1857 क्रांति कथा -राही मासूम रज़ा: Difference between revisions

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राही ने यह महाकाव्य 1957 में उर्दू भाषा में लिखा था। उर्दू में तो कोई महाकाव्य है नहीं लेकिन हिन्दी में भी 1857 के महासमर पर कोई इस तरह का महाकाव्य नहीं है, नाटक और उपन्यास तो हैं। 1965 में ये हिन्दी में छपा जिसकी प्रस्तावना प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. सम्पूर्णानन्द ने लिखी थी। उन्होंने अप्रैल 1965 में लिखा था कि ‘इस पुस्तक का उद्देश्य है सुनो भाइयो-सुनो भाइयो, कथा सुनो-1857 की। सच तो यह है कि उस उद्देश्य को बहुत अच्छी तरह निभाया गया है। [[लखनऊ]], [[झाँसी]] और जहाँ-जहाँ [[उत्तर प्रदेश]] के खेत रहे- सबका वर्णन बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया गया है। मुझे विश्वास है हिन्दी भाषी जगत इस पुस्तक का समादर करेगा?’ लेकिन डॉ. सम्पूर्णानन्द की यह आशा हिन्दी जगत ने निराशा में बदल दी। राही और उसके महाकाव्य की घोर उपेक्षा हुआ। मामूली कवियों को महाकवि सिद्ध किया गया और राही जैसे लोग उपेक्षा के शिकार हुए।  राही के क्रान्ति-कथा उर्फ ‘अठारह सौ सत्तावन’ को भी याद करना आवश्यक है।
राही ने यह महाकाव्य 1957 में उर्दू भाषा में लिखा था। उर्दू में तो कोई महाकाव्य है नहीं लेकिन हिन्दी में भी 1857 के महासमर पर कोई इस तरह का महाकाव्य नहीं है, नाटक और उपन्यास तो हैं। 1965 में ये हिन्दी में छपा जिसकी प्रस्तावना प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. सम्पूर्णानन्द ने लिखी थी। उन्होंने अप्रैल 1965 में लिखा था कि ‘इस पुस्तक का उद्देश्य है सुनो भाइयो-सुनो भाइयो, कथा सुनो-1857 की। सच तो यह है कि उस उद्देश्य को बहुत अच्छी तरह निभाया गया है। [[लखनऊ]], [[झाँसी]] और जहाँ-जहाँ [[उत्तर प्रदेश]] के खेत रहे- सबका वर्णन बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया गया है। मुझे विश्वास है हिन्दी भाषी जगत इस पुस्तक का समादर करेगा?’ लेकिन डॉ. सम्पूर्णानन्द की यह आशा हिन्दी जगत ने निराशा में बदल दी। राही और उसके महाकाव्य की घोर उपेक्षा हुआ। मामूली कवियों को महाकवि सिद्ध किया गया और राही जैसे लोग उपेक्षा के शिकार हुए।  राही के क्रान्ति-कथा उर्फ ‘अठारह सौ सत्तावन’ को भी याद करना आवश्यक है।
;राही के शब्दों में  
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<blockquote>इस बात को ताजा करने के लिए हिन्दुस्तानी तवारीख ने मुझे 1857 से बेहतर कोई मिसाल नहीं दी इसलिए मैंने 1857 का इन्तखाब किया। लेकिन 1857 की इस नजम का मौजूं नहीं है। इसका मौंजूं का कोई सन नहीं है इसका मौंजूं इन्सान है। सुकरात जहर पी सकता है, इब्ने मरियम को समलूब किया जा सकता है, ब्रोनो को जिन्दा जलाया जा सकता है, ऐवस्ट की तलाश में कई कारवाँ गुम हो सकते हैं लेकिन सुकरात हारता नहीं, ईसा की शिकस्त नहीं होती, ब्रोनो साबित कदम रखता है और ऐवरेस्ट का गुरूर टूट जाता है। मैंने यह नजम चंद किताबों की मदद से अपने कमरे में बैठकर नहीं लिखी है। मैंने इस लड़ाई की शिरकत की है, मैंने जम लगाये हैं, मैं दरख्त पर लटकाया गया हूँ, मुझे मुर्दा समझकर गिद्धों ने नोचा है। मैंने उस बेबसी को महसूस किया है जब आदमी गिद्धों से और गीदड़ों से बचने के लिए अपना जिस्म नहीं हिला सकता है जब आँखों से बेपनाह खौफ़ बेपनाह बेबसी झलकने लगती है। मैंने उस खौफ को भी महसूस किया है जिसे तोपदम होने से पहले हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने किया होगा। मैंने उस दीवानगी के दिन गुजारे हैं जिसमें चन्द हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने किसी मकान में किलाबन्द होकर अँग्रेजों के लश्कर को रोकने का हौसला किया था। - राही मासूम रज़ा
<blockquote>इस बात को ताजा करने के लिए हिन्दुस्तानी तवारीख ने मुझे 1857 से बेहतर कोई मिसाल नहीं दी इसलिए मैंने 1857 का इन्तखाब किया। लेकिन 1857 की इस नजम का मौजूं नहीं है। इसका मौंजूं का कोई सन नहीं है इसका मौंजूं इन्सान है। सुकरात ज़हर पी सकता है, इब्ने मरियम को समलूब किया जा सकता है, ब्रोनो को जिन्दा जलाया जा सकता है, ऐवस्ट की तलाश में कई कारवाँ गुम हो सकते हैं लेकिन सुकरात हारता नहीं, ईसा की शिकस्त नहीं होती, ब्रोनो साबित कदम रखता है और ऐवरेस्ट का गुरूर टूट जाता है। मैंने यह नजम चंद किताबों की मदद से अपने कमरे में बैठकर नहीं लिखी है। मैंने इस लड़ाई की शिरकत की है, मैंने जम लगाये हैं, मैं दरख्त पर लटकाया गया हूँ, मुझे मुर्दा समझकर गिद्धों ने नोचा है। मैंने उस बेबसी को महसूस किया है जब आदमी गिद्धों से और गीदड़ों से बचने के लिए अपना जिस्म नहीं हिला सकता है जब आँखों से बेपनाह खौफ़ बेपनाह बेबसी झलकने लगती है। मैंने उस खौफ को भी महसूस किया है जिसे तोपदम होने से पहले हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने किया होगा। मैंने उस दीवानगी के दिन गुजारे हैं जिसमें चन्द हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने किसी मकान में किलाबन्द होकर अँग्रेजों के लश्कर को रोकने का हौसला किया था। - राही मासूम रज़ा
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Revision as of 14:05, 24 March 2012

1857 क्रांति कथा -राही मासूम रज़ा
लेखक राही मासूम रज़ा
मूल शीर्षक 1857 क्रांति कथा
प्रकाशक वाणी प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1965
ISBN 81-7055-659-7
देश भारत
पृष्ठ: 227
भाषा हिंदी
विषय सामाजिक और देशभक्ति
प्रकार उपन्यास
विशेष यह '1857' नाम से लिखा गया उर्दू महाकाव्य है, जो बाद में हिन्दी में '1857 क्रांति कथा' नाम से प्रकाशित हुआ।

उर्दू में एक महाकाव्य '1857' जो बाद में हिन्दी में 'क्रांति कथा' नाम से प्रकाशित हुआ। जब खुद को उर्दू का कर्ता-धर्ता मानने वाले कुछ लोगों से इस बात पर बहस हो गई कि यह हिन्दुस्तानी ज़बान सिर्फ फारसी रस्मुलखत में ही लिखी जा सकती है तो राही ने देवनागरी लिपि में लिखना शुरू किया और अंतिम समय तक वे इसी लिपि में ही लिखते रहे।

परिस्थितियाँ

क्रान्ति-कथा उर्फ 1957 में जब प्रथम स्वाधीनता संग्राम का शताब्दी समारोह मनाया गया उस अवसर पर राही मासूम रज़ा का महाकाव्य ‘अठारह सौ सत्तावन’ प्रकाशित हुआ था। उस समय इतिहासकारों में 1857 के चरित्र को लेकर बहुत विवाद था। बहुत से इतिहासकार उसे सामन्ती व्यवस्था की पुनःस्थापना का आन्दोलन मान रहे थे। उनमें कुछ तो इस सीमा तक बात कर रहे थे कि भारतीय सामन्त अपने खोये हुए राज्यों को प्राप्त करने की लड़ाई लड़ रहे थे। उन्होंने भारतीय सिपाहियों और किसानों को धार्मिक नारे देकर अपने साथ किया। 1857 के बारे में यह एक सतही और यांत्रिक समझ थी। वास्तव में वह अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय जनता का महासंग्राम था। इस आन्दोलन में किसान और कारीगर अपने हितों की लड़ाई लड़ रहे थे। इतिहासकार ऐरिक स्टोक ने लिखा है कि मूल किसान भावना कर वसूल करने वालों के विरुद्ध थी। उनसे मुक्ति पाने की थी। चाहे उनका कोई रूप, रंग या राष्ट्रीयता हो।[1] जहाँ-जहाँ ब्रिटिश शासन समाप्त हुआ था, वहाँ सत्ता विद्रोही जमींदारों और किसानों के हाथों में पहुँच गयी। किसान इस सत्ता में बराबर के शरीक थे। इसके साथ ही भारतीय कारीगरों की माँगें भी इस विद्रोह के घोषणा-पत्र में शामिल थीं। अगस्त 1857 के घोषणा-पत्र में विद्रोही राजकुमार फ़िरोजशाह ने स्पष्ट करते हुए कहा था - 'भारत में अंग्रेजी वस्तुओं को लाकर यूरोप के लोगों ने जुलाहों, दर्जियों, बढ़ई, लुहारों और जूता बनाने वालों को रोजगार से बाहर कर दिया है और उनके पेशों को हड़प लिया है। इस प्रकार प्रत्येक देशी दस्तकार भिखारी की दशा में पहुँच गया है।'[2]

उद्देश्य

विद्रोहियों में उद्देश्यों को लेकर अलग-अलग राय थी लेकिन इसका जनचरित्र भी रेखांकित किया जाना चाहिए। अवध में पुराने राजदरबार की भाषा फ़ारसी की जगह हिन्दुस्तानी का प्रयोग किया गया था जिसमें आमने-सामने उर्दू और हिन्दी दोनों पाठ दिये गये हैं। 6 जुलाई 57 को ‘बिरजिस कादर’ नाम से जारी किया गया इश्तहारनामा देश के आम जनता और जमींदारों को सम्बोधित किया गया था जिसमें बहुत सरल भाषा का प्रयोग था और एक सामान्य भाषा की खोज का यह पहला प्रयास है। शायद यह भाषा नीति चलती तो देश में उर्दू-हिन्दी का विवाद न होता। आज धुँधलका साफ है। 1857 के अन्तर्विरोधों से गुजरते हुए इतिहासकार इसे स्वतन्त्रता का पहला संग्राम मान रहे हैं। लेकिन राही के सामने उद्देश्य स्पष्ट थे - यह लड़ाई विदेशी शासकों के विरुद्ध थी। इसे हिन्दू-मुसलमान दोनों मिलकर लड़ रहे थे। इसमें सामन्तों के साथ किसान-मजदूर और कारीगर सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे थे। वे देश में अपना राज्य कायम करना चाहते थे जिसमें वे सम्मान के साथ जी सकें। राही के लिए यह संग्राम भारतीय स्वाभिमान का संघर्ष था। देश की अस्मिता का सवाल था। फिर एक ऐसी सामान्य भाषा 1857 में पैदा हो रही थी जो देश की राजभाषा के रूप में विकसित हो सकती थी। वह जनभाषाओं से भी शब्द चयन कर रही थी। फ़ारसी, संस्कृत, अरबी, हिन्दी-उर्दू का भी इस भाषा के विकास में योगदान था। राही इससे चिन्तित नहीं है कि यदि विद्रोही जीत जाते तो शासन का स्वरूप क्या होता। वे आश्वस्त हैं कि निश्चित ही इसका चरित्र जनविरोधी नहीं होता। भारतीय सामन्तों का वह वर्चस्व नहीं होता जो 1857 से पहले था। राही को देश के भविष्य निर्माण में किसानों, मजदूरों और कारीगरों की भूमिका पर बहुत भरोसा है। राही अक्सर कहते थे कि हिन्दू-मुसलमान यदि देश की समस्याओं के समाधान के लिए संघर्ष करें तो ये देश सर्वोशिखर पहुँच जाए। 1857 में इस जनएकता से राही बहुत प्रभावित थे। वे सबसे अधिक प्रभावित महिलाओं की भूमिका से थे। पहली बार भारत की स्त्रियों ने अपनी प्रतिभा, त्याग और बलिदान से एक नया इतिहास बनाया। 1857 में उन्होंने ख़ाली बेगम हजरत महल की भूमिका का ही चित्रण नहीं किया है, सबसे अधिक महत्त्व रानी लक्ष्मीबाई तथा उनकी सहयोगी साधारण स्त्रियों को दिया है। ये साधारण स्त्रियाँ अभूतपूर्व संघटन क्षमता, बहादुरी तथा बलिदान का प्रदर्शन करती हैं और उन लोगों पर चोट करती हैं जो स्त्री को द्वितीय श्रेणी का नागरिक समझते हैं। राही ने अपने महाकाव्य में साधारणजन के साथ इन स्त्रियों के शौर्य और पराक्रम का बहुत जीवन्त चित्रण किया है:

सोचता जा रहा है मुसाफ़िर
गिरती दीवारें फिर बन सकेंगी
थालियाँ खिल-खिलाकर हँसेंगी
पूरियाँ फिर घर में छन सकेंगी।
नाज आयेगा खेतों से घर में
खेत छूटेंगे बनिये के घर से
गीत गाऊँगा उस रह गुजर पर
शर्म आती है जिस रह गुजर से

रानी लक्ष्मीबाई पर राही ने अपने महाकाव्य में 40 पृष्ठ लिखे हैं। शायद इतनी लम्बी कविता हिन्दी के किसी कवि ने नहीं लिखी, सुभद्रा कुमारी चौहान ने रानी के ऊपर एक कविता लिखी जो अत्यन्त लोकप्रिय हुई। राही ने रानी के हर पक्ष का वर्णन किया है।

भाषा

राही ने यह महाकाव्य 1957 में उर्दू भाषा में लिखा था। उर्दू में तो कोई महाकाव्य है नहीं लेकिन हिन्दी में भी 1857 के महासमर पर कोई इस तरह का महाकाव्य नहीं है, नाटक और उपन्यास तो हैं। 1965 में ये हिन्दी में छपा जिसकी प्रस्तावना प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. सम्पूर्णानन्द ने लिखी थी। उन्होंने अप्रैल 1965 में लिखा था कि ‘इस पुस्तक का उद्देश्य है सुनो भाइयो-सुनो भाइयो, कथा सुनो-1857 की। सच तो यह है कि उस उद्देश्य को बहुत अच्छी तरह निभाया गया है। लखनऊ, झाँसी और जहाँ-जहाँ उत्तर प्रदेश के खेत रहे- सबका वर्णन बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया गया है। मुझे विश्वास है हिन्दी भाषी जगत इस पुस्तक का समादर करेगा?’ लेकिन डॉ. सम्पूर्णानन्द की यह आशा हिन्दी जगत ने निराशा में बदल दी। राही और उसके महाकाव्य की घोर उपेक्षा हुआ। मामूली कवियों को महाकवि सिद्ध किया गया और राही जैसे लोग उपेक्षा के शिकार हुए। राही के क्रान्ति-कथा उर्फ ‘अठारह सौ सत्तावन’ को भी याद करना आवश्यक है।

राही के शब्दों में

इस बात को ताजा करने के लिए हिन्दुस्तानी तवारीख ने मुझे 1857 से बेहतर कोई मिसाल नहीं दी इसलिए मैंने 1857 का इन्तखाब किया। लेकिन 1857 की इस नजम का मौजूं नहीं है। इसका मौंजूं का कोई सन नहीं है इसका मौंजूं इन्सान है। सुकरात ज़हर पी सकता है, इब्ने मरियम को समलूब किया जा सकता है, ब्रोनो को जिन्दा जलाया जा सकता है, ऐवस्ट की तलाश में कई कारवाँ गुम हो सकते हैं लेकिन सुकरात हारता नहीं, ईसा की शिकस्त नहीं होती, ब्रोनो साबित कदम रखता है और ऐवरेस्ट का गुरूर टूट जाता है। मैंने यह नजम चंद किताबों की मदद से अपने कमरे में बैठकर नहीं लिखी है। मैंने इस लड़ाई की शिरकत की है, मैंने जम लगाये हैं, मैं दरख्त पर लटकाया गया हूँ, मुझे मुर्दा समझकर गिद्धों ने नोचा है। मैंने उस बेबसी को महसूस किया है जब आदमी गिद्धों से और गीदड़ों से बचने के लिए अपना जिस्म नहीं हिला सकता है जब आँखों से बेपनाह खौफ़ बेपनाह बेबसी झलकने लगती है। मैंने उस खौफ को भी महसूस किया है जिसे तोपदम होने से पहले हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने किया होगा। मैंने उस दीवानगी के दिन गुजारे हैं जिसमें चन्द हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने किसी मकान में किलाबन्द होकर अँग्रेजों के लश्कर को रोकने का हौसला किया था। - राही मासूम रज़ा


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द पीजेंट एंड द राज, कैंब्रिज
  2. एस.ए.ए.रिज्ची - फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश-1, लखनऊ

बाहरी कड़ियाँ

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