साखी: Difference between revisions

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Revision as of 13:13, 30 November 2011

साखी संस्कृत 'साक्षी' का अपभ्रंश रूपान्तर है। जिसे सिद्धों ने उसे 'उपदेश' कहा है, उसे ही सन्तों ने साखी कहा है। साखियों में उनके 'अनुभूत सत्य की अभिव्यक्ति' हुई है। सन्त कवि इस प्रकार के विषयों को, विशेषकर अपनी साखियों तथा 'शब्दों', अर्थात् पदों के माध्यम द्वारा प्रकट प्रतिपादित करते हैं। 'साखी' शब्द संस्कृत के 'साक्षी' शब्द का रूपान्तर है, जिसका अर्थ किसी बात को अपनी आँखों देख चुकने वाला और इसी कारण उसके सम्बन्ध में किसी प्रश्न के उठने पर, प्रमाणस्वरूप भी समझा जाने वाला व्यक्ति हुआ करता है तथा कदाचित् इसीलिए कबीर 'बीजक' में इस काव्य प्रकार का परिचय 'ज्ञान की आँखी' कहकर भी दिया गया है। इन साखियों में प्रधानत: ऐसे विषय ही आते दीख पड़ते हैं, जिन्हें सन्तों ने अपने दैनिक जीवन में भली-भाँति समझकर प्रमाणित कर लिया है अथवा जिन्हें वे अपनी निज की कसौटी पर पहले से कस चुकने के कारण साधिकार व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं।[1]

  • परशुराम चतुर्वेदी का कथन है 'इसका अभिप्राय उस पुरुष से है, जिसने किसी वस्तु अथवा घटना को अपनी आँखों से देखा हो। इस कारण 'साखी' शब् द का तात्पर्य प्राय: उस पुरुष से हुआ करता है, जो उन वस्तुओं व घटनाओं के विषय में विवाद खड़ा होने पर निर्णय करते समय प्रमाण स्वरूप समझा जा सके। इस प्रकार 'साखी' शब्द फिर प्रसंगवश महापुरुषों के लिए प्रयुक्त होते होते, पीछे उनके आप्तवचन का पर्याय बन गया होगा[2]। *साखियों में प्राय: छन्द का प्रयोग किया गया है। दोहा के अलावा सोरठा, उपमान, मुक्तामणि, अवतार, दोहकीय और गीता छन्दों का भी प्रयोग है[3]
  • परशुराम चतुर्वेदी ने इसमें दोहा, चौपाई, श्याम, उल्लास, हरिपद, गीता, सार तथा छप्पै छन्दों का अन्वेषण किया है। साखी का विभाजन 'अंगों' में किया है। साखियों के कुल 53 अंग हैं। अंग विभाजन में एकरूपता तथा वैज्ञानिकता का अभाव दिखाई देता है। कबीर ने 'अंग' शब्द का प्रयोग लक्षण के अर्थ में किया है। *कबीर ग्रन्थावली में 'अंग' शब्द विषय वस्तु का द्योतक है और साधना की यात्रा की क्रमिकता की हल्की झलक भी उसमें दिखाई देती है।[4]

छंदो में प्रयोग

साखी रचनाएँ प्राय: 'दोहा' नामक छन्दों में पायी जाती है और कभी-कभी इन्हें 'सोरठा' में भी व्यक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त सन्तों की साखियों के अन्तर्गत बीच-बीच में सार, हरिपद, चौपाई, चौपई, दोही, सरसी, गीता, मुक्तामणि, श्याम उल्लास या छप्पय जैसे छन्द भी आ जाया करते हैं, जिनका 'दोहा' के साथ अधिक सम्बन्ध नहीं है। इन साखियों का एक पर्याय 'सलोक' भी समझा जाता है, जिसके उदाहरण सिखों के 'आदिग्रंथ' में मिलते हैं। परन्तु साखियों को जहाँ 'अंग' जैसे शीर्षकों के नीचे विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया देखा जाता है, वहाँ 'सलोकों' के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। सन्तों की भाँति सूफी कवियों ने भी इस प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है, किन्तु उनके यहाँ इसे फुटकर रूपों में प्राय: 'दोहरा' नाम दिया गया मिलता है, जो प्रत्यक्षत: 'दोहा' शब्द का ही रूपान्तर हैं। दोहा एवं चौपाई छन्दों का एक साथ प्रयोग सूफी कवियों ने अपनी प्रेमगाथाओं में किया है, जिसका एक रूप कतिपय सन्तों की 'रमैनियों' में भी दीख पड़ता है। इन छन्दों के प्रयोग वाला एक दूसरा काव्य-प्रकार 'ग्रन्थ-बावनी' नाम से मिलता है, जिसकी द्विपदियों का आरम्भ क्रमश: नागरी लिपि के बावन अक्षरों से होता है और जिसकी पद्धति पर निर्मित 'अखरावती', 'ककहरा' आदि तथा फ़ारसी लिपि के अक्षरानुसार लिखे जाने वाले 'अलिफ़नामा', 'सोहर्फी' आदि पाये जाते हैं।[5]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 696।
  2. कबीर साहित्य की परख, 193
  3. कबीर-मीमांसा-रामचन्द्र तिवारी, पृष्ठ 148-50
  4. रामकिशोर, शर्मा कबीर ग्रन्थावली (हिंदी), 100।
  5. धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 696।

बाहरी कड़ियाँ

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