इक्ष्वाकु: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 26: | Line 26: | ||
[[Category:कथा साहित्य कोश]] | |||
[[Category: | [[Category:पौराणिक कोश]] | ||
[[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Revision as of 13:21, 29 May 2010
इक्ष्वाकु अयोध्या के राजा थे । पुराणों में कहा गया है कि प्रथम सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु वैवस्वतमनु के पुत्र थे। इन्होंने ही अयोध्या में कोशल राज्य की स्थापना की थी। इनके सौ पुत्र थे। इनमें से पचास ने उत्तरापथ में और पचास ने दक्षिणापथ में राज्य किया। कहते हैं कि इक्ष्वाकु का जन्म मनु की छींक से हुआ था। इसीलिए इनका नाम इक्ष्वाकु पड़ा। इनके वंश में आगे चलकर रघु, दिलीप, अज, दशरथ और राम जैसे प्रतापी राजा हुए। इस वंश में राजा
- पृथु
- मांधाता
- दिलीप
- सगर
- भगीरथ
- रघु
- अंबरीष
- नाभाग
- त्रिशंकु
- नहुष और
- सत्यवादी हरिश्चंद्र जैसे प्रतापी व्यक्तियों ने जन्म लिया ।
कथा
कौशिक वंशी पिप्पलाद का पुत्र वेदों का परम विद्वान था। उसके जप से प्रसन्न होकर देवी सावित्री ने उसे अन्य ब्राह्मणों से ऊपर शुद्ध ब्रह्मपद प्राप्त करने का वर दिया। साथ ही कहा कि यम, मृत्यु तथा काल भी उससे धर्मानुकूल वाद-विवाद करेंगे। धर्म ने प्रकट होकर उससे कहा कि वह शरीर त्याग कर पुण्य लोक प्राप्त करे, किंतु ब्राह्मण ने जिस शरीर से तप किया था, उसका परित्याग कर वह कोई भी लोक ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं हुआ। यम, मृत्यु तथा काल ने भी प्रकट होकर ब्राह्मण को बताया कि उसके पुण्यों का फल प्राप्त होने का समय आ गया है। ब्राह्मण उनका आतिथ्य कर रहा था। तभी तीर्थाटन करते हुए राजा इक्ष्वाकु वहां जा पहुंचे। उनका भी समुचित सत्कार कर ब्राह्मण ने सबकी इच्छा जाननी चाही। राजा ब्राह्मण को अमूल्य रत्न देना चाहते थे। ब्राह्मण ने धन-धान्य रत्नादि लेने से इंकार कर दिया और कहा- 'मैं दान लेने वाला प्रवृत्त ब्राह्मण नहीं हूं। मैं तो प्रतिग्रह से निवृत्त ब्राह्मण हूं। आप जो चाहें सेवा कर सकता हूं। राजा इक्ष्वाकु ने उससे सौ वर्ष तक लगातार किए गये तप का फल मांगा। ब्राह्मण ने देना स्वीकार कर लिया। राजा ने पूछा-'तप का फल क्या है ?'
ब्राह्मण ने उत्तर दिया-'मैं निष्काम तपस्वी हूं, अत: 'फल' क्या है, नहीं जानता।'
राजा बोला - 'जिसका स्वरूप नहीं मालूम, ऐसा फल मैं भी नहीं लूंगा। तुम मेरे पुण्य-फलों सहित उसे पुन: ग्रहण करो।'
ब्राह्मण मिथ्याभाषी नहीं था। अत: उसने दी हुई वस्तु वापस लेनी स्वीकार नहीं की। राजा क्षत्रिय होने के नाते दान नहीं ले सकता था। ब्राह्मण ने कहा-'इस विषय में उसे पहले ही सोचना चाहिए था।' राजा ने सुझाया कि दोनों अपने शुभकर्मों के फल एकत्र करके सहभोगी की तरह रहें। उसी समय विकृत और विरूप नामक दो भयानक व्यक्ति ( एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था ) वहां पहुंचे। वे दोनों राजा इक्ष्वाकु से न्याय करने का आग्रह करने लगे। विरूप ने बताया कि पूर्व काल में विकृत ने एक गाय ब्राह्मण को दान दी थी। उसका फल विरूप ने उससे मांग लिया था। कालांतर में विरूप ने दो गाय बछड़ों सहित दान दी जिनका फल प्राप्त कर वह विकृत से लिया पुण्य-फल लौटा देना चाहता है किंतु विकृत लेने के लिए तैयार नहीं है। वह कहता है कि उसने दान दिया था, ऋण नहीं। राजा असमंजस में पड़ गया। उसने उन्हें थोड़े समय के लिए रूकने को कहा। ब्राह्मण पुन: बोला-'ठीक है, दान दी चीज ऋण नहीं होती। उसे वापस नहीं लिया जाता। यदि तुम स्वयं ही मांगे हुए फल अब ग्रहण नहीं करोगे तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगा।' राजा चिंतातुर हो उठा। उसने जीवन में पहली बार अपना हाथ ब्राह्मण के सामने पसार दिया। ब्राह्मण ने समस्त फल प्रदान किए। राजा ने कहा-'मेरे हाथ पर संकल्प जल पड़ा हुआ है। हम दोनों के पुण्यों का फल दोनों के लिए समान रहे।'
विरूप और विकृत ने प्रकट होकर कहा-'हम दोनों काम और क्रोध हैं। हमने धर्म, काल, मृत्यु, और यम के साथ मिलकर नाटक रचा था। आप दोनों को एक समान लोक प्राप्त होंगे।'
मन को जीतकर दृष्टि को एकाग्र करके दोनों समाधि में स्थित हो गये। कालांतर में ब्राह्मण के ब्रह्मरंध्र का भेदन करके एक ज्योतिर्मय विशाल ज्वाला निकली जो स्वर्ग की ओर बढ़ी। ब्रह्मा ने उसका स्वागत किया। तदनंतर वह तेज पुंज ब्रह्मा के मुखारविंद में प्रविष्ट हो गया। उसके पीछे-पीछे उसी प्रकार राजा ने भी ब्रह्मा के मुखारविंद में प्रवेश किया।<balloon title="महाभारत, शांतिपर्व, अध्याय 199-200" style=color:blue>*</balloon>
- एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा जो वैवस्वतमनु के पुत्र कहे गए हैं और जिनके वंश में रामचंद्र हुए थे ।
- उक्त राजा के वंशज जो एक वीर जाति के रूप में प्रसिद्ध हुए थे ।
- तितलौकी । कड़ुई लौकी ।