कांगड़ा: Difference between revisions
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कांगड़ा घाटी का प्राचीन नाम [[त्रिगर्त]] था। गुप्त काल में यह प्रदेश कर्तृपुर में सम्मिलित था। [[महाभारत]] के समय में कांगड़ा प्रदेश का राजा सुशर्मचंद्र था। यह [[कौरव|कौरवों]] का मित्र था। कांगड़ा ज्वालामुखी का मन्दिर तीर्थरूप में दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। कांगड़ा कोट या नगरकोट जहाँ पर यह मन्दिर है, समुद्रतल से 2500 फ़ुट ऊँचा है। यहाँ बाण-गंगा और पाताल गंगा का संगम होता हैं नगरकोट के दुर्ग के भीतर कई प्राचीन मन्दिर हैं। इनमें लक्ष्मी नारायण, अम्बिका और आदिनाथ तीर्थकर के मन्दिर प्रसिद्ध हैं। दुर्ग के भीतर की अपार सम्पत्ति की ख़बर सुनकर ही महमूद गज़नवी ने 1009 ई. में नगरकोट पर आक्रमण किया और नगर को बुरी तरह से लूटा। तत्कालीन इतिहास लेखक अलउतबी ने तारीख़े-यामिनी में लिखा है, कि 'नगरकोट की धनराशि इतनी अधिक थी कि उसको ढोने के लिए अनेक ऊँटों के काफ़िले भी अपर्याप्त थे और न उसे जलयानों से ले जाना सम्भव था। लेखक उसका वर्णन करने में असमर्थ थे और गणितज्ञ उसके मूल्य का अनुमान भी न लगा सकते थें।' | कांगड़ा घाटी का प्राचीन नाम [[त्रिगर्त]] था। गुप्त काल में यह प्रदेश कर्तृपुर में सम्मिलित था। [[महाभारत]] के समय में कांगड़ा प्रदेश का राजा सुशर्मचंद्र था। यह [[कौरव|कौरवों]] का मित्र था। कांगड़ा ज्वालामुखी का मन्दिर तीर्थरूप में दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। कांगड़ा कोट या नगरकोट जहाँ पर यह मन्दिर है, समुद्रतल से 2500 फ़ुट ऊँचा है। यहाँ बाण-गंगा और पाताल गंगा का संगम होता हैं नगरकोट के दुर्ग के भीतर कई प्राचीन मन्दिर हैं। इनमें लक्ष्मी नारायण, अम्बिका और आदिनाथ तीर्थकर के मन्दिर प्रसिद्ध हैं। दुर्ग के भीतर की अपार सम्पत्ति की ख़बर सुनकर ही महमूद गज़नवी ने 1009 ई. में नगरकोट पर आक्रमण किया और नगर को बुरी तरह से लूटा। तत्कालीन इतिहास लेखक अलउतबी ने तारीख़े-यामिनी में लिखा है, कि 'नगरकोट की धनराशि इतनी अधिक थी कि उसको ढोने के लिए अनेक ऊँटों के काफ़िले भी अपर्याप्त थे और न उसे जलयानों से ले जाना सम्भव था। लेखक उसका वर्णन करने में असमर्थ थे और गणितज्ञ उसके मूल्य का अनुमान भी न लगा सकते थें।' | ||
====नगरकोट पर आक्रमण==== | ====नगरकोट पर आक्रमण==== | ||
18वीं शती में फ़िरोज़ तुग़लक़ ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा यहाँ के ज्वालामुखी मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। किन्तु लगभग नौं मास तक दुर्ग के घिरे रहने के पश्चात ही वहाँ के राजा रूपचंद्र ने सुल्तान से सन्धि की वार्ता प्रारम्भ की। 14वीं शती के प्रारम्भ में काँगड़ा नरेश हरिश्चंद्र गुलेर के जंगलों में आख़ेट करता हुआ एक कुएँ में गिर गया। उसके राजधानी में न लौटने पर उसके छोटे भाई को कांगड़ा की गद्दी पर बिठा दिया गया किन्तु हरिश्चंद्र को पास से गुज़रते हुए एक व्यापारी ने कुएँ से निकाल लिया और वह कांगड़ा लौट आया। [[चित्र:Kangra-1.jpg|thumb|left|250px|कांगड़ा का एक दृश्य]] हरिश्चंद्र का अपने भाई के साथ झगड़ा स्वाभाविक रूप से हो सकता था, किन्तु उसने उदारता और बुद्धिमानी से काम लिया और नए राज्य की नींव डाली, और कांगड़ा पर छोटे भाई को ही राज्य करने दिया। मुग़ल सम्राट [[अकबर]] के समय में कांगड़ा नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। 1619 ई. में [[जहाँगीर]] ने एक वर्ष के घेरे के उपरान्त दुर्ग को हस्तगत कर लिया। वह [[नूरजहाँ]] के साथ दो वर्ष पश्चात कांगड़ा आया, जिसका स्मारक दुर्ग का जहाँगीर दरवाज़ा है। | 18वीं शती में फ़िरोज़ तुग़लक़ ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा यहाँ के ज्वालामुखी मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। किन्तु लगभग नौं मास तक दुर्ग के घिरे रहने के पश्चात ही वहाँ के राजा रूपचंद्र ने सुल्तान से सन्धि की वार्ता प्रारम्भ की। 14वीं शती के प्रारम्भ में काँगड़ा नरेश हरिश्चंद्र [[गुलेर]] के जंगलों में आख़ेट करता हुआ एक कुएँ में गिर गया। उसके राजधानी में न लौटने पर उसके छोटे भाई को कांगड़ा की गद्दी पर बिठा दिया गया किन्तु हरिश्चंद्र को पास से गुज़रते हुए एक व्यापारी ने कुएँ से निकाल लिया और वह कांगड़ा लौट आया। [[चित्र:Kangra-1.jpg|thumb|left|250px|कांगड़ा का एक दृश्य]] हरिश्चंद्र का अपने भाई के साथ झगड़ा स्वाभाविक रूप से हो सकता था, किन्तु उसने उदारता और बुद्धिमानी से काम लिया और नए राज्य की नींव डाली, और कांगड़ा पर छोटे भाई को ही राज्य करने दिया। मुग़ल सम्राट [[अकबर]] के समय में कांगड़ा नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। 1619 ई. में [[जहाँगीर]] ने एक वर्ष के घेरे के उपरान्त दुर्ग को हस्तगत कर लिया। वह [[नूरजहाँ]] के साथ दो वर्ष पश्चात कांगड़ा आया, जिसका स्मारक दुर्ग का जहाँगीर दरवाज़ा है। | ||
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Revision as of 14:21, 27 August 2012
thumb|250px|कांगड़ा का एक दृश्य
कांगड़ा नगर, भूतपूर्व नगरकोट, पश्चिमी हिमाचल प्रदेश राज्य, उत्तर भारत में स्थित है। यह नगर हिमालय की तराइ के दक्षिणी सिरे पर बसा हुआ है, जो व्यास नदी के द्वारा अपवाहित होती है। यह धर्मशाला से ठीक दक्षिण-पश्चिम में रेलवे की छोटी लाइन पर 734 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। प्राचीन और मध्य काल में कांगड़ा को नगरकोट के नाम से जाना जाता था। तब यह राजपूत राजाओं का गढ़ था। 1009 ई. में अफ़ग़ानी विजेता महमूद गज़नवी ने इस नगर में लूटपाट की और 1360 में बादशाह फ़िरोज़शाह तुग़लक़ ने भी इसे लूटा। बाद में यह मुग़लों के अधिकार में आ गया। 18वीं और 19वीं शताब्दी में कांगड़ा, कांगड़ा घाटी चित्रकला की प्रख्यात शैली का केन्द्र बन गया, जिसे राजपूत लघु चित्रकला के नाम से भी जाना जाता है। 1905 में एक भूकम्प ने इस नगर को तबाह कर दिया; इस भूकम्प में देवी का मन्दिर, जो उत्तरी भारत के प्राचीनतम मन्दिरों में से एक था, भी नेस्तनाबूद हो गया, लेकिन इसका पुर्ननिर्माण करवाया गया।
इतिहास
कांगड़ा घाटी का प्राचीन नाम त्रिगर्त था। गुप्त काल में यह प्रदेश कर्तृपुर में सम्मिलित था। महाभारत के समय में कांगड़ा प्रदेश का राजा सुशर्मचंद्र था। यह कौरवों का मित्र था। कांगड़ा ज्वालामुखी का मन्दिर तीर्थरूप में दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। कांगड़ा कोट या नगरकोट जहाँ पर यह मन्दिर है, समुद्रतल से 2500 फ़ुट ऊँचा है। यहाँ बाण-गंगा और पाताल गंगा का संगम होता हैं नगरकोट के दुर्ग के भीतर कई प्राचीन मन्दिर हैं। इनमें लक्ष्मी नारायण, अम्बिका और आदिनाथ तीर्थकर के मन्दिर प्रसिद्ध हैं। दुर्ग के भीतर की अपार सम्पत्ति की ख़बर सुनकर ही महमूद गज़नवी ने 1009 ई. में नगरकोट पर आक्रमण किया और नगर को बुरी तरह से लूटा। तत्कालीन इतिहास लेखक अलउतबी ने तारीख़े-यामिनी में लिखा है, कि 'नगरकोट की धनराशि इतनी अधिक थी कि उसको ढोने के लिए अनेक ऊँटों के काफ़िले भी अपर्याप्त थे और न उसे जलयानों से ले जाना सम्भव था। लेखक उसका वर्णन करने में असमर्थ थे और गणितज्ञ उसके मूल्य का अनुमान भी न लगा सकते थें।'
नगरकोट पर आक्रमण
18वीं शती में फ़िरोज़ तुग़लक़ ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा यहाँ के ज्वालामुखी मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। किन्तु लगभग नौं मास तक दुर्ग के घिरे रहने के पश्चात ही वहाँ के राजा रूपचंद्र ने सुल्तान से सन्धि की वार्ता प्रारम्भ की। 14वीं शती के प्रारम्भ में काँगड़ा नरेश हरिश्चंद्र गुलेर के जंगलों में आख़ेट करता हुआ एक कुएँ में गिर गया। उसके राजधानी में न लौटने पर उसके छोटे भाई को कांगड़ा की गद्दी पर बिठा दिया गया किन्तु हरिश्चंद्र को पास से गुज़रते हुए एक व्यापारी ने कुएँ से निकाल लिया और वह कांगड़ा लौट आया। thumb|left|250px|कांगड़ा का एक दृश्य हरिश्चंद्र का अपने भाई के साथ झगड़ा स्वाभाविक रूप से हो सकता था, किन्तु उसने उदारता और बुद्धिमानी से काम लिया और नए राज्य की नींव डाली, और कांगड़ा पर छोटे भाई को ही राज्य करने दिया। मुग़ल सम्राट अकबर के समय में कांगड़ा नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। 1619 ई. में जहाँगीर ने एक वर्ष के घेरे के उपरान्त दुर्ग को हस्तगत कर लिया। वह नूरजहाँ के साथ दो वर्ष पश्चात कांगड़ा आया, जिसका स्मारक दुर्ग का जहाँगीर दरवाज़ा है।
शैली
जहाँगीर दरवाज़ा में तीन महराबों को मिला कर एक मुख्य मेहराब बनाया गया है। कांगड़ा में काफ़ी समय तक मुग़ल फ़ौजदार रहते रहे। मुग़ल राज्य के अन्तिम समय में कांगड़ा नरेश संसार चंद्र हुए, जिन्होंने चित्रकला को बहुत प्रश्रय दिया, जिसके कारण कांगड़ा नाम में एक नई चित्रकला शैली का जन्म हुआ। इस शैली में मुग़ल तथा कांगड़ा की स्थानीय शैलियों का संगम है। इसी प्रकार मुग़ल राज्य के सम्पर्क के फलस्वरूप कांगड़ा के राजकीय रहन-सहन पर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा था। नगरकोट के क़िले में जहाँगीर ने एक मस्जिद बनवाई थी, जिसकी अब केवल दीवारें ही शेष हैं। रणजीत सिंह द्वार के निकट ही एक सुन्दर स्नानागृह (मुग़ल शैली का हमाम) है, जो शीत या ग्रीष्मकाल दोनों ऋतुओं में काम आता है।
कृषि और खनिज
कांगड़ा एक कृषि व्यापार का केन्द्र भी है और यहाँ पर फलता-फूलता हस्तशिल्प उद्योग स्थित है। यहाँ गेंहू, मक्का, धान, चाय और अन्य फ़सलों की खेती होती है।
उद्योग और व्यापार
हथकरघे पर कम्बल और शाल की बुनाई यहाँ का प्रमुख उद्योग हैं।
जनसंख्या
2001 की जनगणना के अनुसार कांगड़ा की कुल जनसंख्या 9,155 है।
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