नैमिषारण्य: Difference between revisions
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====नैमिष नामकरण | <blockquote>'लोमहर्षणपुत्र उपश्रवा: सौति: पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेद्वदिशवार्षिके सत्रे, सुखासीनानभ्यगच्छम् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान् विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनंदन:। तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनाम्, चित्रा: श्रोतुत कथास्तत्र परिवव्रस्तुपस्विन:'<ref>[[महाभारत]], [[आदिपर्व महाभारत|आदिपर्व]] 1, 1-23.</ref></blockquote> | ||
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*'नैमिष' नाम की व्युत्पत्ति के विषय में [[वराह पुराण]] में यह निर्देश हैं- | |||
<blockquote>'एवंकृत्वा ततो देवो मुनिं गोरमुखं तदा, उवाच निमिषेणोदं निहतं दानवं बलम्। अरण्येऽस्मिं स्ततस्त्वेतन्नैमिषारण्य संज्ञितम्'</blockquote> | |||
अर्थात् ऐसा करके उस समय भगवान ने गौरमुख [[मुनि]] से कहा कि मैंने एक निमिष में ही इस दानव सेना का संहार किया है, इसीलिए (भविष्य में) इस अरण्य को लोग नैमिषारण्य कहेंगे। | |||
*[[वाल्मीकि रामायण]]<ref>[[वाल्मीकि रामायण]], उत्तरकांड 19, 15</ref> से ज्ञात होता है कि यह पवित्र स्थली [[गोमती नदी]] के तट पर स्थित थी, जैसा कि आज भी हैं- | |||
'यज्ञवाटश्च सुमहानगोमत्यानैमिषैवने'। 'ततो भ्यगच्छत् काकुत्स्थ: सह सैन्येन नैमिषम्'<ref>उत्तरकांड 92, 2</ref> में [[श्रीराम]] का [[अश्वमेध यज्ञ]] के लिए नैमिषारण्य जाने का उल्लेख है। [[रघुवंश महाकाव्य|रघुवंश]]<ref>[[रघुवंश महाकाव्य|रघुवंश]] 19, 1</ref> में भी नैमिष का वर्णन है- 'शिश्रिये श्रुतवतामपश्चिम् पश्चिमे वयसिनैमिष वशी'- जिससे अयोध्या के नरेशों का वृद्धावस्था में नैमिषारण्य जाकर वानप्रस्थाश्रम में प्रविष्ट होने की परम्परा का पता चलता है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=ऐतिहासिक स्थानावली|लेखक=विजयेन्द्र कुमार माथुर|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=509|url=}}</ref> | |||
==नैमिष नामकरण== | |||
इस तीर्थस्थल के बारे में कहा जाता है कि महर्षि शौनक के मन में दीर्घकालव्यापी ज्ञानसत्र करने की इच्छा थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर [[विष्णु]] भगवान ने उन्हें एक [[चक्र अस्त्र|चक्र]] दिया और कहा कि इसे चलाते हुए चले जाओ; जहाँ पर इस चक्र की नेमि (परिधि) गिर जाए, उसी स्थल को पवित्र समझना और वहीं [[आश्रम]] बनाकर ज्ञानसत्र करना। शौनक के साथ अठासी (88) सहस्र [[ऋषि]] थे। वे सब उस चक्र के पीछे घूमने लगे। गोमती नदी के किनारे एक वन में चक्र की नेमि गिर गई और वहीं पर वह चक्र भूमि में प्रवेश कर गया। चक्र की नेमि गिरने से वह क्षेत्र '''नैमिष''' कहा गया। इसी को '''नैमिषारण्य''' कहते हैं। | |||
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[[पुराण|पुराणों]] में नैमिषारण्य तीर्थ का बहुधा उल्लेख मिलता है। जब भी कोई धार्मिक समस्या उत्पन्न होती थी, उसके समाधान के लिए ऋषिगण यहाँ एकत्र होते थे। वैदिक ग्रन्थों के कतिपय उल्लेखों में प्राचीन नैमिष वन की स्थिति [[सरस्वती नदी]] के तट पर [[कुरुक्षेत्र]] के समीप भी मानी गई है। | [[पुराण|पुराणों]] में नैमिषारण्य तीर्थ का बहुधा उल्लेख मिलता है। जब भी कोई धार्मिक समस्या उत्पन्न होती थी, उसके समाधान के लिए ऋषिगण यहाँ एकत्र होते थे। वैदिक ग्रन्थों के कतिपय उल्लेखों में प्राचीन नैमिष वन की स्थिति [[सरस्वती नदी]] के तट पर [[कुरुक्षेत्र]] के समीप भी मानी गई है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दू धर्मकोश|लेखक=डॉ. राजबली पाण्डेय|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=376|url=}}</ref> | ||
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नैमिषारण्य, उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले में गोमती नदी का तटवर्ती एक प्राचीन तीर्थस्थल है। पुराणों तथा महाभारत में वर्णित नैमिषारण्य वह पुण्य स्थान है, जहाँ 88 सहस्र ऋषीश्वरों को वेदव्यास के शिष्य सूत ने महाभारत तथा पुराणों की कथाएँ सुनाई थीं-
'लोमहर्षणपुत्र उपश्रवा: सौति: पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेद्वदिशवार्षिके सत्रे, सुखासीनानभ्यगच्छम् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान् विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनंदन:। तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनाम्, चित्रा: श्रोतुत कथास्तत्र परिवव्रस्तुपस्विन:'[1]
- 'नैमिष' नाम की व्युत्पत्ति के विषय में वराह पुराण में यह निर्देश हैं-
'एवंकृत्वा ततो देवो मुनिं गोरमुखं तदा, उवाच निमिषेणोदं निहतं दानवं बलम्। अरण्येऽस्मिं स्ततस्त्वेतन्नैमिषारण्य संज्ञितम्'
अर्थात् ऐसा करके उस समय भगवान ने गौरमुख मुनि से कहा कि मैंने एक निमिष में ही इस दानव सेना का संहार किया है, इसीलिए (भविष्य में) इस अरण्य को लोग नैमिषारण्य कहेंगे।
- वाल्मीकि रामायण[2] से ज्ञात होता है कि यह पवित्र स्थली गोमती नदी के तट पर स्थित थी, जैसा कि आज भी हैं-
'यज्ञवाटश्च सुमहानगोमत्यानैमिषैवने'। 'ततो भ्यगच्छत् काकुत्स्थ: सह सैन्येन नैमिषम्'[3] में श्रीराम का अश्वमेध यज्ञ के लिए नैमिषारण्य जाने का उल्लेख है। रघुवंश[4] में भी नैमिष का वर्णन है- 'शिश्रिये श्रुतवतामपश्चिम् पश्चिमे वयसिनैमिष वशी'- जिससे अयोध्या के नरेशों का वृद्धावस्था में नैमिषारण्य जाकर वानप्रस्थाश्रम में प्रविष्ट होने की परम्परा का पता चलता है।[5]
नैमिष नामकरण
इस तीर्थस्थल के बारे में कहा जाता है कि महर्षि शौनक के मन में दीर्घकालव्यापी ज्ञानसत्र करने की इच्छा थी। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने उन्हें एक चक्र दिया और कहा कि इसे चलाते हुए चले जाओ; जहाँ पर इस चक्र की नेमि (परिधि) गिर जाए, उसी स्थल को पवित्र समझना और वहीं आश्रम बनाकर ज्ञानसत्र करना। शौनक के साथ अठासी (88) सहस्र ऋषि थे। वे सब उस चक्र के पीछे घूमने लगे। गोमती नदी के किनारे एक वन में चक्र की नेमि गिर गई और वहीं पर वह चक्र भूमि में प्रवेश कर गया। चक्र की नेमि गिरने से वह क्षेत्र नैमिष कहा गया। इसी को नैमिषारण्य कहते हैं।
प्राचीन स्थिति
पुराणों में नैमिषारण्य तीर्थ का बहुधा उल्लेख मिलता है। जब भी कोई धार्मिक समस्या उत्पन्न होती थी, उसके समाधान के लिए ऋषिगण यहाँ एकत्र होते थे। वैदिक ग्रन्थों के कतिपय उल्लेखों में प्राचीन नैमिष वन की स्थिति सरस्वती नदी के तट पर कुरुक्षेत्र के समीप भी मानी गई है।[6]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत, आदिपर्व 1, 1-23.
- ↑ वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड 19, 15
- ↑ उत्तरकांड 92, 2
- ↑ रघुवंश 19, 1
- ↑ ऐतिहासिक स्थानावली |लेखक: विजयेन्द्र कुमार माथुर |प्रकाशक: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर |पृष्ठ संख्या: 509 |
- ↑ हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 376 |