चन्देरी वस्त्र उद्योग: Difference between revisions
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अपनी बहुमूल्य और विश्व प्रसिद्ध साड़ियों के लिए भी चन्देरी वस्त्र उद्योग जाना जाता है। पूर्व में दो बुनकरों द्वारा हस्तचलित थ्रो शटल पद्धति वाले नालफेरमा करघे का स्थान अब फ्लाई शटल पद्धति वाले लूम ने ले लिया है, जिसमें एक ही बुनकर अपने हाथ व पैरों से करघे को संचालित करता है। इस प्रकार पूर्व में जहाँ पुरानी थ्रो शटल पद्धति में एक ही करघे पर दो बुनकरों को लगाया जाता था, वहीं फ्लाई शटल पद्धति से अकेला बुनकर करघे को संचालित करने लगा। साथ ही नई प्रणाली में जैकार्ड एवं डाबी के उपयोग से [[साड़ी]] के बार्डर भी आसानी से बनाये जाने लगे। चन्देरी साड़ियों में [[रंग|रंगों]] का प्रयोग 50 वर्ष से ज्यादा पुराना नहीं है। पूर्व में [[चन्देरी साड़ी|चन्देरी साड़ियाँ]] केवल बिना रंगों वाली सूत से तैयार की जाती थी। धीरे-धीरे साड़ी के सफेद बेस पर रंगीन बार्डर बनाया जाने लगा। प्रारंभ में [[फूल|फूलों]] से प्राप्त प्राकृतिक रंगों का ही इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें केवल बुने कपड़े ही रंगे जाते थे। आज अधिकांश बुनकर बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए पक्के रासायनिक रंगों का प्रयोग कर रहे हैं। विश्व प्रसिद्ध चन्देरी साड़ियाँ आज भी हथकरघे पर बुनी जाती हैं, जिनका अपना ही एक समृद्धशाली इतिहास रहा है। लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि चन्देरी हथकरघा वस्त्रोद्योग को बुलंदियों तक पहुँचाने वाले बुनकर कलाकार आज आर्थिक विसंगतियों का दंश झेल रहे हैं। | अपनी बहुमूल्य और विश्व प्रसिद्ध साड़ियों के लिए भी चन्देरी वस्त्र उद्योग जाना जाता है। पूर्व में दो बुनकरों द्वारा हस्तचलित थ्रो शटल पद्धति वाले नालफेरमा करघे का स्थान अब फ्लाई शटल पद्धति वाले लूम ने ले लिया है, जिसमें एक ही बुनकर अपने हाथ व पैरों से करघे को संचालित करता है। इस प्रकार पूर्व में जहाँ पुरानी थ्रो शटल पद्धति में एक ही करघे पर दो बुनकरों को लगाया जाता था, वहीं फ्लाई शटल पद्धति से अकेला बुनकर करघे को संचालित करने लगा। साथ ही नई प्रणाली में जैकार्ड एवं डाबी के उपयोग से [[साड़ी]] के बार्डर भी आसानी से बनाये जाने लगे। चन्देरी साड़ियों में [[रंग|रंगों]] का प्रयोग 50 वर्ष से ज्यादा पुराना नहीं है। पूर्व में [[चन्देरी साड़ी|चन्देरी साड़ियाँ]] केवल बिना रंगों वाली सूत से तैयार की जाती थी। धीरे-धीरे साड़ी के सफेद बेस पर रंगीन बार्डर बनाया जाने लगा। प्रारंभ में [[फूल|फूलों]] से प्राप्त प्राकृतिक रंगों का ही इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें केवल बुने कपड़े ही रंगे जाते थे। आज अधिकांश बुनकर बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए पक्के रासायनिक रंगों का प्रयोग कर रहे हैं। विश्व प्रसिद्ध चन्देरी साड़ियाँ आज भी हथकरघे पर बुनी जाती हैं, जिनका अपना ही एक समृद्धशाली इतिहास रहा है। लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि चन्देरी हथकरघा वस्त्रोद्योग को बुलंदियों तक पहुँचाने वाले बुनकर कलाकार आज आर्थिक विसंगतियों का दंश झेल रहे हैं। | ||
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वर्ष [[2008]]-[[2009]] में किए गये सरकारी सर्वे के अनुसार [[चन्देरी]] में सहकारी व गैर सहकारी क्षेत्रों में हथकरघों की संख्या 3924 थी, जिनमें से 3572 करघे चालू अवस्था में पाये गये थे। इन करघों से लगभग 10716 लोगों को | वर्ष [[2008]]-[[2009]] में किए गये सरकारी सर्वे के अनुसार [[चन्देरी]] में सहकारी व गैर सहकारी क्षेत्रों में हथकरघों की संख्या 3924 थी, जिनमें से 3572 करघे चालू अवस्था में पाये गये थे। इन करघों से लगभग 10716 लोगों को रोज़गार प्राप्त हुआ है। चन्देरी में हथकरघा वस्त्रोद्योग के क्षेत्र में कार्य कर रहे स्वसहायता समूहों, सहकारी समितियों, स्वयं सेवी संगठनों की संख्या 93 है, जिनमें 56 मास्टर बुनकर हैं। तब इस व्यवसाय की वार्षिक सकल आय 22 करोड़ [[रुपया|रुपये]] आंकी गई थी। योजना आयोग की अनुशंसा पर भारत सरकार ने चन्देरी हथकरघा वस्त्रोद्योग के विकास हेतु लगभग पच्चीस करोड़ रूपये की परियोजना को मंजूरी दी। इस परियोजना के तहत [[मध्य प्रदेश]] की सरकार ने 4.19 हेक्टेयर भूमि प्रदान की है। | ||
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Revision as of 13:56, 29 January 2013
चन्देरी ग्वालियर, मध्य प्रदेश में स्थित है। यहाँ का पारम्परिक वस्त्रोद्योग काफ़ी पुराना है। प्राचीन काल से ही राजाश्रय मिलने के कारण यहाँ का वस्त्र राजसी लिबास माना जाता रहा है। राजा महाराजा, नवाब, अमीर, जागीरदार व दरबारी चन्देरी के वस्त्र पहन कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते थे। मुग़लकालीन मआसिरे 'आलमगीरी' के अनुसार 13वीं-14वीं ईसवी में चन्देरी का परम्परागत हथकरघा वस्त्रोद्योग अपने चरम पर था। तब वहाँ गुणवत्ता की दृष्टि से उच्च श्रेणी के सूती कपड़े बुने जाते थे। सन 1857 में सैनिक अधिकारी रहे आर.सी. स्टर्नडैल ने चन्देरी के वस्त्रों का बखान करते हुए लिखा है कि "चन्देरी में बहुत ही उम्दा किस्म की महीन और नफीस मलमल तैयार की जाती थी, जिसमें 250 से 300 काउण्ट्स के धागों से बुनाई होती थी, जिसकी तुलना ढाका की मलमल से की जाती थी।"
इतिहास
एक जनश्रुति के अनुसार मुस्लिम संत निज़ामुद्दीन औलिया ने अपने कुछ बंगाली मुरीदों को जो कुशल बुनकर थे, अलाउद्दीन ख़िलज़ी के प्रकोप से बचाने के लिए चन्देरी भेज दिया था। बाद में उनमें से कई अपने वतन लौट गये, लेकिन जो बचे, वे यहीं वस्त्र उद्योग में लग गये और ढाका जैसी मलमल बनाने लगे। सोने की ज़रदोजी के काम की वजह से चन्देरी की साड़ियाँ अन्य क्षेत्र की साड़ियों से श्रेष्ठ मानी जाती थीं। इन पर मोहक मीनाकारी व अड्डेदार पटेला[1] का काम भी किया जाता था। वस्त्रों में रेशम, कतान, सूत, मर्सराइज्ड, विभिन्न रंगों की जरी एवं चमकीले तार का प्रयोग किया जाता था।
प्राचीन काल में चन्देरी वस्त्रों का उपयोग साड़ी, साफे दुपट्टे, लुगड़ा, दुदामि, पर्दे व हाथी के हौदों के पर्दे आदि बनाने में किया जाता था, जिसमें अमूमन मुस्लिम मोमिन व कतिया और हिन्दू कोरी बुनाई के दक्ष कारीगर थे। उन्हें यह कला विरासत में मिली थी। धागों की कताई रंगाई से लेकर साड़ियों की बुनाई का कार्य वे स्वयं करते थे। चन्देरी अपने नाजुक व पारदर्शी वस्त्रों के विख्यात है। कहा जाता है कि एक बार चन्देरी से मुग़ल बादशाह अकबर को बाँस के खोल में बंद कपड़ा भेजा गया था। उस कपड़े को जब बाँस के खोल से बाहर निकाला गया तो उससे पूरा एक हाथी ही ढंक गया। बुंदेला शासक तो पगड़ियाँ भी चन्देरी में बने कपड़े की ही धारण करते थे। उनके शासन काल में पारम्परिक चन्देरी वस्त्रों की गुणवत्ता की परख उस पर लगी शाही मुहर, जिसमें ताज एवं ताज के दोनों ओर खड़े शेर अंकित होते थे, से की जाती थी। कालांतर में चन्देरी वस्त्रों पर बादल महल दरवाज़े की मुहर लगाई जाने लगी। बुनकरों की कला का जादू प्राचीन काल से लेकर आज तक धनाढय व उच्च मध्यम वर्ग के हृदय पर भी राज कर रहा है। भारत में चन्देरी वस्त्रों की अपनी विशिष्ट पहचान रही है। 'अशर्फी बूटी' के नाम से विख्यात चन्देरी वस्त्रों की देश ही नहीं, विदेशों में भी धूम है।
हथकरघा व्यवसाय
चन्देरी मूलत: बुनकरों की नगरी है। यह विंध्याचल की पहाड़ियों के मध्य बेतवा नदी के किनारे बसा छोटा सा शहर है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार यहाँ की आबादी का साठ प्रतिशत हथकरघे के बुनकर व्यवसाय से जुड़ा है। चन्देरी में अब नए मैकेनिकल तेजी से बुनाई करने वाले लूम प्रचलन में आ चुके हैं। परिवर्तन के इस दौर में बुनाई के तौर-तरीकों, औजारों, तकनीक एवं सूत के संयोजन में बहुत बदलाव आया है। सन 1890 तक चन्देरी वस्त्र उद्योग में हाथ कते सूत का उपयोग होता था। अब मजबूती की दृष्टि से मिल के धागों ने इसका स्थान ले लिया है। सिंधिया शासकों द्वारा चन्देरी के बुनकरों को आर्थिक सुदृढ़ता प्रदान करने हेतु सन 1910 में टेक्सटाइल ट्रेनिंग सेंटर स्थापित कर चन्देरी की कला को संरक्षित करने का प्रयास किया गया था। वर्ष 1925 में सर्वप्रथम नवीन तकनीक के माध्यम से बार्डर के साथ-साथ जरी का उपयोग बूटी बनाने में किया जाने लगा। 1940 में पहली बार सूत की जगह रेशम का उपयोग शुरू हुआ था।
चन्देरी साड़ी
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अपनी बहुमूल्य और विश्व प्रसिद्ध साड़ियों के लिए भी चन्देरी वस्त्र उद्योग जाना जाता है। पूर्व में दो बुनकरों द्वारा हस्तचलित थ्रो शटल पद्धति वाले नालफेरमा करघे का स्थान अब फ्लाई शटल पद्धति वाले लूम ने ले लिया है, जिसमें एक ही बुनकर अपने हाथ व पैरों से करघे को संचालित करता है। इस प्रकार पूर्व में जहाँ पुरानी थ्रो शटल पद्धति में एक ही करघे पर दो बुनकरों को लगाया जाता था, वहीं फ्लाई शटल पद्धति से अकेला बुनकर करघे को संचालित करने लगा। साथ ही नई प्रणाली में जैकार्ड एवं डाबी के उपयोग से साड़ी के बार्डर भी आसानी से बनाये जाने लगे। चन्देरी साड़ियों में रंगों का प्रयोग 50 वर्ष से ज्यादा पुराना नहीं है। पूर्व में चन्देरी साड़ियाँ केवल बिना रंगों वाली सूत से तैयार की जाती थी। धीरे-धीरे साड़ी के सफेद बेस पर रंगीन बार्डर बनाया जाने लगा। प्रारंभ में फूलों से प्राप्त प्राकृतिक रंगों का ही इस्तेमाल किया जाता था, जिसमें केवल बुने कपड़े ही रंगे जाते थे। आज अधिकांश बुनकर बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए पक्के रासायनिक रंगों का प्रयोग कर रहे हैं। विश्व प्रसिद्ध चन्देरी साड़ियाँ आज भी हथकरघे पर बुनी जाती हैं, जिनका अपना ही एक समृद्धशाली इतिहास रहा है। लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि चन्देरी हथकरघा वस्त्रोद्योग को बुलंदियों तक पहुँचाने वाले बुनकर कलाकार आज आर्थिक विसंगतियों का दंश झेल रहे हैं।
सरकारी सहायता
वर्ष 2008-2009 में किए गये सरकारी सर्वे के अनुसार चन्देरी में सहकारी व गैर सहकारी क्षेत्रों में हथकरघों की संख्या 3924 थी, जिनमें से 3572 करघे चालू अवस्था में पाये गये थे। इन करघों से लगभग 10716 लोगों को रोज़गार प्राप्त हुआ है। चन्देरी में हथकरघा वस्त्रोद्योग के क्षेत्र में कार्य कर रहे स्वसहायता समूहों, सहकारी समितियों, स्वयं सेवी संगठनों की संख्या 93 है, जिनमें 56 मास्टर बुनकर हैं। तब इस व्यवसाय की वार्षिक सकल आय 22 करोड़ रुपये आंकी गई थी। योजना आयोग की अनुशंसा पर भारत सरकार ने चन्देरी हथकरघा वस्त्रोद्योग के विकास हेतु लगभग पच्चीस करोड़ रूपये की परियोजना को मंजूरी दी। इस परियोजना के तहत मध्य प्रदेश की सरकार ने 4.19 हेक्टेयर भूमि प्रदान की है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अलंकृत कटवर्क