थंग-का: Difference between revisions

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Revision as of 07:18, 27 December 2014

थंग-का
विवरण 'थंग-का' तिब्बत की एक प्रकार की प्रसिद्ध चित्रकला है। इस चित्रकला में तिब्बत के प्राचीन ग्रंथों में लिखे नियमों के अनुसार चित्रों को बनाया जाता है।
अन्य नाम 'थांका'
सम्बंधित धर्म तिब्बती बौद्ध धर्म
प्रचलन समय लगभग 10वीं सदी
महत्त्व 'महायान' और 'बज्रयान' बौद्ध धर्म मै थांका का बहुत बड़ा स्थान है। इस चित्रकला के बिना कोई भी 'गुम्बा' या अन्य धार्मिक स्थल अधूरा होता है।
संबंधित लेख तिब्बती बौद्ध धर्म, तिब्बत का पठार
अन्य जानकारी आमतौर पर थांका आयताकार होते हैं, हालांकि पहले ये चौकोर होते थे। एक सांचे पर मलमल या लिनन के पकड़े को कसकर उस पर पानी में बुझे चूने और जानवर से प्राप्त गोंद का मिश्रण लगाकर तैयार किया जाता है।

थंग-का एक प्रकार की तिब्बती चित्रकला है। सामान्यत: सूती कपड़े पर तिब्बती धार्मिक चित्र या रेखाचित्र को थंग-का कहते हैं। इसके निचले किनारे पर बाँस की छड़ी चिपकी होती है, जिसके सहारे इसे लपेटा जाता है। थंग-का एक तिब्बती शब्द है, जिसका अर्थ है- "लपेटी हुई कोई वस्तु"। इसे 'थांका' भी कहा जाता है। 'महायान' और 'बज्रयान' बौद्ध धर्म मै थांका का बहुत बड़ा स्थान है। इस चित्रकला के बिना कोई भी 'गुम्बा' या अन्य धार्मिक स्थल अधूरा होता है।

महत्त्व

'थांका' मूल रूप से ध्यान का साधन है, हालांकि इसे मंदिरों या पारिवारिक वेदिकाओं पर लटकाया और धार्मिक शोभा यात्रा में ले जाया जा सकता है या प्रवचनों की व्याख्या के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। थांका बनाना स्वच्छंद कला नहीं है, बल्कि ये धर्मशास्त्रीय नियमों के अनुसार चित्रित किए जाते हैं। इनकी विषय-वस्तु तिब्बती धर्म को समझने में बहुत सहायक है।[1]

चित्रण

थांकों में सामान्यत: बौद्ध देवताओं एवं लामाओं से घिरे बुद्ध और उनके जीवन के दृश्यों; ब्रह्मांडीय वृक्ष की शाखाओं पर एकत्रित देवतागण; जीवन चक्र (संस्कृत भव-चक्र), पुनर्जन्म के विभिन्न जगतों के प्रदर्शन सहित; वे मानस-चित्र, जिनका घटित होना मृत्यु एवं पुनर्जन्म के बीच की स्थिति (बार-दो) के दौरान माना जाता है; ब्रह्मांड के प्रतीकात्मक चित्रण, मंडल; जन्मपत्रियां और दलाई एवं पंचेन लामाओं, संत तथा महागुरु, जैसे 84 महासिद्धों का चित्रण होता है।

आमतौर पर थांका आयताकार होते हैं, हालांकि पहले ये चौकोर होते थे। एक सांचे पर मलमल या लिनन के पकड़े को कसकर उस पर पानी में बुझे चूने और जानवर से प्राप्त गोंद का मिश्रण लगाकर तैयार किया जाता है। तब उस मोटी और सूखी परत को सीपी से रगड़कर चिकना एवं चमकीला बनाया जाता है। चित्रों की रूपरेखा लकड़ी के कोयले से खींची जाती है[2] और तब रंगों, सामान्यत: खनिज चूना एवं लासे का मिश्रण, से भरा जाता है। प्रमुख प्रयुक्त रंग है सफ़ेद, लाल, सांखिया पीला, कासीस हरा, किरमिजी सिंदूरी, लाजवर्द नीला और नील। सुनहरा रंग पृष्ठभूमि और आभूषणों में लगाया जाता है। चित्र को नक़्क़ाशीदार रेशमी किनारों में मढ़ा जाता है। कभी-कभी पतला रेशमी पर्दा भी लगा होता है। निचले नक़्क़ाशीदार किनारे पर रेशम का एक टुकदा अवश्य टंका होता है, जिसे 'थांका द्वार' कहा जाता है तथा जो आदि रचयिताओं या संपूर्ण रचना के स्त्रोत का प्रतिनिधित्व करता है। सामान्यत: लामाओं की निगरानी में आम आदमी चित्र बनाते हैं, लेकिन लामा द्वारा प्रतिष्ठित न किए जाने तक इनका कोई धार्मिक महत्त्व नहीं होता है।[1]

विकास

थांका भारतीय वस्त्र चित्रकारी (पट्ट), प्रत्येक अनुष्ठान के लिए मूल रूप में भूमि पर बनाए मंडलों तथा कथा वाचकों द्वारा प्रयुक्त पट-चित्रों से विकसित हुआ है। इसकी चित्रकला ने मध्य एशियाई, नेपाली एवं कश्मीरी शैलियों तथा भू-दृश्यों के लिए चीनी शैली से प्रेरणा ली है। थांका पर हस्ताक्षर नहीं किए जाते तथा ये यदा-कदा ही कालांकित किए गए हैं, लेकिन इतना अवश्य है कि ये लगभग 10वीं सदी में प्रचलन में आए। विषय-वस्तु, भंगिमाओं और प्रतीकों में परंपरा के प्रति निष्ठा के कारण सटीक कालानुक्रम तैयार करना कठिन है।

बढ़ती माँग

thumb|250px|तिब्बती थांगा चित्रकला धर्मशाला के साथ लगते गांव सिद्धबाड़ी नोरवलिंगा तिब्बतियन संग्रहालय में प्राचीन तिब्बत की धार्मिक कला को चित्रकारी के माध्यम से जीवित रखा जा रहा है। यहां पर बनाई जाने वाली थांका चित्रकला विदेशी पर्यटकों को खूब पसंद आ रही हैं। तिब्बत के प्राचीन ग्रंथों में लिखे नियमों के अनुसार इन पेंटिंग्स को बनाया जाता है। यह पेंटिंग्स 20 से 30 हज़ार रुपए में बेची जाती हैं। चित्रकला से जुड़े और सिद्धबाड़ी में रहने वाले तेंजिन, छेरिंग, सोनम और डोलमा ने बताया कि एक अच्छी पेंटिंग को बनाने में एक से दो सप्ताह का समय लगता है। इन पेंटिंग्स की मांग तिब्बत और यूरोपियन देशों में अधिक है, जिसकी वजह से वह इस कला के प्रति और समर्पित होकर कार्य कर रहे हैं। इस चित्रकला से जुड़े लोग इसे रोजगार के रूप में अपनाकर अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार रहे हैं। धर्मशाला के साथ सिद्धबाड़ी नोरवलिंगा में तिब्बतियन संग्रहालय में भी तिब्बती धर्म से जुड़ी इन पेंटिंग्स को रखा गया है। तिब्बती पेंटिंग्स के प्रचार-प्रसार में भी यह संग्रहालय अपनी खास भूमिका निभा रहा है। पेंटिंग कला को सिखाने के लिए बच्चों के लिए स्कूल भी चलाया जा रहा है, जहां बच्चों को कला की बारीकियां सिखाई जाती हैं।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 भारत ज्ञानकोश, खण्ड-2 |लेखक: इंदू रामचंदानी |प्रकाशक: एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 401 |
  2. आजकल उन्हें अक्सर मुद्रीत किया जाता है।
  3. विदेशों में बढ़ रही थांगा पेटिंग्स की माँग (हिन्दी) दैनिक न्याय सेतु। अभिगमन तिथि: 26 दिसम्बर, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख