विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय: Difference between revisions

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8वीं शताब्दी में पाल वंश के शासक धर्मपाल द्वारा बिहार प्रान्त के भागलपुर में विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। पूर्व मध्यकालीन भारतीय इतिहास में इस विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी। विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय नालन्‍दा के समकक्ष माना जाता था। इसका निर्माण पाल वंश के शासक धर्मपाल (770-810 ईसा पूर्व) ने करवाया था। मध्यकालीन भारतीय इतिहास में इस विश्वविद्यालय का महत्त्वपूर्ण स्थान था। यहां पर बौद्ध धर्म एवं दर्शन के अतिरिक्त न्याय, तत्व ज्ञान एवं व्याकरण का भी अध्ययन कराया जाता था|

प्रसिद्ध विद्धान

इस विश्वविद्यालय से सम्बद्ध विद्धानों में 'रक्षित', 'विरोचन', 'ज्ञानपद', बुद्ध, 'जेतारि', 'रत्नाकर', 'शान्ति', 'ज्ञानश्री', 'मित्र', 'रत्न', 'ब्रज' एवं 'अभयंकर' के नाम प्रसिद्ध है। इनकी रचनायें बौद्ध साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इस विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रतिभाशाली भिक्षु 'दीपंकर' ने लगभग 200 ग्रंथों की रचना की। इस शिक्षा केन्द्र में लगभग 3,000 अध्यापक कार्यरत थे। छात्रों के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। यहां पर विदेशों से भी छात्र अध्ययन हेतु आते थे। सम्भवतः तिब्बत के छात्रों की संख्या सर्वाधिक थी।

1203 ई. में बख़्तियार ख़िलजी के आक्रमण के परिणामस्वरूप यह विश्वविद्यालय नष्ट हो गया। इस सन्दर्भ में 'तबकाते नासिरी' से जानकारी मिलती है। सम्भवतः इस विश्वविद्यालय को दुर्ग समझ कर नष्ट कर दिया गया। विक्रमशिला के अतिरिक्त पाल नरेश (रामपाल) के समय (11वीं-5वीं सदी में) 'ओदन्तपुरी' एवं 'जगदल्ल' में भी शिक्षा केन्द्र स्थापित किये गये थे। जगदल्ल विश्वविद्यालय तंत्रयान शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था।

विषय

इतिहासकार पंचानन मिश्र का कहना है कि नालन्दा विश्‍वविद्यालय में एक द्वार का पता चला है जबकि विक्रमशिला में छह द्वार थे। द्वार की संख्या छह होने का तात्पर्य है कि यहाँ पर छह विषयों की पढ़ाई होती थी जिनमें केवल तंत्र विद्या ही नहीं बल्कि फीजिक्स, केमिस्ट्री, क्रिएटिव रिलीजन, कल्चर आदि शामिल थे। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में लगभग दस हजार विद्यार्थियों की पढ़ाई होती थी और उनके लिए क़रीब एक सौ आचार्य पढ़ाने का काम करते थे। गौतम बुद्ध स्वयं यहाँ आए थे और यही से गंगा नदी पार कर सहरसा की ओर गए थे।

बौद्ध धर्म का प्रचार

दसवीं शताब्दी ई. में तिब्बत के लेखक तारानाथ के वर्णन के अनुसार प्रत्येक द्वार के पण्डित थे। पूर्वी द्वार के द्वार पण्डित रत्नाकर शान्ति, पश्चिमी द्वार के वर्गाश्वर कीर्ति, उत्तरी द्वार के नारोपन्त, दक्षिणी द्वार के प्रज्ञाकरमित्रा थे। आचार्य दीपक विक्रमशील विश्वविद्यालय के सर्वाधिक प्रसिद्ध आचार्य हुये हैं। विश्वविद्यालयों के छात्रों की संख्या का सही अनुमान प्राप्त नहीं हो पाया है। 12वीं शताब्दी में यहाँ 3000 छात्रों के होने का विवरण प्राप्त होता है। लेकिन यहाँ के सभागार के जो खण्डहर मिले हैं उनसे पता चलता है कि सभागार में 8000 व्यक्तियों को बिठाने की व्यवस्था थी। विदेशी छात्रों में तिब्वती छात्रों की संख्या अधिक थी। एक छात्रावास तो केवल तिब्बती छात्रों के लिए ही था।

यहाँ से तिब्बत के राजा के अनुरोध पर दिपांकर अतीश तिब्बत गए और उन्होंने तिब्बत से बौद्ध भिक्षुओं को चीन, जापान, मलेशिया, थाइलैंड से लेकर अफ़ग़ानिस्तान तक भेजकर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया। विक्रमशिला विश्वविद्यालय में विद्याध्ययन के लिए आने वाले तिब्बत के विद्वानों के लिए अलग से एक अतिथिशाला थी। विक्रमशिला से अनेक विद्वान तिब्बत गए थे तथा वहाँ उन्होंने कई ग्रन्थों का तिब्बती भाषा में अनुवाद किया। विक्रमशिला के बारे में सबसे पहले राहुल सांस्कृत्यायन ने सुल्तानगंज के क़रीब होने का अंदेशा प्रकट किया था। उसका मुख्य कारण था कि अंग्रेजों के जमाने में सुल्तानगंज के निकट एक गांव में बुद्ध की प्रतिमा मिली थी। बावजूद उसके अंग्रेजों ने विक्रमशिला के बारे में पता लगाने का प्रयास नहीं किया। इसके चलते विक्रमशिला की खुदाई पुरातत्त्व विभाग द्वारा 1986 के आसपास शुरू हुआ।[1] इस विश्वविद्यालय के अनेकानेक विद्वानों ने विभिन्न ग्रंथों की रचना की, जिनका बौद्ध साहित्य और इतिहास में नाम है। इन विद्वानों में कुछ प्रसिद्ध नाम हैं- रक्षित, विरोचन, ज्ञानपाद, बुद्ध, जेतारि रत्नाकर शान्ति, ज्ञानश्री मिश्र, रत्नवज्र और अभयंकर। दीपंकर नामक विद्वान ने लगभग 200 ग्रंथों की रचना की थी। वह इस शिक्षाकेन्द्र के महान प्रतिभाशाली विद्वानों में से एक थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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