चाय

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चाय
विवरण चाय एक महत्त्वपूर्ण पेय पदार्थ है और संसार के अधिकांश लोग इसे पसन्द करते हैं। चाय मुलायम एवं नयी पत्ती, बन्द वानस्पतिक कली आदि से तैयार की जाती है।
इतिहास चाय के पौधे का उत्पादन भारत में पहली बार सन् 1834 में अंग्रेज़ सरकार द्वारा परीक्षण के रूप में व्यापारिक पैमाने पर किया गया था। सन् 350 में चाय पीने की परंपरा का पहला उल्लेख मिलता है। सन् 1610 में डच व्यापारी चीन से चाय यूरोप ले गए और धीरे-धीरे ये समूची दुनिया का प्रिय पेय बन गया।
टैनिन की मात्रा चाय की ताज़ी पत्तियों में टैनिन की मात्रा 25.1% पायी जाती है, जबकि संसाधित पत्तियों में टैनिन की मात्रा 13.3% तक होती है।
कृषि चाय को अक्टूबर-नवम्बर में बोया जाता है तथा पत्तियाँ चुनने का मौसम वर्ष में तीन से चार बार चलता है। चाय के लिए न्यूनतम वर्षा 125 से 150 सेमी होना चाहिए तथा तापमान 21°C से 27°C तक उपयुक्त होता है।
मुख्य उत्पादन राज्य भारत में चाय के मुख्य उत्पादन राज्य असम, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल हैं।
प्रमुख निर्यातक देश भारत, श्रीलंका, कीनिया, चीन, इण्डोनेशिया
विशेष भारत से चाय का निर्यात विश्व के 80 से अधिक देशों को किया जाता है, जिनमें मुख्यतः ब्रिटेन, जर्मनी, आयरलैण्ड, रूस, मिस्र, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, कनाडा, नीदरलैण्ड, आस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमरीका, संयुक्त अरब गणराज्य, इराक, कुवैत, न्यूजीलैण्ड, तुर्की आदि देशों को होता है।
अन्य जानकारी विश्व में चाय के उत्पादन में भारत का पहला स्थान है। विश्व उत्पादन का 27 प्रतिशत और विश्व के निर्यात का 11 प्रतिशत भारत से प्राप्त होता है।
बाहरी कड़ियाँ टी बोर्ड भारत

चाय (अंग्रेज़ी:Tea) एक महत्त्वपूर्ण पेय पदार्थ है और संसार के अधिकांश लोग इसे पसन्द करते हैं। चाय मुलायम एवं नयी पत्ती, बन्द वानस्पतिक कली आदि से तैयार की जाती है। चाय में मुख्यतः कैफ़ीन का अंश पाया जाता है। इसकी ताज़ी पत्तियों में टैनिन की मात्रा 25.1% पायी जाती है, जबकि संसाधित पत्तियों में टैनिन की मात्रा 13.3% तक होती है। सर्वोत्तम चाय कलियों से बनायी जाती है। चाय की खेती में 'लाल किट्ट' तथा 'शैवाल' जनित 'चित्ती रोग' का प्रकोप होता है। चाय के लिए न्यूनतम वर्षा 125 से 150 सेमी होना चाहिए तथा तापमान 21°C से 27°C तक उपयुक्त होता है। विश्व में चाय के उत्पादन में भारत का पहला स्थान है। विश्व उत्पादन का 27 प्रतिशत और विश्व के निर्यात का 11 प्रतिशत भारत से प्राप्त होता है।

इतिहास

चाय के पौधे का उत्पादन भारत में पहली बार सन् 1834 में अंग्रेज़ सरकार द्वारा परीक्षण के रूप में व्यापारिक पैमाने पर किया गया था। यद्यपि जंगली अवस्था में यह असम में पहले से ही पैदा होती थी। इंग्लैण्ड को इसका निर्यात असम की चाय कम्पनी द्वारा किया गया। सन् 1815 में कुछ अंग्रेज़ यात्रियों का ध्यान असम में उगने वाली चाय की झाड़ियों पर गया, जिससे स्थानीय क़बाइली लोग एक पेय बनाकर पीते थे। भारत के गवर्नर-जनरल लॉर्ड बैंटिक ने 1834 में चाय की परंपरा भारत में शुरू करने और उसका उत्पादन करने की संभावना तलाश करने के लिए एक समिति का गठन किया। इसके बाद 1835 में असम में चाय के बाग़ लगाए गए। कहते हैं कि एक दिन चीन के सम्राट 'शैन नुंग' के सामने रखे गर्म पानी के प्याले में, कुछ सूखी पत्तियाँ आकर गिरीं, जिनसे पानी में रंग आया और जब उन्होंने उसकी चुस्की ली तो उन्हें उसका स्वाद बहुत पसंद आया। बस यहीं से शुरू होता है चाय का सफ़र। ये बात ईसा से 2737 साल पहले की है। सन् 350 में चाय पीने की परंपरा का पहला उल्लेख मिलता है। सन् 1610 में डच व्यापारी चीन से चाय यूरोप ले गए और धीरे-धीरे ये समूची दुनिया का प्रिय पेय बन गया।[1]

भौगोलिक दशाएँ

चाय की खेती के लिए जिन भौगोलिक दशाओं का ध्यान रखा जाता है, वह इस प्रकार हैं-[[चित्र:Tea-Factory-4.jpg|thumb|left|250px|कारखाने में रखी सूखी चाय, ऊटी]]

तापमान

चाय छाया प्रिय पौधा है, जो हल्की छाया में बड़ी तीव्रगति से बढ़ता है। इसके लिए मासिक तापमान 22° से 34° के बीच उपयुक्त माने गए हैं। जब उच्चतम तापमान 28° सेंटीग्रेड से नीचे गिर जाता है या औसत न्यूनतम तापमान 18° सेंटीग्रेड से नीचे हो जाता है, तो इसकी वृद्धि रूक जाती है। असम में 37° सेंटीग्रेड तापमान वाले भागों में भी चाय का उत्पादन किया जाता है। ठण्डी पवनें और ओले चाय के लिए हानिकारक होते हैं।

वर्षा

चाय उत्पादन के लिए आर्द्र जलवायु उपयुक्त मानी जाती है। यदि बसन्त एवं शीत ऋतु में वर्षा हो जाए तो चाय की पत्तियों को वर्ष में 4-5 बार तोड़ा जा सकता है। वर्षा का औसत 150-180 सेण्टीमीटर होना चाहिए। इसका उत्पादन असम के पहाड़ी भागों में 125 से 375 सेण्टीमीटर तक में तथा दार्जिलिंग में 250 से 500 सेण्टीमीटर तक वर्षा वाले भागों में भी होता है। दक्षिण भारत में चाय क्षेत्रों में भी वर्षा होती है। चाय के पौधे के विकास के लिए जड़ों में जल का एकत्रित होना हानिकारक होता है। इसलिए चाय के उद्यान समुद्र तल से 610 से 1,830 मीटर ऊंचे पहाड़ी ढ़ालों पर ही मिलते हैं। हिमालय का दक्षिणी ढाल एवं पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढाल सूर्योन्मुखी हैं और अधिक ताप एवं जलवृष्टि दोनों ही प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त यह ढाल ध्रुवों की शीतल हवाओं से सुरक्षित रहता है। अतः इन ढालों पर चाय का उत्पादन किया जाता है।

मिट्टी एवं खाद

चाय का उत्पादन पहाड़ों के ढालों पर या ढलवाँ भूमि पर भी किया जा सकता है। यदि वर्षा के अतिरिक्त जल बहने की सुविधा हो। भारत के सर्वात्तम चाय के उद्यान असममेघालय के हल्के ढालू पहाड़ी भागों पर, जो कि 1200 से 1800 मीटर ऊंचाई तक है, पर पाए जाते हैं। इसके लिए मिट्टी गहरी और गन्धक वाली हानी चाहिए। बहुधा वनों की साफ़ की गयी भूमि चाय के लिए अच्छी मानी जाती है। उपजाऊ, मुलायम, बलुई मिट्टी में यदि प्राणिज अथवा रासायनिक तत्त्वों का अधिक्य हो तो अच्छी चाय पैदा होती है। असम के उद्यानों में चाय की झाडि़यों के छांटने से जो टहनियाँ गिरती हैं, उन्हें भूमि में फिर से रोप दिया जाता है। इससे मिट्टी को वनस्पति तत्त्व उपलब्ध होते रहते हैं, दार्जिलिंग की चाय इसलिए सुगन्धित होती है, क्योंकि वहाँ की मिट्टी में पोटाश और फॉस्फोरस अधिक मात्रा में पाया जाता है।

सस्ते श्रमिक

चाय की चुनाई के लिए सस्ते और अधिक मात्रा में श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि चाय की पत्तियाँ एक-एक कर तोड़ी जाती हैं, जिनसे कोमल पत्तियाँ नष्ट ना हों। अपनी कोमल अंगुलियों के कारण ही चाय के उद्यानों में स्त्री मज़दूर द्वारा पत्तियाँ तोड़ी जाती हैं। अब पत्तियाँ तोड़ने के लिए डायनमों से चलने वाली मशीनों का भी प्रचलन हो गया है।

चाय की कृषि

[[चित्र:View-Of-Assam.jpg|thumb|250px|असम के बाग़ान में चाय की पत्तियाँ चुनती लड़कियाँ]] चाय को अक्टूबर-नवम्बर में बोया जाता है तथा पत्तियाँ चुनने का मौसम वर्ष में तीन से चार बार चलता है। पहली बार अप्रैल से जून तक, दूसरी बार जुलाई से अगस्त तक और तीसरी बार सितम्बर से अक्टूबर तक। पौधों को पहले छोटी क्यारियों में उगाया जाता है। फिर कुछ बड़ा होने पर अन्यत्र रोप दिया जाता है। समय-समय पर झाड़ी की छंटाई की जाती है, जिससे कोमल पत्तियाँ मिलती हैं तथा झाड़ी 1.5 मीटर से अधिक ऊंची नहीं होने से पत्ती चुनने में सुविधा रहती है। भारत में चाय का प्रति हेक्टेअर उत्पादन अच्छे से अच्छे उद्यान में भी 1800 किलोग्राम से अधिक नहीं है। देश में क्षेत्रवार प्रति हेक्टेअर उत्पादन इस प्रकार है- असम 1537, पश्चिम बंगाल 1411, त्रिपुरा 623, उत्तर प्रदेश 382, हिमाचल प्रदेश 132, तमिलनाडु 2002 कर्नाटक 1886 और केरल 1484 । सम्पूर्ण भारत का औसत अब बढ़कर 1800 किलोग्राम हो गया है। उत्तर भारत का 1800 किलोग्राम और दक्षिणी भारत का 2000 किलोग्राम हो गया है। इससे भी चाय उत्पादन में वृद्धि हो सकी है। भारत में चाय के उत्पादक क्षेत्र एक दूसरे से दूर-दूर हैं। उनकी मिट्टी तथा जलवायु भी एक दूसरे से भिन्न है, अतः चाय की किस्मों में भी अन्तर होता है। असम की चाय अपनी तेज सुगन्ध और रंग के लिए प्रसिद्ध है, परन्तु पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग क्षेत्र में पैदा होने वाली चाय बहुत सुस्वाद और मादक होती है। दक्षिणी भारत, विशेषतः नीलगिरी और काननदेवांस क्षेत्र, में पैदा होने वाली चाय अपनी रंग, मादकता और सुगन्ध के लिए प्रसिद्ध है। दार्जिलिंग की चाय न केवल भारत में ही वरन् विश्वभर में श्रेष्ठ मानी जाती है। इस समय चाय भारत की प्रमुख मुद्रादायिनी फ़सल है, जिसके निर्यात से भारत को 1960-1961 में 124 करोड़ रुपए तथा 2007-2008 में 2034 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त हुई। विभिन्न करों के रूप में सरकार को 40 से 50 करोड़ रुपये की आय होती है। चाय पैदा करने में लगभग 10 लाख श्रमिक लगे हुए हैं, जिनमें से 4 लाख से अधिक तो असम के उद्यानों में ही कार्यरत है।

प्रकार

चाय की किस्म के अनुसार दो प्रकार की चाय होती है-

  1. चीनी किस्म - इसकी झाड़ी डेढ़ से दो मीटर ऊंची होती है तथा पत्तियाँ कठोर और गहरे रंग की 4 से 7 सेण्टीमीटर लम्बी होती हैं। इसका प्रति हेक्टेअर उत्पादन कम होता है।
  2. असम किस्म - इसकी झाड़ी 1.0 से 1.5 मीटर ऊंची होती है तथा पत्तियाँ अधिक मुलायम और हल्की हरे रंग तथा 1.5 से 3.0 सेण्टीमीटर लम्बी होती है।

भारत में प्रत्येक उद्यान के निकट ही चाय तैयार करने के लिए फैक्टरी होती है, जहाँ भिन्न-भिन्न ढंग से हरी या काली चाय तैयार डिब्बों में पैक की जाती है। [[चित्र:Tea-Factory-3.jpg|thumb|250px|left|चाय कारखाना, ऊटी]]

जलवायु क्षेत्र

  1. उष्ण जलवायु की चाय क्षेत्रों के अन्तर्गत नीलगिरि पहाड़ियाँ, तमिलनाडु, तथा हिमालय के दक्षिणी ढाल सम्मिलित किए जाते हैं। यहाँ जो चाय पैदा की जाती है, उसे 'उष्ण जलवायु' वाली चाय कहा जाता है। इन क्षेत्रों में साधारण किस्म की चाय अधिक होती है।
  2. शीतल जलवायु की चाय पूर्वी हिमालय की पूर्वी पहाड़ियों पर असम में विशेष रूप से पैदा की जाती है। साधारणतः यह 1200 से 1820 मीटर तक की ऊंचाई पर पैदा की जाती है। उत्तमता की दृष्टि से यह मध्यम श्रेणी की होती है।
  3. शीतोष्ण जलवायु की चाय उत्तराखण्ड के कुमायूं, देहरादून; हिमाचल प्रदेश के मण्डी, कांगड़ा घाटी एवं पश्चिम बंगाल के पहाड़ी ढालों की मध्यवर्ती भूमि पर उत्पन्न की जाती है। दार्जिलिंग, कुमायूं, कांगड़ा आदि ज़िलों में 2000 मीटर तक की ऊंचाई पर चाय पैदा की जाती है। इस क्षेत्र का उत्पादन कम होता है, किन्तु चाय उत्तम प्रकार की होती है। देश में 13,256 चाय के उद्यान हैं। असम में चाय के 770 उद्यान, पश्चिम बंगाल में 302, हिमाचल प्रदेश में 1385, उत्तराखण्ड में 31, त्रिपुरा में 57, तमिलनाडु में 6568, केरल में 4112 तथा कर्नाटक में 15 उद्यान हैं। वर्तमान में चाय के अन्तर्गत 0.5 मिलियन हेक्टेअर भूमि है।

उत्पादक क्षेत्र

thumb|250px|चाय कारखाना भारत में चाय के क्षेत्र हिमालय के सम्पूर्ण पहाड़ी प्रदेश में एवं हिमाचल प्रदेश और पंजाब से प्रायद्धीपीय भारत तक में, अर्थात् 330 उत्तरी अक्षांशों से 100 उत्तरी अक्षांशों के बीच, पाये जाते है। चाय उत्पादक प्रमुख मेखला में 23° उत्तर और 32° उत्तर अक्षांशों के बीच ही केन्द्रित है। कुल क्षेत्र 75 प्रतिशत उत्तर पूर्वी भारत में है, जहाँ से कुल उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत प्राप्त होता है। दक्षिण भारत में कुल क्षेत्र का 20 प्रतिशत है, जहाँ से 25 प्रतिशत उत्पादन मिलता है। शेष 5 प्रतिशत क्षेत्र उत्तर और उत्तर पश्चिमी भारत में हैं, जहाँ से कुल उत्पादन का 5 प्रतिशत प्राप्त होता है। उत्तर-पूर्वी भारत में चाय का उत्पादन एक त्रिकोणात्मक क्षेत्र से प्राप्त होता है, जो 'दार्जिलिंग' (पश्चिम बंगाल), 'सदिया' (असम), और 'चटगांव' (बांग्लादेश) में विस्तृत है। इस त्रिकोण के प्रमुख चाय उत्पादक क्षेत्र निम्न हैं-

  1. ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी, जहाँ लगभग 676 चाय के उद्यान हैं और असम के कुल चाय के क्षेत्र का 40 प्रतिशत एवं उत्पादन का लगभग 44 प्रतिशत मिलता है। यहाँ मुख्य उत्पादक सदिया से गोपालपाड़ा ज़िले तक फैले हैं, जिनमें लखीमपुर, शिवसागर, धरांग, कामरूप, गोलपाड़ा और नवगांव ज़िले हैं। यहाँ चाय ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी किनारों पर 450 मीटर की ऊंचाई तक पैदा की जाती है। भूमि ढालू होने के कारण अतिरिक्त जल बहकर चला जाता है। वर्षा की मात्रा घाटी में 400 सेण्टीमीटर, दमदमा और डिब्रूगड़ में 250 और 225 सेण्टीमीटर होती है। तापमान जुलाई में 310 से 370 तक रहता है। यह कभी भी 100 से नीचे नहीं जाता है। पाला कभी नहीं गिरता। अधिकांश उत्पादन जुलाई से नवम्बर तक किया जाता है, लगभग 80 प्रतिशत।
  2. सुरमा घाटी में कछार ज़िले में टीलों पर चाय के उद्यान स्थित हैं। यहाँ जनवरी में तापमान 10°C से जुलाई में 32°C तक रहते हैं तथा वर्षा की मात्रा 300 से 400 सेण्टीमीटर तक होती है। यहाँ कुल चाय के क्षेत्र का 9 प्रतिशत है, जबकि उत्पादन कुल 5 प्रतिशत होता है।
  3. दुआर के अन्तर्गत एक 16 किलोमीटर लम्बी पट्टी में, जो हिमालय की तलहटी में कूचबिहार और जलपाईगुड़ी में फैली है, चाय कुछ ऊंचे ढालों पर पैदा की जाती है। वर्षा की मात्रा 300 सेण्टीमीटर से अधिक होती है, किन्तु ढालू भूमि होने के अतिरिक्त जल बहकर चला जाता है। यहाँ के मुख्य उत्पादक क्षेत्र माल, चासला, नगरकाटा, मदारीहाट, पशुकोवा, जयन्ती, कत्रिक और कुमारग्राम हैं। ये सब मेच्छी और रैड़ाक नदियों के बीच क्षेत्र में हैं। यहाँ से 18 प्रतिशत चाय मिलती है।
  4. दार्जिलिंग ज़िले में चाय पहाड़ी ढालों पर सीढ़ीदार खेतों में 90 से 1980 मीटर ऊंचाई तक पैदा की जाती है। यहाँ वर्षा की मात्रा 300 सेण्टीमीटर तक होती है। यहाँ चाय कई प्रकार की मिट्टियों, भूरी, बलुई, दोमट से लगाकर पीली दोमट मिट्टी, लाल भूरी वन मिट्टी में पैदा की जाती हैं। मुख्य उत्पादक ज़िले जलपाईगुड़ी, पुरूलिया और कूचबिहार हैं।

thumb|250px|left|चाय की पत्तियों को बरसाती महिला

अन्य क्षेत्र

उत्तरी भारत में चाय के अन्य उत्पादक क्षेत्र निम्नलिखित हैं-

  1. तराई क्षेत्र, जो हिमालय की तलहटी में उत्तराखण्ड एवं हिमाचल प्रदेश में फैला है। उत्तराखण्ड में, अल्मोड़ा और गढ़वाल ज़िले, हिमालय और शिवालिक पर्वतों के बीच, कुमायूं, चमोली और पिथौरागढ़ में चाय पैदा की जाती है। यहाँ के मुख्य उद्यान पट्टी, बेनीताल, सिलकोट, चांदपुरमाला, मुजेती गड़ोली तलवारी और जूटानी हैं।
  2. झारखण्ड में चाय का उत्पादन छोटा नागपुर का पठार, पूर्णिया, हज़ारीबाग़, और रांची ज़िलों में सीमित क्षेत्रों में किया जाता है। यहाँ निम्न श्रेणी की चाय होती है।
  3. हिमाचल प्रदेश में चाय का उत्पादन कांगड़ा और मण्डी ज़िलों में है, यहाँ से भारत की लगभग 66 प्रतिशत हरी चाय उत्पन्न की जाती है।
  4. दक्षिण-पश्चिमी भारत में चाय का क्षेत्र सामान्यतः पश्चिम घाट के दक्षिणी भागों में सीमित है, जो 90 से 130 उत्तरी अक्षांशों के बीच है। यहाँ चाय के उद्योग घाट के ऊपरी भागों में लाल मिट्टी वाले क्षेत्रों में पाये जाते हैं। यहाँ के तापमान समान रूप से ऊंचे रहते हैं तथा वर्षा की मात्रा 400 सेण्टीमीटर तक होती है। 40 प्रतिशत चाय का उत्पादन जुलाई से नवम्बर के बीच किया जाता है, शेष अप्रैल से जून तक।

उत्पादन एवं व्यापार

[[चित्र:Tea-Factory-2.jpg|thumb|250px|ऊटी के एक कारखाने में चाय छानने की प्रक्रिया]] भारत से चाय का निर्यात विश्व के 80 से अधिक देशों को किया जाता है, जिनमें मुख्यतः ब्रिटेन, जर्मनी, आयरलैण्ड, रूस, मिस्र, अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, कनाडा, नीदरलैण्ड, आस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमरीका, संयुक्त अरब गणराज्य, इराक, कुवैत, न्यूजीलैण्ड, तुर्की आदि देशों को होता है। कुल निर्यात का लगभग 40 प्रतिशत सी.आई.एस. देशों को जाता है। चाय का यह निर्यात कोलकाता, मुम्बई, कोच्चि, चेन्नई और मंगलौर बन्दरगाहों से होता है। देश के उत्पादन के लगभग 25 प्रतिशत निर्यात किया जाता है। देश में 75 प्रतिशत चाय खप जाती है, क्योंकि देश में पिछले चार दशकों में चाय की खपत में निरन्तर वृद्धि हुई है। अतः कुल उत्पादन के प्रतिशत के रूप में निर्यात में कमी हुई है। फिर भी भारत में चाय की खपत प्रति व्यक्ति पीछे कम ही है। संयुक्त राज्य अमरीका में 0.4 किलोग्राम चाय प्रति व्यक्ति पीछे पी जाती है, इंग्लैण्ड में 3.5 किलोग्राम, नीदरलैण्ड में 3.9 किलोग्राम, आस्ट्रेलिया में 1.8 किलोग्राम चाय पी जाती है। भारत में यह औसत 1955-1956 में 362 ग्राम था, जो वर्तमान में 603 ग्राम हो गया है। भारत में चाय का निर्यात अन्तराष्ट्रीय दृष्टि से गिर रहा है। 1955 में भारत का चाय निर्यात में हिस्सा 37.8 प्रतिशत था, जो वर्तमान में गिरकर 11.7 प्रतिशत रह गया है। इसका कारण चीन, इण्डोनेशिया, बांग्लादेश और श्रीलंका से भारी प्रतियोगिता तथा भारतीय चाय के परम्परागत ग्राहक देशों ग्रेट-ब्रिटेन और रूस से चाय की लगातार कम होती मांग है।
पहले भारतीय चाय के निर्यात में ब्रिटेन का प्रमुख स्थान था, किन्तु सबसे अधिक चाय सी.आई.एस. देशों व पूर्वी यूरोप के देशों संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान आदि देशों को निर्यात की जाती है। उसके बाद ब्रिटेन का स्थान आता है। इसके बाद ई.सी.एम. के देश व कनाडा आते हैं।

चाय का उत्पादन

चाय का उत्पादन, खपत एवं व्यापार (मात्रा : मिलियन किलोग्राम; मूल्य : करोड़ रु.)
उत्पादन निर्यात आयात घरेलू खपत
वर्ष मात्रा

1997 -98

835.64
1998-99 854.78
1999 835.35
2000-01 848.36
2001-02 847.25
2002-03 845.97
2003-04 878.65
2004-05 906.84
2005-06 948.94
2006-07 947-12
2007-08 ( अप्रॅल-नवम्बर) 805.18
मात्रा मूल्य
211.26 2003.15

205.86

2191.84

194.44

1932.66

203.55

1889.78

19.00

1695.78

184.4

1665.04

183.07

1636.99

205.81

1924.71

196.67

1793.58

218.15

2045.72

100.87

998.68
मात्रा मूल्य

2.61

17.79

8.93

64.73

10.36

61.97

15.23

95.47

16.02

82.70

22.49

105.32

11.34

66.23

32.53

145.15

17.41

102.77

20.78

110.88

11.80

76.18
मात्रा

597

615

633

653

673

693

714

735

757

771

विश्व वितरण

thumb|250px|चाय के बाग़ान में काम करते कुछ लोग विश्व में लगभग 26 लाख हेक्टेयर भूमि पर चाय की कृषि की जाती है। विश्व में इसका वार्षिक उत्पादन 20 लाख टन है। चाय उत्पादक देशों में भारत, श्रीलंका, चीन, जापान आदि प्रमुख हैं। अन्य देशों में रूस, जार्जिया, तुर्की, कीनिया, मलावी, युगांडा तथा मोजाम्बिक प्रमुख उत्पादक देश हैं। भारत लगभग 4 लाख हेक्टेयर भूमि में फैले लगभग 1300 बाग़ानों से 7000 लाख किग्रा चाय प्रतिवर्ष उत्पादन का लगभग 50% अकेले असम में उत्पादित किया जाता है। असम में ब्रह्मपुत्र घाटी, सूरमा घाटी तथा सदिया क्षेत्र मुख्य चाय उत्पादक क्षेत्र हैं। दूसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल है- यहाँ दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी ज़िले प्रमुख उत्पादक क्षेत्र हैं। दक्षिणी भारत में प्रमुख चाय उत्पादक राज्य क्रमशः तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक आदि है। यहाँ नीलगिरि, अन्नामलाई और कार्डेमम पहाड़ी मुख्य उत्पादक क्षेत्र हैं।

प्रमुख निर्यातक देश

  1. भारत
  2. श्रीलंका
  3. कीनिया
  4. चीन
  5. इण्डोनेशिया
  6. बांग्लादेश आदि।

चाय के प्रकार

मोटे तौर पर चाय दो तरह की होती है :

  1. प्रोसेस्ड या सीटीसी (कट, टीयर और कर्ल) या आम चाय
  2. हरी चाय (प्राकृतिक चाय)।

सीटीसी चाय (आम चाय)

thumb|सीटीसी चाय यह विभिन्न कंपनी के उत्पादों के तहत बिकने वाली दानेदार चाय होती है, जो आमतौर पर घर, रेस्तरां और होटल आदि में इस्तेमाल की जाती है। इसमें पत्तों को तोड़कर कर्ल (मोड़ना) किया जाता है। फिर सुखाकर दानों का रूप दिया जाता है। इस प्रक्रिया में कुछ बदलाव आते हैं। इससे चाय में स्वाद और महक बढ़ जाती है। लेकिन यह हरी चाय जितनी अच्छी नहीं बनती और न ही उतनी फ़ायदेमंद।

हरी चाय (ग्रीन टी)

thumb|हरी चाय यह चाय के पौधे के ऊपर के कच्चे पत्ते से बनती है। सीधे पत्तों को तोड़कर भी चाय बना सकते हैं। इसमें प्रति आक्सीकारक (एंटी-ऑक्सिडेंट) सबसे ज़्यादा होते हैं। हरी चाय काफ़ी फ़ायदेमंद होती है, ख़ासकर अगर बिना दूध और चीनी के पी जाए। इसमें ऊर्जा (कैलरी) भी नहीं होतीं। इसी हरी चाय से आयुर्वेदिक (हर्बल) व कार्बनिक (ऑर्गेनिक) आदि चाय तैयार की जाती है।

आयुर्वेदिक चाय (हर्बल टी)

हरी चाय में कुछ जड़ी-बूटियां मसलन तुलसी, अश्वगंधा, इलायची, दालचीनी आदि मिला देते हैं तो आयुर्वेदिक चाय तैयार होती है। इसमें कोई एक या तीन-चार हर्ब मिलाकर भी डाल सकते हैं। यह बाज़ार में तैयार पैकेट में भी मिलती है। यह सर्दी-खांसी में काफ़ी फ़ायदेमंद होती है, इसलिए लोग दवा की तरह भी इसका प्रयोग करते हैं।

जैविक चाय (ऑर्गेनिक टी)

जिस चाय के पौधों में कीटनाशक (पेस्टिसाइड) और रासायनिक उर्वरक (फर्टिलाइजर) आदि नहीं डाले जाते, उसे ऑर्गेनिक चाय या जैविक चाय कहा जाता है। यह सेहत के लिए ज़्यादा फ़ायदेमंद है।

सफ़ेद चाय (वाइट टी)

thumb|सफ़ेद चाय कुछ दिनों की कोमल पत्तियों से इसे तैयार किया जाता है। इसका हल्का मीठा स्वाद काफ़ी अच्छा होता है। इसमें कैफ़ीन सबसे कम और प्रति आक्सीकारक (एंटी-ऑक्सिडेंट) सबसे ज़्यादा होते हैं। इसके एक कप में सिर्फ़ 15 मिलीग्राम कैफ़ीन होता है, जबकि काली चाय (ब्लैक टी) के एक कप में 40 और हरी चाय में 20 मि.ग्रा. कैफ़ीन होता है।

काली चाय (ब्लैक टी)

thumb|काली चाय कोई भी चाय दूध व चीनी मिलाए बिना पी जाए तो उसे काली चाय कहते हैं। हरी चाय या आयुर्वेदिक चाय को तो आमतौर पर दूध मिलाए बिना ही पिया जाता है। लेकिन किसी भी तरह की चाय को काली चाय के रूप में पीना ही सबसे सेहतमंद है। तभी चाय का असली फ़ायदा मिलता है।

तुरंत चाय (इंस्टेंट टी)

इस श्रेणी में चाय के छोटे-छोटे बैग आते हैं, यानी पानी में डालो और तुरंत चाय तैयार। चाय के बैग में टैनिक एसिड होता है। इसमें विषाणु विरोधी (एंटी-वायरल) और जीवाणु विरोधी (एंटी-बैक्टीरियल) गुण होते हैं। इन्हीं गुणों की वजह से चाय के बैग को कॉस्मेटिक्स आदि में भी प्रयोग किया जाता है।

नीबू की चाय (लेमन चाय)

नीबू की चाय सेहत के लिए अच्छी होती है, क्योंकि चाय के जिन प्रति आक्सीकारक (एंटी-ऑक्सिडेंट्स) को शरीर अवशोषित नहीं कर पाता, नीबू डालने से वे भी अवशोषित हो जाते हैं।

मशीन वाली चाय

रेस्तरां, दफ़्तर, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट आदि पर आमतौर पर मशीन वाली चाय मिलती है। इस चाय का कोई फ़ायदा नहीं होता क्योंकि इसमें कुछ भी प्राकृतिक अवस्था में नहीं होता।

अन्य चाय

आजकल स्ट्रेस रीलिविंग (तनाव रहित), रिजूविनेटिंग (कायाकल्प), स्लिमिंग टी व आइस टी भी खूब चलन में हैं। इनमें कई तरह की जड़ी-बूटी आदि मिलाई जाती हैं। मसलन, भ्रमी रिलेक्स करता है तो दालचीनी ताजगी प्रदान करती है और तुलसी हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करती है। इसी तरह स्लिमिंग टी में भी ऐसे तत्त्व होते हैं, जो वज़न कम करने में मदद करते हैं। इनसे चयापचय दर (मेटाबॉलिक रेट) थोड़ा बढ़ जाता है, लेकिन यह सहारा भर है। सिर्फ़ इसके सहारे वज़न कम नहीं हो सकता। आइस टी में चीनी काफ़ी होती है, इसलिए इसे पीने का कोई फ़ायदा नहीं है।

चाय के फ़ायदे

[[चित्र:Tea-Factory-1.jpg|thumb|250px|ऊटी के एक कारखाने में चाय सूखने की प्रक्रिया]]

  • चाय में कैफ़ीन और टैनिन होते हैं, जो उत्तेजक औषधि होते हैं। इनसे शरीर में फुर्ती का अहसास होता है।
  • चाय में मौजूद एल-थियेनाइन नामक अमीनो-एसिड दिमाग़ को ज़्यादा सक्रिय लेकिन शांत रखता है।
  • चाय में एंटीजन होते हैं, जो इसे एंटी-बैक्टीरियल क्षमता प्रदान करते हैं।
  • इसमें मौजूद एंटी-ऑक्सिडेंट तत्व शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कई बीमारियों से बचाव करते हैं।
  • चाय में फ्लोराइड होता है, जो हड्डियों को मज़बूत करता है और दांतों में कीड़ा लगने से रोकता है।

चाय के नुक़सान

  • दिन भर में तीन कप से ज़्यादा पीने से एसिडिटी हो सकती है।
  • लौह तत्त्वों को अवशोषित करने की शरीर की क्षमता को कम कर देती है।
  • कैफ़ीन होने के कारण चाय पीने की लत लग सकती है।
  • ज़्यादा पीने से खुश्की आ सकती है।
  • पाचन में दिक्कत हो सकती है।
  • दांतों पर दाग़ आ सकते हैं लेकिन कॉफ़ी से ज़्यादा दाग़ आते हैं।
  • देर रात पीने से नींद न आने की समस्या हो सकती है।

चाय की महत्ता

thumb|चाय|180px

चाय की औषधीय महत्ता

चाय को कैंसर, हाई कॉलेस्ट्रॉल, एलर्जी, यकृत और दिल की बीमारियों में फ़ायदेमंद माना जाता है। कई शोध कहते हैं कि चाय कैंसर व ऑर्थराइटस (जोड़ों का दर्द) की रोकथाम में भूमिका निभाती है और बैड कॉलेस्ट्रॉल (एल. डी. एल.) को नियंत्रित करती है। साथ ही, हृदय और यकृत संबंधी समस्याओं को भी कम करती है।

चाय के गुण

  • चाय की पत्तियों के पानी को गुलाब के पौधे की जड़ों में डालना चाहिए।
  • चाय की पत्तियों को पानी में उबाल कर बाल धोने से चमक आ जाती है।
  • एक लीटर उबले पानी में पांच चाय के बैग डालें और पांच मिनट के लिए छोड़ दें। इसमें थोड़ी देर के लिए पैर डालकर बैठे रहें। पैरों को काफ़ी राहत मिलती है।
  • चाय के दो बैग को ठंडे पानी में डुबोकर निचोड़ लें। फिर दोनों आंखों को बंद कर लें और उनके ऊपर टी बैग्स रखकर कुछ देर के लिए शांति से लेट जाएं। इससे आंखों की सूजन और थकान उतर जाएगी।
  • शरीर के किसी भाग में सूजन हो जाए तो उस पर गर्म पानी में भिगोकर चाय के बैग रखें। इससे दर्द कम होगा और रक्त परिसंचरण सामान्य हो जाएगा।
  • गर्म पानी में भीगे हुए चाय के बैग को रखने से दांत के दर्द में तुरंत आराम मिलता है।

चाय बनाने का सही तरीक़ा

ताज़ा पानी लें। उसे एक उबाल आने तक उबालें। पानी को आधे मिनट से ज़्यादा नहीं उबालें। एक सूखे बर्तन में चाय पत्ती डालें। इसके बाद बर्तन में पानी उड़ेल दें। पांच-सात मिनट के लिए बर्तन को ढक दें। इसके बाद कप में छान लें। स्वाद के मुताबिक दूध और चीनी मिलाएं। एक कप चाय बनाने के लिए आधा चम्मच चाय पत्ती काफ़ी होती है। चाय पत्ती, दूध और चीनी को एक साथ उबालकर चाय बनाने का तरीक़ा सही नहीं है। इससे चाय के सारे फ़ायदे खत्म हो जाते हैं। इससे चाय काफ़ी कड़क भी हो जाती है और उसमें कड़वापन आ जाता है।

यह भी जानें

thumb|250px|कुल्ह‌ड़ में चाय

कब पिएं

यूं तो चाय कभी भी पी सकते हैं लेकिन सोने से ठीक पहले चाय पीने से बचना चाहिए। दरअसल, रात को सोने और आराम करने से आंत ताज़ा होती है। ऐसे में सुबह उठकर सबसे पहले चाय पीना सही नहीं है। देर रात में चाय पीने से नींद आने में दिक्कत हो सकती है।

साथ में क्या खाएं
  • जिन लोगों को एसिडिटी की दिक्कत है, उन्हें ख़ाली चाय नहीं पीनी चाहिए। साथ में एक-दो बिस्कुट लें।
  • हरी चाय आयुर्वेदिक पेय है, इसलिए इसे ख़ाली ही पीना बेहतर है। साथ में कुछ न खाएं तो इसका गुणकारी असर ज़्यादा होता है।
कितने कप पिएं

बिना दूध और चीनी की आयुर्वेदिक चाय तो कितनी बार भी पी सकते हैं। लेकिन दूध-चीनी डालकर और सभी चीज़ें एक साथ उबालकर बनाई गई चाय तीन कप से ज़्यादा नहीं पीनी चाहिए।

कितनी गर्म पिएं

चाय को कप में डालने के 2-3 मिनट बाद पीना ठीक रहता है। वैसे जीभ खुद एक संवेदी अंग है। चाय के ज़्यादा गर्म होने पर उसमें जलन हो जाती है और हमें पता चल जाता है कि चाय ज़्यादा गर्म है।

रखी हुई चाय न पिएं

चाय ताज़ा बनाकर ही पीनी चाहिए। आधे घंटे से ज़्यादा रखी हुई चाय को ठंडा या दोबारा गर्म करके नहीं पीना चाहिए। इसी तरह एक ही पत्ती को बार-बार उबालकर पीना और भी नुक़सानदेह है। अक्सर ढाबों और गली-मुहल्ले की चाय की दुकानों पर चाय बनाने वाले बर्तन में पुरानी ही पत्ती में और पत्ती डालकर चाय बनाई जाती है। इससे चाय में नुक़सानदायक तत्त्व बनने लगते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चाय की खेती कब, कहाँ और कैसे? (हिन्दी) (एच टी एम एल) बीबीसी हिन्दी। अभिगमन तिथि: 24 जनवरी, 2011

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