सुहासिनी गांगुली: Difference between revisions

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'''सुहासिनी गांगुली''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Suhasini Ganguly'', जन्म- [[3 फ़रवरी]], [[1909]]; मृत्यु- [[23 मार्च]], [[1965]]) भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थीं। भारतवर्ष की आज़ादी उनके जीवन का सबसे बड़ा सपना था, जिसको पूरा करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। उनके इस त्यागमय जीवन और साहसिक कार्य को सम्मान देने के लिए [[कोलकाता]] की एक सड़क का नाम 'सुहासिनी गांगुली सरनी' रखा गया है। रचना भोला यामिनी ने अपनी पुस्तक 'स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी महिलाएँ' में उनके जीवन चरित्र का वर्णन किया है।
'''सुहासिनी गांगुली''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Suhasini Ganguly'', जन्म- [[3 फ़रवरी]], [[1909]]; मृत्यु- [[23 मार्च]], [[1965]]) भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थीं। भारतवर्ष की आज़ादी उनके जीवन का सबसे बड़ा सपना था, जिसको पूरा करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। उनके इस त्यागमय जीवन और साहसिक कार्य को सम्मान देने के लिए [[कोलकाता]] की एक सड़क का नाम 'सुहासिनी गांगुली सरनी' रखा गया है। रचना भोला यामिनी ने अपनी पुस्तक 'स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी महिलाएँ' में उनके जीवन चरित्र का वर्णन किया है।
==परिचय==
==परिचय==
सुहासिनी गांगुली का जन्म 3 फ़रवरी सन 1909 में खुलना, बंगाल में हुआ था। उनका पैत्रिक घर ढाका, ज़िला विक्रमपुर के बाघिया नामक [[गाँव]] में था। [[पिता]] अविनाश चन्द्र गांगुली और माता सरलासुन्दरी देवी की बेटी सुहासिनी [[1924]] में ढाका ईडन हाईस्कूल से मैट्रिक पास करके ईडन कालेज से स्नातक बनीं। एक तैराकी स्कूल में वे कल्याणी दास और कमला दासगुप्ता के सम्पर्क में आईं और क्रांतिकारी दल का साथ देने के लिए प्रशिक्षण लेने लगीं। [[1929]] में विप्लवी दल के नेता रसिक लाल दास से परिचय होने के बाद तो वह पूरी तरह से दल में सक्रिय हो गईं। हेमन्त तरफदार ने भी उन्हें इस ओर प्रोत्साहित किया।
सुहासिनी गांगुली का जन्म 3 फ़रवरी सन 1909 में खुलना, बंगाल में हुआ था। उनका पैत्रिक घर ढाका, ज़िला विक्रमपुर के बाघिया नामक [[गाँव]] में था। [[पिता]] अविनाश चन्द्र गांगुली और [[माता]] सरलासुन्दरी देवी की बेटी सुहासिनी [[1924]] में ढाका ईडन हाईस्कूल से मैट्रिक पास करके ईडन कालेज से स्नातक बनीं। एक तैराकी स्कूल में वे कल्याणी दास और कमला दासगुप्ता के सम्पर्क में आईं और क्रांतिकारी दल का साथ देने के लिए प्रशिक्षण लेने लगीं। [[1929]] में विप्लवी दल के नेता रसिक लाल दास से परिचय होने के बाद तो वह पूरी तरह से दल में सक्रिय हो गईं। हेमन्त तरफदार ने भी उन्हें इस ओर प्रोत्साहित किया।
==अध्यापन कार्य==
==अध्यापन कार्य==
सन [[1930]] के 'चटगांव शस्त्रागार कांड' के बाद बहुत से क्रांतिकारी ब्रिटिश पुलिस की धर-पकड़ से बचने के लिए चन्द्रनगर चले गये थे। सुहासिनी गांगुली इन क्रांतिकारियों को सुरक्षा देने के लिए [[कलकत्ता]] से चंद्रनगर पहुँचीं। इसके पहले वह कलकत्ता में गूंगे-बहरे बच्चों के एक स्कूल में कार्य कर रहीं थीं। चन्द्रनगर पहुँचकर उन्होंने वहीं के एक स्कूल में अध्यापन-कार्य ले लिया। शाम से सुबह तक वह क्रांतिकारियों की सहायक उनकी प्रिय सुहासिनी दीदी थीं। दिन भर एक समान्य अध्यापिका के रूप में काम पर जाती थीं और घर में शशिधर आचार्य की छद्म पत्नी बनकर रहती थीं ताकि किसी को संदेह न हो और यह घर एक सामान्य गृहस्थ का घर लगे और वह क्रांतिकारियों को सुरक्षा भी दे सकें। [[गणेश घोष]], लोकनाथ बल, जीवन घोषाल, हेमन्त तरफदार आदि क्रांतिकारी बारी-बारी से यहीं आकर ठहरते थे।
सन [[1930]] के 'चटगांव शस्त्रागार कांड' के बाद बहुत से क्रांतिकारी ब्रिटिश पुलिस की धर-पकड़ से बचने के लिए चन्द्रनगर चले गये थे। सुहासिनी गांगुली इन क्रांतिकारियों को सुरक्षा देने के लिए [[कलकत्ता]] से चंद्रनगर पहुँचीं। इसके पहले वह कलकत्ता में गूंगे-बहरे बच्चों के एक स्कूल में कार्य कर रहीं थीं। चन्द्रनगर पहुँचकर उन्होंने वहीं के एक स्कूल में अध्यापन-कार्य ले लिया। शाम से सुबह तक वह क्रांतिकारियों की सहायक उनकी प्रिय सुहासिनी दीदी थीं। दिन भर एक समान्य अध्यापिका के रूप में काम पर जाती थीं और घर में शशिधर आचार्य की छद्म पत्नी बनकर रहती थीं ताकि किसी को संदेह न हो और यह घर एक सामान्य गृहस्थ का घर लगे और वह क्रांतिकारियों को सुरक्षा भी दे सकें। [[गणेश घोष]], लोकनाथ बल, जीवन घोषाल, हेमन्त तरफदार आदि क्रांतिकारी बारी-बारी से यहीं आकर ठहरते थे।
==गिरफ़्तारी==
==‘छात्री संघा’ संगठन==
यह सब करने पर भी ब्रिटिश अधिकारियों को सुहासिनी गांगुली पर संदेह हो गया। उस घर पर चौबीसों घंटे निगाह रखी जाने लगी। फिर [[1 सितम्बर]], 1930 को उस मकान पर घेरा डाल दिया गया। आमने-सामने की मुठभेड़ में जीवन घोषाल गोली से मारे गए। अनन्त सिंह पहले ही पुलिस को आत्म समर्पण कर चुके थे। शेष साथी और सुहासिनी गांगुली अपने तथाकथित पति शशिधर आचार्य के साथ गिरफ्तार हो गईं। उन्हें हिजली जेल भेज दिया गया, जहाँ इन्दुमति सिंह भी थीं। आठ साल की लम्बी अवधि के बाद वे [[1938]] में रिहा की गईं।
अपनी नौकरी के दौरान सुहासिनी गांगुली उन लड़कियों के संपर्क में आईं, जो दिन भर जान हथेली पर लेकर [[अंग्रेज़]] हुकूमत को धूल चटाने के ख्वाब दिल में लिए घूमती थीं। जिनमें से एक थीं- [[कमलादास गुप्ता]], एक हॉस्टल की वॉर्डन। उनके हॉस्टल में बम, गोली क्या नहीं बनता था। लड़कियों के हाथों में सारे हथियारों की कमान होती थी और इंचार्ज होती थीं कमलादास गुप्ता। दूसरी थीं [[प्रीतिलता वादेदार]]। प्रीति [[सूर्य सेन|मास्टर सूर्य सेन]] के क्रांतिकारी गुट की वो वीरांगना थीं, जिनको एक यूरोपीय क्लब पर ये लिखा अखर गया था कि ‘इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट एलाउड’। कई क्रांतिकारियों के साथ उस क्लब पर हमला बोल दिया। अपनी जान गंवा दी, लेकिन गोलियों की बौछार कर दी। आखिरकार वो क्लब बंद ही हो गया। एक और थीं [[बीना दास]], जिसने दीक्षांत समारोह में बंगाल के गर्वनर जैक्सन पर एक-एक करके भरे हॉल में पांच गोलियां दाग दीं। दिलचस्प बात थी कि बीना दास को भी वह पिस्तौल कमलादास गुप्ता ने ही दी थी। ये सारी लड़कियां ‘छात्री संघा’ नाम का संगठन चलाती थीं।<ref name="zz">{{cite web |url= https://zeenews.india.com/hindi/india/biography-of-freedom-fighter-suhasini-ganguli-unsung-hero-of-indian-independence/840717|title=क्रांतिकारियों की ‘दीदी’ सुहासिनी की हैरतअंगेज कहानी|accessmonthday=23 मार्च|accessyear=2022 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= zeenews.india.com|language=हिंदी}}</ref>
==स्वतंत्रता संग्राम में योगदान==
==सभी का साथ==
सन [[1942]] के आन्दोलन में उन्होंने फिर से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया फिर जेल गईं और [[1945]] में छूटीं। हेमन्त तरफदार तब [[धनबाद]] के एक आश्रम में संन्यासी भेष में रह रहे थे। रिहाई के बाद सुहासिनी गांगुली भी उसी आश्रम में पहुँच गईं और आश्रम की ममतामयी सुहासिनी दीदी बनकर वहीं रहने लगीं। बाकी का अपना जीवन उन्होंने इसी आश्रम में बिताया।
जिस तरह [[फ्रांस]] और [[इंग्लैंड]] में दोस्ती के बाद [[पेरिस]] के भारतीय क्रांतिकारियों को मुश्किल हो गई थी, [[भीखाजी कामा|मैडम कामा]] और [[श्यामजी कृष्ण वर्मा]] को पेरिस छोड़ना पड़ गया था। उसी तरह चंद्रनगर में भी [[बंगाल]] के क्रांतिकारियों के लिए मुश्किल हो गई। फ्रांसीसी आधिपत्य वाले चंद्रनगर में सुहासिनी गांगुली भी चली गईं और क्रांतिकारी शशिधर आचार्य की छदम धर्मपत्नी के तौर पर रहने लगीं। वहां उन्हें स्कूल में जॉब भी मिल गईं। सभी क्रांतिकारियों के बीच वो सुहासिनी दीदी के तौर पर जानी जाती थीं। हर वक्त हर एक की हर समस्या के समाधान के साथ उपलब्ध रहने वाली दीदी। बिलकुल [[भगत सिंह]], [[सुखदेव]], [[राजगुरु]] की [[दुर्गा भाभी]] की तरह। क्रांतिकारियों के नेटवर्क व संगठन को परदे के पीछे चलाने में उनका बड़ा हाथ रहता था। उन पर कोई आसानी से शक भी नहीं करता था।
==क्रांतिकारियों का ठिकाना==
सुहासिनी गांगुली का घर क्रांतिकारियों के लिए उसी तरह से पनाह का ठिकाना बन गया था, जैसे भीखाजी कामा का घर कभी [[वीर सावरकर]] के लिए था। हेमंत तरफदार, गणेश घोष, जीवन घोषाल, लोकनाथ बल जैसे तमाम क्रांतिकारियों को समय-समय पर पुलिस से बचने के लिए उनकी शरण लेनी पड़ी; लेकिन इंगलैंड, फ्रांस की दोस्ती ने उनके लिए भी मुश्किलें पैदा कर दीं। अंग्रेजी पुलिस अब चंद्रनगर की गलियों में भी अपना जाल बिछाने लगी और उनके निशाने पर आ गईं सुहासिनी गांगुली भी। एक दिन पुलिस ने छापा मारा, आमने सामने की लड़ाई में जीवन घोषाल मारे गए। शशिधर आचार्य और सुहासिनी को गिरफ्तार कर लिया गया और [[1938]] तक कई साल उन्हें हिजली डिटेंशन कैम्प में रखा गया। दिलचस्प बात है कि आज इस कैम्प की जगह पर खड़गपुर आईआईटी का कैम्पस है।
==कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव==
जुगांतर पार्टी के कुछ सदस्य [[कांग्रेस]] में, कुछ कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए और बाकियों ने अपनी अलग अलग राह पकड़ीं। सुहासिनी को भी कम्युनिस्ट पार्टी में किसी ने जोड़ दिया, लेकिन जब [[1942]] के [[भारत छोड़ो आंदोलन]] में कम्युनिस्ट पार्टी ने हिस्सा नहीं लिया तो वो पूरी तरह सहमत नहीं थीं और आंदोलन में सक्रिय हेमंत तरफदार की सहायता करती रहीं और खुद भी चुपके से आंदोलन में सक्रिय रहीं। हेमंत को शरण भी दी। इसी आरोप में उनको भी गिरफ्तार करके [[1942]] में जेल भेज दिया गया। [[1945]] में बाहर आईं तो हेमंत तरफदार धनबाद में एक आश्रम में रह रहे थे, वो भी उसी आश्रम में जाकर रहने लगीं।<ref name="zz"/>
==आज़ादी पश्चात शेष जीवन==
हमेशा खादी पहनने वालीं सुहासिनी गांगुली आध्यात्मिक तबियत की थीं, देश को आजाद करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। उनके संपर्क में इतने क्रांतिकारी आए, जो उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित भी थे। एक की वो छदम पत्नी तक बनकर रहीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपने [[परिवार]], अपनी जिंदगी के बारे में नहीं सोचा, यहां तक कि देश की आजादी के बाद भी नहीं। कैमरे से भी वो काफी दूर रहती थीं। उनकी एकमात्र तस्वीर मिलती है, जो शायद किसी ने उस वक्त चुपचाप खींची होगी, जब वो आश्रम में ताड़ के वृक्षों के बीच ध्यान मुद्रा में तल्लीन थीं। आंखें बंद थीं। आजादी के बाद उन्होंने अपना सारी जीवन सामाजिक, आध्यात्मिक कामों में ही लगा दिया। उन्हें प़ॉलिटिक्स रास भी नहीं आई थी।
==मृत्यु==
[[मार्च]] [[1965]] में एक दिन जब सुहासिनी गांगुली कहीं जा रही थीं, रास्ते में उनका एक्सीडेंट हो गया। उनके इलाज में लापरवाही बरती गई। वह बैक्टीरियल इन्फेक्शन का शिकार हो गईं और [[23 मार्च]], [[1965]] को स्वर्ग सिधार गईं। उसी दिन जिस दिन [[भगत सिंह]], [[सुखदेव]] और [[राजगुरु]] को फांसी पर लटकाया गया था। इसलिए आमतौर पर उस दिन सुहासिनी गांगुली को नजरअंदाज कर दिया जाता है।<ref name="zz"/>


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Latest revision as of 10:51, 23 March 2022


सुहासिनी गांगुली
पूरा नाम सुहासिनी गांगुली
अन्य नाम सुहासिनी दीदी
जन्म 3 फ़रवरी, 1909
जन्म भूमि खुलना, बंगाल
मृत्यु 23 मार्च, 1965
अभिभावक पिता- अविनाश चन्द्र गांगुली, माता- सरलासुन्दरी देवी
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी
जेल यात्रा हिजली जेल में 1930 से 1938 तक रहीं।
अन्य जानकारी सन 1942 के आन्दोलन में भी सुहासिनी गांगुली ने भाग लिया और फिर जेल गईं। इसके बाद 1945 में छूटीं।

सुहासिनी गांगुली (अंग्रेज़ी: Suhasini Ganguly, जन्म- 3 फ़रवरी, 1909; मृत्यु- 23 मार्च, 1965) भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थीं। भारतवर्ष की आज़ादी उनके जीवन का सबसे बड़ा सपना था, जिसको पूरा करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। उनके इस त्यागमय जीवन और साहसिक कार्य को सम्मान देने के लिए कोलकाता की एक सड़क का नाम 'सुहासिनी गांगुली सरनी' रखा गया है। रचना भोला यामिनी ने अपनी पुस्तक 'स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी महिलाएँ' में उनके जीवन चरित्र का वर्णन किया है।

परिचय

सुहासिनी गांगुली का जन्म 3 फ़रवरी सन 1909 में खुलना, बंगाल में हुआ था। उनका पैत्रिक घर ढाका, ज़िला विक्रमपुर के बाघिया नामक गाँव में था। पिता अविनाश चन्द्र गांगुली और माता सरलासुन्दरी देवी की बेटी सुहासिनी 1924 में ढाका ईडन हाईस्कूल से मैट्रिक पास करके ईडन कालेज से स्नातक बनीं। एक तैराकी स्कूल में वे कल्याणी दास और कमला दासगुप्ता के सम्पर्क में आईं और क्रांतिकारी दल का साथ देने के लिए प्रशिक्षण लेने लगीं। 1929 में विप्लवी दल के नेता रसिक लाल दास से परिचय होने के बाद तो वह पूरी तरह से दल में सक्रिय हो गईं। हेमन्त तरफदार ने भी उन्हें इस ओर प्रोत्साहित किया।

अध्यापन कार्य

सन 1930 के 'चटगांव शस्त्रागार कांड' के बाद बहुत से क्रांतिकारी ब्रिटिश पुलिस की धर-पकड़ से बचने के लिए चन्द्रनगर चले गये थे। सुहासिनी गांगुली इन क्रांतिकारियों को सुरक्षा देने के लिए कलकत्ता से चंद्रनगर पहुँचीं। इसके पहले वह कलकत्ता में गूंगे-बहरे बच्चों के एक स्कूल में कार्य कर रहीं थीं। चन्द्रनगर पहुँचकर उन्होंने वहीं के एक स्कूल में अध्यापन-कार्य ले लिया। शाम से सुबह तक वह क्रांतिकारियों की सहायक उनकी प्रिय सुहासिनी दीदी थीं। दिन भर एक समान्य अध्यापिका के रूप में काम पर जाती थीं और घर में शशिधर आचार्य की छद्म पत्नी बनकर रहती थीं ताकि किसी को संदेह न हो और यह घर एक सामान्य गृहस्थ का घर लगे और वह क्रांतिकारियों को सुरक्षा भी दे सकें। गणेश घोष, लोकनाथ बल, जीवन घोषाल, हेमन्त तरफदार आदि क्रांतिकारी बारी-बारी से यहीं आकर ठहरते थे।

‘छात्री संघा’ संगठन

अपनी नौकरी के दौरान सुहासिनी गांगुली उन लड़कियों के संपर्क में आईं, जो दिन भर जान हथेली पर लेकर अंग्रेज़ हुकूमत को धूल चटाने के ख्वाब दिल में लिए घूमती थीं। जिनमें से एक थीं- कमलादास गुप्ता, एक हॉस्टल की वॉर्डन। उनके हॉस्टल में बम, गोली क्या नहीं बनता था। लड़कियों के हाथों में सारे हथियारों की कमान होती थी और इंचार्ज होती थीं कमलादास गुप्ता। दूसरी थीं प्रीतिलता वादेदार। प्रीति मास्टर सूर्य सेन के क्रांतिकारी गुट की वो वीरांगना थीं, जिनको एक यूरोपीय क्लब पर ये लिखा अखर गया था कि ‘इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट एलाउड’। कई क्रांतिकारियों के साथ उस क्लब पर हमला बोल दिया। अपनी जान गंवा दी, लेकिन गोलियों की बौछार कर दी। आखिरकार वो क्लब बंद ही हो गया। एक और थीं बीना दास, जिसने दीक्षांत समारोह में बंगाल के गर्वनर जैक्सन पर एक-एक करके भरे हॉल में पांच गोलियां दाग दीं। दिलचस्प बात थी कि बीना दास को भी वह पिस्तौल कमलादास गुप्ता ने ही दी थी। ये सारी लड़कियां ‘छात्री संघा’ नाम का संगठन चलाती थीं।[1]

सभी का साथ

जिस तरह फ्रांस और इंग्लैंड में दोस्ती के बाद पेरिस के भारतीय क्रांतिकारियों को मुश्किल हो गई थी, मैडम कामा और श्यामजी कृष्ण वर्मा को पेरिस छोड़ना पड़ गया था। उसी तरह चंद्रनगर में भी बंगाल के क्रांतिकारियों के लिए मुश्किल हो गई। फ्रांसीसी आधिपत्य वाले चंद्रनगर में सुहासिनी गांगुली भी चली गईं और क्रांतिकारी शशिधर आचार्य की छदम धर्मपत्नी के तौर पर रहने लगीं। वहां उन्हें स्कूल में जॉब भी मिल गईं। सभी क्रांतिकारियों के बीच वो सुहासिनी दीदी के तौर पर जानी जाती थीं। हर वक्त हर एक की हर समस्या के समाधान के साथ उपलब्ध रहने वाली दीदी। बिलकुल भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की दुर्गा भाभी की तरह। क्रांतिकारियों के नेटवर्क व संगठन को परदे के पीछे चलाने में उनका बड़ा हाथ रहता था। उन पर कोई आसानी से शक भी नहीं करता था।

क्रांतिकारियों का ठिकाना

सुहासिनी गांगुली का घर क्रांतिकारियों के लिए उसी तरह से पनाह का ठिकाना बन गया था, जैसे भीखाजी कामा का घर कभी वीर सावरकर के लिए था। हेमंत तरफदार, गणेश घोष, जीवन घोषाल, लोकनाथ बल जैसे तमाम क्रांतिकारियों को समय-समय पर पुलिस से बचने के लिए उनकी शरण लेनी पड़ी; लेकिन इंगलैंड, फ्रांस की दोस्ती ने उनके लिए भी मुश्किलें पैदा कर दीं। अंग्रेजी पुलिस अब चंद्रनगर की गलियों में भी अपना जाल बिछाने लगी और उनके निशाने पर आ गईं सुहासिनी गांगुली भी। एक दिन पुलिस ने छापा मारा, आमने सामने की लड़ाई में जीवन घोषाल मारे गए। शशिधर आचार्य और सुहासिनी को गिरफ्तार कर लिया गया और 1938 तक कई साल उन्हें हिजली डिटेंशन कैम्प में रखा गया। दिलचस्प बात है कि आज इस कैम्प की जगह पर खड़गपुर आईआईटी का कैम्पस है।

कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव

जुगांतर पार्टी के कुछ सदस्य कांग्रेस में, कुछ कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए और बाकियों ने अपनी अलग अलग राह पकड़ीं। सुहासिनी को भी कम्युनिस्ट पार्टी में किसी ने जोड़ दिया, लेकिन जब 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी ने हिस्सा नहीं लिया तो वो पूरी तरह सहमत नहीं थीं और आंदोलन में सक्रिय हेमंत तरफदार की सहायता करती रहीं और खुद भी चुपके से आंदोलन में सक्रिय रहीं। हेमंत को शरण भी दी। इसी आरोप में उनको भी गिरफ्तार करके 1942 में जेल भेज दिया गया। 1945 में बाहर आईं तो हेमंत तरफदार धनबाद में एक आश्रम में रह रहे थे, वो भी उसी आश्रम में जाकर रहने लगीं।[1]

आज़ादी पश्चात शेष जीवन

हमेशा खादी पहनने वालीं सुहासिनी गांगुली आध्यात्मिक तबियत की थीं, देश को आजाद करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। उनके संपर्क में इतने क्रांतिकारी आए, जो उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित भी थे। एक की वो छदम पत्नी तक बनकर रहीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपने परिवार, अपनी जिंदगी के बारे में नहीं सोचा, यहां तक कि देश की आजादी के बाद भी नहीं। कैमरे से भी वो काफी दूर रहती थीं। उनकी एकमात्र तस्वीर मिलती है, जो शायद किसी ने उस वक्त चुपचाप खींची होगी, जब वो आश्रम में ताड़ के वृक्षों के बीच ध्यान मुद्रा में तल्लीन थीं। आंखें बंद थीं। आजादी के बाद उन्होंने अपना सारी जीवन सामाजिक, आध्यात्मिक कामों में ही लगा दिया। उन्हें प़ॉलिटिक्स रास भी नहीं आई थी।

मृत्यु

मार्च 1965 में एक दिन जब सुहासिनी गांगुली कहीं जा रही थीं, रास्ते में उनका एक्सीडेंट हो गया। उनके इलाज में लापरवाही बरती गई। वह बैक्टीरियल इन्फेक्शन का शिकार हो गईं और 23 मार्च, 1965 को स्वर्ग सिधार गईं। उसी दिन जिस दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटकाया गया था। इसलिए आमतौर पर उस दिन सुहासिनी गांगुली को नजरअंदाज कर दिया जाता है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 क्रांतिकारियों की ‘दीदी’ सुहासिनी की हैरतअंगेज कहानी (हिंदी) zeenews.india.com। अभिगमन तिथि: 23 मार्च, 2022।

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  1. REDIRECTसाँचा:स्वतन्त्रता सेनानी