मधुसूदन सरस्वती: Difference between revisions

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Revision as of 08:50, 22 June 2011

मधुसूदन सरस्वती अद्वैत सम्प्रदाय के प्रधान आचार्य और ग्रन्थ लेखक थे। इनके गुरु का नाम विश्वेश्वर सरस्वती था। मधुसूदन सरस्वती का जन्म स्थान बंगदेश था। ये फ़रीदपुर ज़िले के कोटलिपाड़ा ग्राम के निवासी थे। विद्याध्ययन के अनन्तर ये काशी में आये और यहाँ के प्रमुख पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। इस प्रकार विद्वन्मण्डली में सर्वत्र इनकी कीर्तिकौमुदी फैलने लगी। इसी समय इनका परिचय विश्वेश्वर सरस्वती से हुआ और उन्हीं की प्रेरणा से ये दण्डी संन्यासी हो गए।

मत का खण्डन

मधुसूदन सरस्वती मुग़ल सम्राट शाहजहाँ के समकालीन थे। कहते हैं कि इन्होंने माध्व पंडित रामराज स्वामी के ग्रन्थ न्यायामृत का खण्डन किया था। इससे चिढ़कर उन्होंने अपने शिष्य व्यास रामाचार्य को मधुसूदन सरस्वती के पास वेदान्तशास्त्र का अध्ययन करने के लिए भेजा। व्यास रामाचार्य ने विद्या प्राप्त कर फिर मधुसूदन स्वामी के ही मत का खण्डन करने के लिए तरगिणी नामक ग्रन्थ की रचना की। इससे ब्रह्मानन्द सरस्वती आदि ने असंतुष्ट होकर तरंगिणी का खण्डन करने के लिए 'लघुचन्द्रिका' नामक ग्रन्थ की रचना की।

योगी

मधुसूदन सरस्वती बड़े भारी योगी थे। वीरसिंह नामक एक राजा की सन्तान नहीं थी। उसने स्वप्न में देखा कि मधुसूदन नामक एक यति है, और उसकी सेवा से पुत्र अवश्य होगा। तदनुसार राजा ने मधुसूदन का पता लगाना आरम्भ किया। कहते हैं कि उस समय मधुसूदन जी एक नदी के किनारे भूमि के अन्दर समाधिस्थ थे। राजा खोजते-खोजते वहाँ पर पहुँचे। स्वप्न के रूप से मिलते-जुलते एक तेज़पूर्ण महात्मा समाधिस्थ दीख पड़े। राजा ने उन्हें पहचान लिया। वहाँ पर राजा ने एक मन्दिर बनवा दिया। कहा जाता है कि इस घटना के तीन वर्ष बाद मधुसूदन जी की समाधि टूटी। इससे उनकी योग सिद्धि का पता लगता है। किन्तु वे इतने विरक्त थे कि समाधि खुलने पर उस स्थान को और राजा प्रदत्त मन्दिर और योग को छोड़कर तीर्थाटन के लिए चल दिये। मधुसूदन के विद्यागुरु अद्वैतसिद्धि के अन्तिम उल्लेखानुसार माधव सरस्वती थे।

रचनाएँ

इनके रचे हुए निम्नलिखित ग्रन्थ बहुत ही प्रसिद्ध हैं-

सिद्धान्तबिन्दु

यह शंकराचार्य कृत दशश्लोकों की व्याख्या है। उस पर ब्रह्मानन्द सरस्वती ने रत्नावली नामक निबन्ध लिखा है।

संक्षेप शारीरक व्याख्या

यह सर्वज्ञात्ममुनि कृत 'संक्षेप शारीरक' की टीका है।

अद्वैतसिद्धि

यह अद्वैत सिद्धान्त का अति उच्च कोटि का ग्रन्थ है।

अद्वैतरत्न रक्षण

इस ग्रंथ में द्वैतवाद का खण्डन करते हुए अद्वैतवाद की स्थापना की गई है।

वेदान्तकल्पलतिका

यह भी वेदान्त ग्रन्थ ही है।

गूढ़ार्थदीपिका

यह श्रीमद्भागवदगीता की विस्तृत टीका है। इसे गीता की सर्वोत्तम व्याख्या कह सकते हैं।

प्रस्थानभेद

इसमें सब शास्त्रों का सामंजस्य करके उनका अद्वैत में तात्पर्य दिखलाया गया है। यह निबन्ध संक्षिप्त होने पर भी अदभुत प्रतिभा का द्योतक है।

महिम्नस्तोत्र की टीका

इसमें सुप्रसिद्ध महिम्नस्तोत्र के प्रत्येक श्लोक का शिव और विष्णु के पक्ष में व्याख्यार्थ किया गया है। इससे उनके असाधारण विद्या कौशल का पता लगता है।

भक्ति रसायन

यह भक्ति सम्बन्धी लक्षण ग्रन्थ है। अद्वैतवाद के प्रमुख स्तम्भ होते हुए भी वे उच्च कोटि के कृष्णभक्त थे, यह इस रचना से सिद्ध है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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