नील किसानों-मज़दूरों की बदहाली और नील कंपनियों की दलाली के बारे में अवगत कराया ताकि यह मुद्दा कॉन्स्टीटूएंट असेंबली में उठे। उन्होंने गाँधीजी को भी इस मसले पर विस्तार से बताया। पूरी तन्मयता से सुनने के बाद भी महात्मा गाँधी ने विशेष रुचि नहीं दिखायी। [[बिहार]] में कांग्रेस की तुलनात्मक पकड़ और फिर चंपारण जैसे पिछड़े इलाके में सविनय आंदोलन की पृष्ठभूमि महात्मा गाँधी के विशिष्ट मानसिक पटल पर शायद जगह नहीं बना पा रही थी। राजकुमार शुक्ल स्वयं एक जमींदार थे और उनके मुख से किसानों, मज़दूरों की बदहाली के विवरण ने गाँधीजी को प्रभावित किया था। अंततः जब शुक्ल जी ने पिपरा और तुरकौलिया में किसानों, मज़दूरों द्वारा किये गए अहिंसक असहयोग के बारे में बताया तो महात्मा गाँधी तुरंत राजी हो गए चम्पारण चलने के लिए। शायद अहिंसक असहयोग के उदाहरण के प्रस्तुति का वह अद्भुत संयोग था कि जिसकी परिकल्पना महात्मा गाँधी अपने ज़हन में कर रहे थे। | [[दिसंबर]], 1916 में [[लखनऊ]] में आयोजित 31वें [[कांग्रेस अधिवेशन]] में राजकुमार शुक्ल कई कांग्रेसी नेताओं से मिले। उन्होंने सभी बड़े नेताओं को चम्पारण के नील किसानों-मज़दूरों की बदहाली और नील कंपनियों की दलाली के बारे में अवगत कराया ताकि यह मुद्दा कॉन्स्टीटूएंट असेंबली में उठे। उन्होंने गाँधीजी को भी इस मसले पर विस्तार से बताया। पूरी तन्मयता से सुनने के बाद भी महात्मा गाँधी ने विशेष रुचि नहीं दिखायी। [[बिहार]] में कांग्रेस की तुलनात्मक पकड़ और फिर चंपारण जैसे पिछड़े इलाके में सविनय आंदोलन की पृष्ठभूमि महात्मा गाँधी के विशिष्ट मानसिक पटल पर शायद जगह नहीं बना पा रही थी। राजकुमार शुक्ल स्वयं एक जमींदार थे और उनके मुख से किसानों, मज़दूरों की बदहाली के विवरण ने गाँधीजी को प्रभावित किया था। अंततः जब शुक्ल जी ने पिपरा और तुरकौलिया में किसानों, मज़दूरों द्वारा किये गए अहिंसक असहयोग के बारे में बताया तो महात्मा गाँधी तुरंत राजी हो गए चम्पारण चलने के लिए। शायद अहिंसक असहयोग के उदाहरण के प्रस्तुति का वह अद्भुत संयोग था कि जिसकी परिकल्पना महात्मा गाँधी अपने ज़हन में कर रहे थे। |
Latest revision as of 07:59, 5 January 2020
चित्र:Disamb2.jpg नील | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- नील (बहुविकल्पी) |
नील (अंग्रेज़ी: Indigo) एक प्रकार का रंजक है, जो सूती कपड़ों में पीलेपन से निज़ात पाने के लिए प्रयोग किया जाता है। यह चूर्ण तथा तरल दोनों रूपों में प्रयुक्त होता है। यह पादपों से तैयार किया जाता है, किन्तु इसे कृत्रिम रूप से भी तैयार कर सकते हैं। भारत में नील की खेती बहुत प्राचीन काल से होती आई है। इसके अलावा नील रंजक का भी सबसे पहले भारत में ही निर्माण एवं उपयोग किया गया।
परिचय
नील का पौधा दो-तीन हाथ ऊँचा होता है। पत्तियाँ चमेली की तरह टहनी के दोनों ओर पंक्ति में लगती हैं, पर छोटी-छोटी होती हैं। फूल मंजरियों में लगते हैं। लंबी-लंबी बबूल की तरह फलियाँ लगती हैं। नील के पौधे की 300 के लगभग जातियाँ होती हैं, पर जिनसे रंग निकाला जाता है, वे पौधे भारत कै हैं और अरब, मिस्र तथा अमेरिका में भी बोए जाते हैं। भारतवर्ष ही नील का आदिस्थान है और यहीं सबसे पहले रंग निकाला जाता था। 80 ईसवी में सिंध नदी के किनारे के एक नगर से नील का बाहर भेजा जाना एक प्राचीन यूनानी लेखक ने लिखा है। पीछे के बहुत-से विदेशियों ने यहाँ नील के बोए जाने का उल्लेख किया है।
ईसा की पद्रहवीं शताब्दी में जब यहाँ से नील यूरोप के देशों में जाने लगा, तब से वहाँ के निवासियों का ध्यान नील की और गया। सबसे पहले हालैंड वालों ने नील का काम शुरू किया और कुछ दिनों तक वे नील की रंगाई के लिये यूरोप भर में निपुण समझे जाते थे। नील के कारण जब वहाँ कई वस्तुओं के वाणिज्य को धक्का पहुचने लगा, तब फ़्राँस, जर्मनी आदि देश कानून द्वारा नील की आमद बंद करने पर विवश हुए। कुछ दिनों तक इंग्लैंड में भी लोग नील को विष कहते रहे, जिससे इसका वहाँ जाना बंद रहा। बाद के समय में बेलजियम से नील का रंग बनाने वाले बुलाए गए, जिन्होंने नील का काम सिखाया। पहले पहल गुजरात और उसके आसपास के देशों में से नील यूरोप जाता था; बिहार, बंगाल आदि से नहीं। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब नील के काम की और ध्यान दिया, तब बंगाल, बिहार में नील की बहुत-सी कोठियाँ खुल गईं और नील की खेती में बहुत उन्नति हुई।
खेती
भिन्न-भिन्न स्थानों में नील की खेती भिन्न-भिन्न ऋतुओं में और भिन्न-भिन्न रीति से होती है। कहीं तो फसल तीन ही महीने तक खेत में रहती हैं और कहीं अठारह महीने तक। जहाँ पौधे बहुत दिनों तक खेत में रहते हैं, वहाँ उनसे कई बार काटकर पत्तियाँ आदि ली जाती हैं। पर अब फसल को बहुत दिनों तक खेत में रखने की चाल उठती जाती है। बिहार में नील फाल्गुन, चैत्र के महीने में बोया जाता है। गरमी में तो फसल की बढ़त रुकी रहती है, पर पानी पड़ते ही जोर के साथ टहनियाँ और पत्तियाँ निकलती और बढ़ती हैं। अतः आषाढ़ में पहला कलम हो जाता है और टहनियाँ आदि कारखाने भेज दी जाती हैं। खेत में केवल खूँटियाँ ही रह जाती हैं। कलम के पीछे फिर खेत जोत दिया जाता है, जिससे वह बरसात का पानी अच्छी तरह सोखता है और खूँटियाँ फिर बढ़कर पोधों के रूप में हो जाती हैं। दूसरी कटाई फिर क्वार माह में होती है।
रंग निकालना
नील से रंग दो प्रकार से निकाल जाता है—हरे पौधे से और सूखे पोधे से। कटे हुए हरे पौधों को गड़ी हुई नाँदों में दबाकर रख देते हैं और ऊपर से पानी भर देते हैं। बारह चौदह घंटे पानी में पड़े रहने से उसका रस पानी में उतर आता है और पानी का रंग धानी हो जाता है। इसके पीछे पानी दूसरी नाँद में जाता है जहाँ डेढ़ दो घंटे तक लकड़ी से हिलाया और मथा जाता है। मथने का यह काम मशीन के चक्कर से भी होता है। मथने के पीछे पानी थिराने के लिये छोड़ दिया जाता है जिससे कुछ देर में माल नीचे बैठ जाता है। फिर नीचे बैठा हुआ यह नील साफ पानी में मिलाकर उबाला जाता है। उबल जाने पर यह बाँस की फट्टियों के सहारे तानकर फैलाए हुए मोटे कपड़े (या कनवस) की चाँदनी पर ढाल दिया जाता है। यह चाँदनी छनने का काम करती है। पानी तो निथर कर बह जाता है और साफ नील लेई के रूप में लगा रह जाता है। यह गीला नील छोटे छोटे छिद्रों से युक्त एक संदूक में, जिसमें गीला कपड़ा मढ़ा रहता हे, रखकर खूब दबाया जाता है जिससे उसके सात आठ अंगुल मोटी तह जमकर हो जाती है। इसकै कतरे काटकर घोरे धीरे सूखने के लिये रख दिए जाते हैं। सूखने पर इन कतरों पर एक पपड़ी सी जम जाती है जिसे साफ कर देते हैं। ये ही कतरे नील के नाम से बिकते हैं।
नील की खेती और चम्पारण सत्याग्रह
चंपारण बिहार के उत्तर-पश्चिम में स्थित हैं। धान की भारी उपज होने के वजह से अंग्रेज़ शासन के दौरान कई बार इसे "चावल का कटोरा" भी कहा जाता था। चंपारण के कई इलाकों में जल जमाव की समस्या रहती थी। नील की खेती के लिए इस प्रकार का खुश्क वातावरण वरदान था और इस वजह से यहाँ के किसानों से जबरदस्ती नील की खेती भी करवाई जाती थी। चंपारण में नील की खेती के लिए दो अलग अलग व्यवस्थायें प्रचलित थीं। जेरैत और असामीदार। जेरैत विभागीय खेती होती थी, निजी देख-रेख में। असामीदार किसान किरायेदार की तरह होता था, जहाँ उसे नील की खेती ही करनी होती थी। भू-भाग का एक चौथाई हिस्सा जेरैत के लिए आवंटित था तथा तीन चौथाई असामीदारी के लिए। इसी कारण इस व्ययवस्था को 'तिनहथिया' भी कहते थे। असामीदार किसान जेरैत खेतों में मज़दूर का काम भी करते थे या यूं कहिए बेगारी करते थे।[1]
19वीं सदी के उत्तरार्ध में 47000 एकड़ से ज्यादा में नील की खेती होती थी। बेहतरीन जर्मन नील से प्रतिस्पर्धा की वजह से 1914 तक नील-रोपण तकरीबन 8100 एकड़ तक ही सीमित रह गयी थी। प्रथम विश्व युद्ध के वजह अंग्रेज़ हुकूमत नें जर्मनी से नील का आयात बंद कर दिया था। इस वजह से नील की माँग फिर बढ़ने लगी और चम्पारण नील की खेती के लिहाज से फिर से प्रासांगिक होने लगा। सरकार और जमीनदारों ने नील उत्पाद क्षेत्रफल विस्तृत करना आरंभ कर दिया। इसके अलावा शाषन व्यवस्था और ज़मींदारों ने एक 'तीन कठिआ' सिस्टम लगा रखा था, जिसमें एक बीघे में तीन कट्ठे नील की खेती आरक्षित होते थे। एक चम्पारणी बीघा[2] के अंदर 20 कट्ठे होते थे। फलस्वरूप इसका नाम 'तीन कठिआ' पड़ा। 1967 के पहले इन ज़मीनों पर पाँच कट्ठे आरक्षित होते थे नील खेती के लिए। फैक्ट्रियों में फसल देने के दौरान भी खेतिहरों पर अनेक तरह के कर लगते थे, जिसमें बपाही-पुताही, मरवच और सगौरा प्रमुख थे। इन सब करों के बावजूद फैक्ट्रियाँ फसलों का गलत मूल्यांकन करती थीं और किसानों को फसल अदायगी कभी समय पर नहीं होता था।इन परिस्तिथियों में भी नील कंपनियों के बहीखातों को सुधारने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत नें नए करों को लगाने और पुराने करों को बढ़ाने की इज़ाज़त दे दी। उस वक़्त ये कम्पनियाँ किसानों से जबरन वसूली के लिए 'खलीफ़ा'[3] रखा करती थीं। सन 1914 के दौरान खलीफ़ाओं के साथ-साथ अकाल भी किसानों के दरवाजे पर दस्तक देने लगे थे।
1914 में पिपरा में नील की खेती करने वालों किसानों ने अनुबंधित मज़दूरों के साथ मिलकर इस नाइंसाफी का विरोध किया। यह अहिंसा पर आधारित एक असहयोग था। खलीफ़ाओं के छिटपुट दमन पर भी उनका असहयोग हिंसा से दूर रहा। पेट की आग ने आनन-फानन में इस असहाय असहयोग आंदोलन को निबटा ज़रूर दिया, पर किसानों-मज़दूरों को एक रास्ता दिख चुका था। सन 1916 में पुनः तुरकौलिया में एक अहिंसक असहयोग आंदोलन आरंभ हुआ। यह आंदोलन एक बड़े पैमाने पर था और कुछ लंबा भी खिंचा। स्व-निर्वाह के कारण इसका टूटना भी लाजिमी था और वही हुआ। इतना अवश्य था कि दोनों आंदोलन के दौरान किसानों, मज़दूरों पर दमन होने के बावजूद हिंसा नहीं हुई। शायद इतिहास ने कभी इन करुणामय मगर अद्वितीय परस्थितियों को महातम की निगाह से नहीं देखा, लेकिन यह एक बड़ी घटना थी जो महात्मा गाँधी के अहिंसा के विचारों से पंक्तिबद्ध थी और शायद इसी ने महात्मा गाँधी को चंपारण आने के लिए प्रेरित भी किया।[1]
दिसंबर, 1916 में लखनऊ में आयोजित 31वें कांग्रेस अधिवेशन में राजकुमार शुक्ल कई कांग्रेसी नेताओं से मिले। उन्होंने सभी बड़े नेताओं को चम्पारण के नील किसानों-मज़दूरों की बदहाली और नील कंपनियों की दलाली के बारे में अवगत कराया ताकि यह मुद्दा कॉन्स्टीटूएंट असेंबली में उठे। उन्होंने गाँधीजी को भी इस मसले पर विस्तार से बताया। पूरी तन्मयता से सुनने के बाद भी महात्मा गाँधी ने विशेष रुचि नहीं दिखायी। बिहार में कांग्रेस की तुलनात्मक पकड़ और फिर चंपारण जैसे पिछड़े इलाके में सविनय आंदोलन की पृष्ठभूमि महात्मा गाँधी के विशिष्ट मानसिक पटल पर शायद जगह नहीं बना पा रही थी। राजकुमार शुक्ल स्वयं एक जमींदार थे और उनके मुख से किसानों, मज़दूरों की बदहाली के विवरण ने गाँधीजी को प्रभावित किया था। अंततः जब शुक्ल जी ने पिपरा और तुरकौलिया में किसानों, मज़दूरों द्वारा किये गए अहिंसक असहयोग के बारे में बताया तो महात्मा गाँधी तुरंत राजी हो गए चम्पारण चलने के लिए। शायद अहिंसक असहयोग के उदाहरण के प्रस्तुति का वह अद्भुत संयोग था कि जिसकी परिकल्पना महात्मा गाँधी अपने ज़हन में कर रहे थे।
सन 1917 के आरम्भ में गाँधीजी कलकत्ता (कोलकाता) गए, पर संवाद के आभाव में उनका राजकुमार शुक्ल जी से संपर्क नहीं हो पाया। राजकुमार शुक्ल ने प्रयास ज़ारी रखा। अप्रैल में महात्मा गाँधी फिर कलकत्ता आए और 10 अप्रैल को चम्पारण के ज़िला मुख्यालय मोतीहारी पहुँचे। उनके आवभगत के लिए आचार्य कृपलानी[4], महादेव देसाई, दीन बंधु सी. एफ. एंड्रयू, एच. एस. पोलॉक, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, बृजकिशोर प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, रामश्री देव त्रिवेदी, धरणीधर प्रसाद तथा बिहार के अन्य गणमान्य व्यक्ति भी मौजूद थे। महात्मा गाँधी के चंपारण आने के बाद एक नए इतिहास की कायावत का लेखा तैयार होने लगी।[1]
|
|
|
|
|