अप्सरा का शाप: Difference between revisions
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Revision as of 10:56, 23 December 2012
स्वातन्त्रयोत्तर भारत के शिखरस्थ लेखकों में प्रमुख, यशपाल ने अपने प्रत्येक उपन्यास को पाठक के मन-रंजन से हटाकर उसकी वैचारिक समृद्धि को लक्षित किया है। विचारधारा से उनकी प्रतिबद्धता ने उनकी रचनात्मकता को हर बार एक नया आयाम दिया, और उनकी हर रचना एक नए तेवर के साथ सामने आई।
पौराणिक आख्यान
‘अप्सरा का शाप’ में उन्होंने दुष्यन्त-शकुन्तला के पौराणिक आख्यान को आधुनिक संवेदना और तर्कणा के आधार पर पुनराख्यायित किया है। यशपाल के शब्दों में -
"शकुन्तला की कथा पतिव्रत धर्म में निष्ठा की पौराणिक कथा है। महाभारत के प्रणेता तथा कालिदास ने उस कथा का उपयोग अपने-अपने समय की भावनाओं, मान्यताओं तथा प्रयोजनों के अनुसार किया है। उन्हीं के अनुकरण में ‘अप्सरा का शाप’ के लेखक ने भी अपने युग की भावना तथा दृष्टि के अनुसार शकुन्तला के अनुभवों की कल्पना की है।’’
केंद्रीय कथावस्तु
उपन्यास की केन्द्रीय वस्तु दुष्यन्त का शकुन्तला से अपने प्रेम सम्बन्ध को भूल जाना है, इसी को अपने नजरिए से देखते हुए लेखक ने इस उपन्यास में नायक ‘दुष्यन्त’ की पुनर्स्थापना की है और बताया है कि नायक ने जो किया, उसके आधार पर आज के युग में उसे धीरोदत्त की पदवी नहीं दी जा सकती।[1]
इस देश को 'भारत' नाम महाराज भरत के प्रताप से मिला है। प्रतापी भरत की माता सती शकुन्तला महाराज दुष्यंत की रानी थी। शकुन्तला राजर्षि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की सन्तान थी। भरत की माता शकुन्तला के जन्म तथा जीवन के प्रसंग पुराणों, महाभारत तथा प्राचीन काव्यों में यत्र-तत्र मिलते हैं परन्तु ये वर्णन स्फुट हैं। शकुन्तला के जीवन-वृत्तान्त के अनेक व्यौरे ऐसे थे, जिनका महत्व सम्भवतः तत्कालीन समाज की दृष्टि में विशेष नहीं था। अतः उस समय के इतिहासकारों और कवियों ने भी उन घटनाओं का वर्णन नहीं किया है। आधुनिक समाज की परिस्थितियों, समस्याओं और चिन्तन की दृष्टि से शकुन्तला के जीवन के, तत्कालीन लेखकों द्वारा उपेक्षित अनुभवों पर भी विचार करना उपयोगी होगा।
पौराणिक वर्णन के अनुसार शकुन्तला की माता मेनका इस लोक की नारी नहीं, देवलोक की अप्सरा थी। एक समय देवताओं पर विकट संकट आ गया था। उस संकट का उपाय करने के लिये देवराज इन्द्र ने मेनका को कुछ समय के लिये नारी शरीर धारण कर मर्त्यलोक में रहने का आदेश दिया था। उस प्रसंग का उल्लेख इस प्रकार है-
महर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करना चाहते थे। विश्वामित्र ने ब्रह्मत्व के अधिकार और पद को पाने के लिये घोर तप किया। ब्राह्मणों और देवताओं ने विश्वामित्र के तप की श्लाघा से उन्हें महर्षि से ऊँचा, राजर्षि पद देना स्वीकार कर लिया, परन्तु विश्वामित्र के क्षत्रिय कुलोद्भव होने के कारण देवताओं और ब्राह्मणों ने उन्हें समाज के विधायक ब्रह्मर्षि का पद देना स्वीकार न किया।[1]
विश्वामित्र देवताओं और ब्राह्मणों की व्यवस्था और शासन में ब्राह्मणों के प्रति पक्षपात देखकर देवताओं की सृष्टि और ब्राह्मणों की व्यवस्था से असंतुष्ट हो गये। उन्होंने ब्रह्मर्षि पद प्राप्त करने की प्रतिज्ञा पूरी करने के लिये देवताओं और ब्राह्मणों द्वारा नियंत्रित तथा शासित सृष्टि और व्यवस्था की प्रतिद्वन्द्विता में नयी सृष्टि तथा नयी व्यवस्था की रचना का निश्चय कर लिया। देवताओं और ब्राह्मणों ने सृष्टि की व्यवस्था पर अपने अधिकार के प्रति विश्वामित्र की इस चुनौती को क्षुद्र मानव का क्षुब्ध अहंकार ही समझा, परन्तु विश्वामित्र दृढ़ निश्चय से नयी सृष्टि की व्यवस्था की रचना के लिये तप में लग गये।
भाषा शैली
अनसूया क्षोभ से अधीर हो, परन्तु विनय से अंजलि-बद्ध हो बोली- "महाराज, विशालमति नीतिज्ञों की ऐसा विस्मृति से तो माया का भ्रम होता है। हम तीनों अल्पमति जो महाराज के रूप में, मुद्रा, कंठस्वर, सब कुछ पहचान रहे हैं और महाराज को, आश्रम कन्या के प्रति अनुराग की अधीरता में कूप से स्वयं जल कलश खींचकर वाटिका सींचने की इच्छा, शकुन्तला के स्नेह के लिए आश्रम के पोष्य कुरंग से स्पर्धा, शकुन्तला के पाणिग्रहण की इच्छा से माता गौतमी के सम्मुख प्रार्थना, शकुन्तला के गर्भ से अपने पुत्र को राज्य का उत्तराधिकार देने की प्रतिज्ञा, इसके साथ अनेक दिवा-रात्रि का सहवास, इसे सम्मानपूर्वक राज प्रासाद में बुला लेने का आश्वासन, सब कुछ विस्मृत हो गया !"[1]
दुष्यन्त भृकुटी उठाकर विचार में मौन रहा और उसने अनुसूया से प्रश्न किया- "देवी का क्या अभिप्राय है ? देवी किस प्रसंग का संकेत कर रही हैं !"
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 अप्सरा का शाप (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 23 दिसम्बर, 2012।
बाहरी कड़ियाँ
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