हरिदास ठाकुर: Difference between revisions
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हरिदास ठाकुर (जन्म- 1451 ई. या 1450 ई.) प्रसिद्ध वैष्णव संत थे। वे रूप गोस्वामी तथा सनातन गोस्वामी के अतिरिक्त चैतन्य महाप्रभु के प्रिय भक्तों में से एक थे। उन्होने 'हरे कृष्ण आन्दोलन' के आरम्भिक प्रसार में महती भूमिका अदा की।
परिचय
हरिदास ठाकुर का जन्म खुलना ज़िला, बंगलादेश के बूढ़न नामक ग्राम में संवत 1507 में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम सुमति तथा माता का गौरी था। ये छह महीने के थे, तभी पिता की मृत्यु हुई और माता सती हो गईं। मृत्यु के पहले बालक को पिता ने एक कुटुंबी को सौंप दिया था, जो कारणवश मुस्लिम हो गया था, किंतु उसने सच्चाई से इनकी धर्म रक्षा करते हुए पालन-पोषण किया और कुछ बड़े होते ही पिता का अंतिम संदेश सुनाकर इन्हें विदा कर दिया।
नामजप का व्रत
हरिदास ठाकुर ने नामजप का व्रत लिया और एकांत में समय व्यतीत करने लगे। इनकी ख्याति बढ़ी, जिससे एक दुष्ट धनी ने एक वेश्या को परीक्षार्थ इनके पास भेजा। किंतु फल उलटा हुआ। वह वेश्या स्वयं इनकी भक्त हो गई। ये यहाँ से अन्यत्र चले गए, पर वहाँ के नवाब ने एक यवन को हिन्दू धर्मानुसार आचरण करते सुनकर पकड़ मँगवाया और बेंत मारते-मारते प्राण लेने का दंड दिया। हरिदास समाधि में रत थे, अत: बच गए। इस पर नवाब ने क्षमा याचना की। यहाँ से ये फुलिया जाकर कुछ दिन रहे और फिर बलराम आचार्य के पास चाँदपुर गए। यहीं रघुनाथदास ने इनके सत्संग से लाभ उठाया था। यहाँ से यह अद्वैताचार्य के पास शांतिपुर गए और वहाँ से गौरांग के बुलाने पर नदिया पहुँचे। नित्यानंद के साथ ये 'हरि' नाम प्रचार में लग गए। यहाँ से ये जगदीशपुरी गए।
जगन्नाथ जी के दर्शन
हरिदास भक्तोचित दैन्य के कारण अपने को अस्पृश्य जान नीलाचल में जन-सम्पर्क से दूर एक निर्जन स्थान में रहकर नित्य तीन लाख नाम-जाप तथा साधना किया करते थे। दर्शन के लिए जगन्नाथजी के मन्दिर न जाकर वहीं से मन्दिर के चूणा के दर्शन कर जगन्नाथजी के दर्शन की अपनी पिपासा मिटा लिया करते थे। महाप्रभु के दर्शन करने उनकी कुटिया पर भी वे इसी भय से नहीं जाते थे कि कहीं उनके किसी भक्त को उनके अपवित्र देह का स्पर्श न हो जाय। महाप्रभु स्वयं उन्हें दर्शन देने या उनके दर्शन करने, नित्य उपलभोग के दर्शन कर मन्दिर से लौटते समय उनके पास जाया करते और उनके तथा अन्य अंतरंग भक्तों के साथ इष्ट-गोष्ठी किया करते।
रूप गोस्वामी से भेंट
रूप गोस्वामी भी बहुत दिन मुस्लिम बादशाह के दरबार में रह चुकने के कारण म्लेक्ष-स्पर्श दोष से अपने को दूषित मानते थे। इसलिए नीलाचल में उनके ठहरने का एकमात्र स्थान हरिदास की कुटी ही था। महाप्रभु की आज्ञा से जब रूप गोस्वामी नीलाचल पहुँचे तो हरिदास ने बाहु पसार कर प्रोमालिंगन द्वारा उनकी आन्तरिक अभ्यर्थना की और स्नेहभरे शब्दों में कहा-
" रूप, तुम्हारे आने की बात हमें सबको ज्ञात थी। तुम्हारे भाग्य की सीमा नहीं। महाप्रभु बड़े आग्रह से तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। बार-बार तुम्हारी ही चर्चा कर आत्म-विभोर हो जाते थे।"
रूप गोस्वामी भी हरिदास जी की तरह दैन्यवश अपने का म्लेक्ष और पतित मानने के कारण जगन्नाथ जी के मन्दिर दर्शन करने न जाते। दूर से मन्दिर के चूड़ा के दर्शन करते। प्रभु का भक्तों के साथ कीर्तन-नर्तन और भाँति-भाँति की आनन्द-लीलाओं का भी दूर से ही दर्शन करते। जगन्नाथ जी के भोगराग के पश्चात महाप्रभु दोनों एकान्तवासी भक्तों के लिए प्रसाद भेज देते। प्रसाद ग्रहण कर दोनों अपनी-अपनी साधना में लग जाते, हरिदास नाम-जप और कीर्तन में, रूप ग्रन्थ लिखने में।
निधन
प्रतिदिन तीन लाख नामजप का व्रत हरिदास ठाकुर ने लिया था और ये उसे अंत तक निवाहते रहे। संवत 1582 में यहीं इनका शरीर छूटा। समुद्र के किनारे इनका पक्का गोल समाधि मंदिर है, जिसके कुएँ का पानी मीठा है।
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