भाषाविज्ञान: Difference between revisions

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*[ प्रोफेसर महावीर सरन जैन: वाग्यंत्र अथवा वागवयव अथवा ध्वनि-यंत्र http://www.rachanakar.org/2015/08/blog-post_93.html]
* [http://www.rachanakar.org/2015/08/blog-post_93.html वाग्यंत्र अथवा वागवयव अथवा ध्वनि-यंत्र]
*[http://www.rachanakar.org/2015/02/blog-post_60.html#ixzz3SUxQJnM भाषा-संरचना – वर्णानात्मक भाषाविज्ञान एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान ]
* [http://www.rachanakar.org/2015/02/blog-post_60.html#ixzz3SUxQJnM भाषा-संरचना – वर्णानात्मक भाषाविज्ञान एवं संरचनात्मक भाषाविज्ञान]
*[http://www.rachanakar.org/2015/03/functional-linguistics-sfl.html#ixzz3U41DdhAX प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (Functional Linguistics) ]
* [http://www.rachanakar.org/2015/03/functional-linguistics-sfl.html#ixzz3U41DdhAX प्रकार्यात्मक भाषाविज्ञान (Functional Linguistics)]


==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==

Revision as of 06:15, 23 August 2015

भाषाविज्ञान भाषा के अध्ययन की वह शाखा है जिसमें भाषा की उत्पत्ति, स्वरूप, विकास आदि का वैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाता है। भाषाविज्ञान के अध्ययेता 'भाषाविज्ञानी' कहलाते हैं। भाषाविज्ञान संभंधित आरंभिक गतिविधियों में पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' का प्रमुख रूप से उल्लेख किया जाता है। भाषाविज्ञान, व्याकरण से भिन्न है। व्याकरण में किसी भाषा का कार्यात्मक अध्ययन (functional description) किया जाता है जबकि भाषाविज्ञानी इसके आगे जाकर भाषा का अत्यन्त व्यापक अध्ययन करता है। अध्ययन के अनेक विषयों में से आजकल भाषा-विज्ञान को विशेष महत्त्व दिया जा रहा है।

भाषाविज्ञान का इतिहास

प्राचीन एवं मध्यकाल

भारत की तुलना में यूरोप में भाषाविषयक अध्ययन बहुत देर से प्रारंभ हुआ और उसमें वह पूर्णता और गंभीरता न थी जो हमारे शिक्षाग्रंथों, प्रातिशाख्यों और पाणिनीय व्याकरण में थी। पश्चिमी दुनिया के लिये भाषाविषयक प्राचीनतम उल्लेख ओल्ड टेस्टामेंट में बुक ऑव जेनिसिस (Book of Genesis) के दूसरे अध्याय में पशुओं के नामकरण के संबंध में मिलता है। यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस (पाँचवी शताब्दी ई. पू.) ने मिस्र के राजा संमेतिकॉस (Psammetichos) द्वारा संसार की भाषा ज्ञात करने के लिये दो नवजात शिशुओं पर प्रयोग करने का उल्लेख किया है। यूनान में प्राचीनतम भाषावैज्ञानिक विवेचन प्लेटो (425-348 47 ई. पू.) के संवाद में मिलता है और यह मुख्यतया ऊहापोहात्मक है। अरस्तू (384-322,21 ई. पू.) पाश्चात्य भाषाविज्ञान के पिता कहे जाते हैं। उन्होंने भाषा की उत्पति और प्रकृति के संबंध में उपने गुरु प्लेटो से कुछ विरोधी विचार व्यक्त किए। उनके अनुसार भाषा समझौते (thesis) और परंपरा (Synthesis) का परिणाम है। अर्थात्‌ उन्होंने भाषा को यादृच्छिक कहा है। अरस्तू का यह मत आज भी सर्वमान्य है। गाय को 'गाय' इसलिये नहीं कहा जाता है कि इस शब्द से इस विशेष चौपाए जानवर का बोध होना अनिवार्य है, किंतु इसलिये कहा जाता है कि कभी उक्त पशु का बोध कराने के लिये इस शबद का यादृच्छिक प्रयोग कर लिया गया था, जिसे मान्यता मिल गई और जो परंपरा से चला आ रहा है उन्होंने 'संज्ञा', 'क्रिया', 'निपात' ये शब्दभेद किए।
यूनान में भाषा का अध्ययन केवल दार्शनिकों तक ही सीमित रहा। यूनानियों की दूसरी विशेषता यह थी कि उन्होंने अपनी भाषा के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं में कोई रुचि नहीं दिखाई। यह बात इस तथ्य से प्रमाणित होती है कि सिकंदर की सेनाओं ने यूनान से लेकर भारत की उत्तरी सीमा तक के विस्तृत प्रदेश को पदाक्रांत किया, किंतु उनके विवरणों में उन प्रदेशों की बोलियों का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। यूनान में कुछ भाषाविषयक कार्य भी हुए अरिस्तार्कस (Aristarchus) ने होमर की कविता की भाषा का विश्लेषण किया। अपोलोनिअस डिस्कोलस (Appollonios Dyskolos) ग्रीक वाक्यप्रक्रिया पर प्रकाश डाला। डिओनिसओस थ्रौक्स (Dionysios Thrax) ने एक प्रभावशाली व्याकरण लिखा। कुछ शब्दकोश ऐसे भी मिलते है जिनमें ग्रीक और लैटिन के अतिरिक्त एशिया माइनर में बोली जाने वाली भाषाओं के अनेक शब्दों का समावेश किया गया है। संक्षेप में यूनानियों ने भाषा को तत्वमीमांसा की दृष्टि से परखा। उनके द्वारा प्रस्तुत भाषाविश्लेषण को दार्शनिक व्याकरण की संज्ञा दी गई है। रोम वालों ने यूनानियों के अनुकरण पर व्याकरण और कोश बनाए। वारो (116-27 ई. पू.) ने 26 खंडों में लैटिन व्याकरण रचा। प्रिस्किअन (512-60) का 20 खंडोवाला लैटिन व्याकरण बहुत प्रसिद्ध है।

मध्य युग

मध्य युग में ईसाई मिशनरियों को औरोें की भाषाएँ सीखनी पड़ी। जनता को जनता की भाषा में उपदेश देना प्रचार के लिये अनिवार्य था। फलस्वरूप परभाषा सीखने की व्यावहारिक पद्धतियाँ निकलीं। मिशनरियों ने अनेक भाषाओं के व्याकरण तथा कोश बनाए। पर ग्रीक लैटिन व्याकरण के ढाँचों में रचे जाने के कारण ये अपूर्ण तथा उनुपयुक्त थे। उसी युग में सैनिकों और उपनिवेशों ने शासकीय वर्ग के लोगों ने स्थानीय भाषाओं का विश्लेषण शुरू किया। साथ ही व्यापार विस्तार के कारण अनेकानेक भाषाओं से यूरोपीयों का परिचय बढ़ा। 17वीं शताब्दी में (1647 में) फैंसिस लोडविक (Francis Lodwick) तथा रेवरेंड केव डेक (Rev. Cave Deck) जैसे विद्वानों ने 'ए कॉमन राइटिंग' तथा 'यूनिवर्सल कैरेक्टर' जैसे ग्रंथ लिखे थे, जिससे उनके स्वनविज्ञान के ज्ञान का परिचय मिलता है। लोडविक ने एक आशुलिपि का अविष्कार किया था, जो अंग्रेज़ी और डच दोनों के लिये 1650 ई. के लगभग व्यवहृत की गई थी। मध्यकाल में सभी ज्ञात भाषाओं के सर्वेक्षण का प्रयत्न हुआ। अतएव अनेक बहुभाषी कोश तथा बहुभाषी संग्रह निकले। 18वीं शताब्दी में पल्लास (P.S. Pallas) की विश्वभाषाओं की तुलनात्मक शब्दावली में 285 शब्द ऐसे हैं जो 272 भाषाओं में मिलते हैं। एडेलुंग (Adelung) की माइ्थ्रोडेटीज (Mithridates) में 500 भाषाओं में 'ईश प्रार्थना' है।

18वीं एवं 19वीं शती

इस प्रकार 18वीं शती के पूर्व भाषाविषयक प्रचुर सामग्री एकत्र हो चुकी थी। किंतु विश्लेषण तथा प्रस्तुतीकरण क पद्धतियाँ वही पुरानी थीं। इनमें सर्वप्रथम जर्मन विद्वान्‌ लाइबनित्स (Leibnitz) ने परिष्कार किया। इन्होंने ही संभवत: सर्वप्रथम यह बताया कि 'यूरेशियाई' भाषाओं का एक ही प्रागैतिहासिक उत्स है। इस प्रकार 18वीं शती में तुलात्मक ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की भूमिका बनी, जो 19वीं शती में जाकर विकसित हुई। संक्षेप में, 19वीं शताब्दी से पूर्व यूरोपीय भाषाओं का जो अध्ययन किया गया, वह भाषावैज्ञानिक की अपेक्षा तार्किक अधिक, रूपात्मक की अपेक्षा संकल्पनात्मक अधिक और वर्णनात्मक की अपेक्षा विध्यात्मा (Prescriptive) अधिक था। 19वीं शती (ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान) - उन्नीसवीं शती ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान का युग था इसके प्रारंभ का श्रेय संस्कृत भाषा से पाश्चात्यों के परिचय को है। तुलनात्मक भाषा विज्ञान का सूत्रपात एक प्रकार से उस समय हुआ जब 2 फ़रवरी, 1786 को सर विलियम जोंस ने कलकत्ते में यह घोषणा की कि संस्कृत भाषा की संरचना अद्भुत है, वह ग्रीक से अधिक पूर्ण, लैटिन से अधिक समृद्ध और दोनों से ही अधिक परिष्कृत है। फिर भी इसका दोनों से घनिष्ठ संबंध है। उन्होंने देखा कि संस्कृत की एक ओर ग्रीक और लैटिन तथा दूसरी और गॉथीक, केल्टी से इतनी अधिक समानता है कि निश्चय ही इन सब का एक ही स्त्रोत रहा होगा। यह पारिवारिक धारणा इस नए विज्ञान के मूल में है।
इस दिशा में पहला सुव्यवस्थित कार्य डेनमार्क वासी रास्क (1787-1832) का है। रास्क ने भाषाओं की समग्र संरचना की तुलना पर अधिक बल दिया और केवल शब्दावली साम्य आगत शब्दों के कारण भी हो सकता है। इन्होंने स्वनों के साम्य को भी पारिवारिक संबंध निर्धारण का महत्वपूर्ण अंग माना। इस धारणा को सुव्यवस्थित पुष्टि दी याकोव ग्रीम (1785-1863) ने, जिनके स्वन नियम भाषा विज्ञान में प्रसिद्ध हैं। इन स्वन नियमों में भारत यूरोपीय से प्राग्जर्मनीय में, तदनंतर उच्चजर्मनीय में होनेवाले व्यवस्थित व्यंजन स्वन परिवर्तनों की व्याख्या है। इसी बीच संस्कृत के अधिकाधिक परिचय से पारिवारिक तुलना का क्रम अधिकाधिक गहरा होता गया। बॉप (1791-1967) ने संस्कृत, अवेस्ता ग्रीक, लैटिन, लिथुएनी, गॉथिक, जर्मन, प्राचीन स्लाव केल्टी और अल्बानी भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण प्रकाशित किया। रास्क और ग्रिम ने स्वन परिवर्तनों पर प्रकाश डाला, बॉप ने मुख्यत: रूपप्रक्रिया का आधार ग्रहण किया।
रास्क, ग्रिम और बॉप के पश्चात्‌ मैक्समूलर (1823-1900) और श्लाइखर (1823-68) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मैक्सूमूलर की महत्वपूर्ण कृति 'लेसंस इन दि सायंस ऑव लैंग्वेज' (1861) है। श्लाइखर ने भारत-यूरोपीय परिवार की भाषाओं का एक सुव्यवस्थित सर्वागीण तुलनात्मक व्याकरण प्रस्तुत किया श्लाइखर ने तुलनात्मक भाषा विज्ञान के सैद्धांतिक पक्ष पर भी विशेष कार्य किया। इनके अनुसार यदि दो भाषाओं में समान परिवर्तन पाए जाते हैं, तो ये दोनों भाषाएँ किसी काल में एक साथ रही होंगी। इस प्रकार उन्होंने तुलनात्मक आधार पर आदिभाषा (Ursprache) की पुनर्रचना (Reconstruction) के लिये मार्ग प्रशस्त किया। पुनर्रचना के अतिरिक्त भाषाविज्ञान को इनकी एक और मुख्य देन भाषाओं का प्ररूपसूचक वर्गीकरण है। इन दिनों भाषाविज्ञान के क्षेत्र में आने वाली अमेरिकी विद्वानों में हिवटनी (1827-1894) अग्रणी हैं। इन्होंने भाषा के विकास और भाषा के अध्ययन पर पुस्तकें लिखीं। 1876 में प्रकाशित इनक संस्कृत व्याकरण अपने क्षेत्र का अद्वितीय ग्रंथ है। श्लाइखर के तुरंत बाद फिक (1833-1916) ने 1868 में सर्वप्रथम भारत-यूरोपीय भाषाओं का तुलतात्मक शब्दकोश प्रकाशित किया, जिसमें आदि भाषा के पुनर्रचित रूप भी दिए गए थे।
कुछ समय बाद विद्वानों का ध्यान ग्रिम नियम की कुछ अंसगतियों पर गया। डेनमार्क वासी वार्नर ने 1875 में एक ऐसी असंगति को नियमबद्ध अपवाद के रूप में स्थापित किया। यह असंगति थी भारत-यूरोपीय प्‌, त्‌, क्‌ का जर्मनीय में सघोष बन जाना। वार्नर ने ग्रीक और संस्कृत की तुलना से इसका अपवाद ढूँढ़ निकाला जो वार्नर नियम के नाम से प्रचलित है। ऐसे अपवादों की स्थापना से विद्वानों के एक संप्रदाय को उनके अपने विश्वासों में पुष्टि मिली। ये नव्य वॅयाकरण (Jung grammatiker) कहलाते हैैं। इनके मत से स्वन नियमों का कोई अपवाद नहीं होता। स्वन परिवर्तन आकस्मिक और अव्यवस्थित नहीं है, प्रत्युत नियत और सुव्यवस्थित हैं। असंगति इस कारण मिलती है कि हम उनकी प्रक्रिया को पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं, क्योकि भाषा के नमूनों की कमी है। कुछ असंगतियों के मूल में सादृश्य है, जिसकी पूर्वाचार्यो ने उपेक्षा की थी। इस प्रकार ये नव्य वैयाकरण बड़े व्यवस्थावादी थे।

20वीं शती

ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान पर 20वीं सदी में भी कार्य हुआ है। भारत यूरोपीय परिवार पर ब्रुगमैन और डेलब्रुक एवं हर्मन हर्ट (Hermann Hirt) के तुलनात्मक व्याकरण महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। मेइए (Meillet) का भारत-यूरोपीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन की भूमिका नामक ग्रंथ सनातन महत्व का कहा जा सकता है। हिटाइट नामक प्राचीन भाषा का पता लगने के बाद भारत-यूरोपीय भाषा विज्ञान पर नये सिरे से कार्य प्रारंभ हुआ। भारत यूरोपीयेतर परिवारों पर ऐतिहासिक तुलनात्मक कार्य हो रहा है। ग्रीनबर्ग का अफ्रीकी भाषाओं का वर्गीकरण अनुकरणीय है। इसकी अधुनातन शाखा भाषा कालक्रम विज्ञान (Giotto chronology या Lixico statistics) है, जिसके अंतर्गत तुलनात्मक पद्धति से उस समय के निरूपण का प्रयास किया जाता है जब किसी भाषापरिवार के दो सदस्य पृथक्‌ पृथक्‌ हुए थे। अमरीकी मानव विज्ञानी मॉरिस स्वेडिश इस प्रक्रिया के जन्मदाता हैं। यह पद्धति रेडियो रसायन द्वारा ली गई है।

वर्णनात्मक भाषाविज्ञान

बीसवीं शती का भाषाविज्ञान मुख्यत: वर्णनात्मक अथवा संरचनात्मक भाषाविज्ञान कहा जा सकता है। इसे आधुनिक रूप देने वालों में प्रमुख बॉदें (Baudouin de courtenay), हेनरी स्वीट और सोसुर (Saussure) हैं। स्विस भाषा वैज्ञानिक सोसुर (1857-1913) द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों से भी पूर्व हंबोल्ट (Humboldt) ने प्रतिपादित किया था कि भाषाविशेष का अध्ययन किसी अन्य भाषा से तुलना किए बिना उसी भाषा के आंतरिक अवयवों के आधार पर होना चाहिए। सोसुर ने सर्वप्रथम भाषा की प्रवृति पर प्रकाश डालते हुए संकेतित (Signified) और संकेतन (Signifier) के संबंध को वस्तु न मानकर प्रकार्य (function) माना और उसे भाषाई चिह्न (Linguistic Sign) से अभिहित किया। चिह्न यादृच्छिक है अर्थात ‘संकेतित’ का ‘संकेतक’ से कोई तर्कसंगत संबंध नहीं है। वृक्ष के लिये ‘पेड़’ कहने में कोई तर्क नहीं है; ‘प’, ‘ए’, ‘ड’, श्स्वनों कुछ ऐसा नहीं कि वह वृक्ष का ही संकेतक हो, यह केवल परंपरा के कारण है। इसके अतिरिक्त चिह्न का मूल्य भाषा में प्रयुक्त पूरी शब्दावली (अन्य सभी चिह्नों) के परिप्रेक्ष्य में होता है, अर्थात्‌श् उनके विरोध से होता है। भाषा का इन्हीं विरोधों की प्रकार्यता पर निर्भर रहना वर्णनात्मक भाषा विज्ञान का आधारस्तंभ है। इन (स्वनिम, रूपिम, अर्थिम आदि) की सत्ता विरोध के सिद्धांत पर ही आश्रित है।
सोसूर ने भाषा के दो प्रयोगों पैरोल (वाक) और लांग (भाषा) में भी भेद किया। प्रथम भाषा का जीवित रूप है, हमारा भाषणउच्चार पैरोल है। किंतु द्वितीय भावानयन (Abstraction) की प्रक्रिया से उद्भूत एक अमूर्त भावना है। आपकी हिंदी, हमारी हिंदी, सभी की हिंदी व्यक्तिगत स्तर पर उच्चारण शब्दप्रयोगादि भेद से भिन्न है: फिर भी हिंदी भाषा जैसी अमूर्त धारणा लांग है जो भावानयन प्रक्रिया का परिणाम है और जो इन अनेक वैयक्तिक भेदों स परे और सामान्यकृत हैं। यह साकालिक है (Synchronic) है। सोसुर का महत्व संरचनत्मक भाषाविज्ञान में क्रांतिकारी माना जा सकता है। परकालीन यूरोप के अनेक स्कूल कोपेनहेगेन, प्राहा (प्राग) लंदन तथा अमेरिका के भाषावैज्ञानिक संप्रदाय इनके कुछ मूल सिद्धांतों को लेकर विकसित हुए हैैं।

प्राहा स्कूल

यूरोप में सोसुर की प्रेरणा से विकसित एक संप्रदाय प्राह स्कूल के नाम से प्रसिद्ध है। इसके प्रवर्तक रूसी विद्वान त्रुबेजकोय (Trubetzkoy, 1890-1938) थे। इस समय इसके मुख्य प्रचारक रोमन यॉकोबसन हैं। इस स्कूल की सिद्धांत प्रदर्शिका पुस्तक त्रबेजकोआ लिखित (Grundzige der Phonologie), 1936 स्वनप्रक्रिया के सिद्धांत है इस स्कूल में स्वनप्रक्रिया (Phonology) पर विशेष बल दिया जाता है। इनके यहाँ यह शब्द एक विशेष विस्तृत अर्थ मेें प्रयुक्त होता है। इसके अंतर्गत भाषण स्वनों के प्रकार्य का सर्वागीण अध्ययन आ जाता है, और इसी कारण ये लोग प्रकार्यवादी (Functionalists) कहलाते हैं। इस संप्रदाय की महत्ता भाषासंरचना की निर्धारक पद्धति में है जिसमें विचार किया जाता है स्वन इकाइयाँ विशिष्ट भाषा संबंधी व्यवस्थाओं मेें किस प्रकार संघटित होती है। यह पद्धति विरोध पर आश्रित है। स्वनात्मक अंतर जब अर्थात्मक अंतर को भी प्रकट करते हैं, विरोधात्मक अर्थात स्वनिमात्मक (Phonematic) माने जाते हैं। उदाहरण के लिये हिंदी काल और गाल शब्दों को लें। इनमें स्वनात्मक अंतर स्वनिमात्मक है। परिणामस्वरूप ‘क’ और ‘ग’ दो पृथक पृथक्‌ स्वनिम हैं। यहाँ यह ध्यान देना चाहिए कि क और ग स्वत: स्वनिम नही है, ये स्वनिम केवल इस कारण हैं कि अर्थ के अनुसार ये विरोधात्मक हैं। स्वन स्वत: स्वनिम को निर्धारित नहीं करते स्वनिमत्व की निर्धारक है इन स्वनों की विरोधात्मक प्रकार्यता। इस प्रकार, स्वनिम ‘क, ग’ (क ग) स्वनों केश् समान वास्तविक नहीं है। ये केवल अमूर्त भाव या विरोधात्मक प्रकार्यों के योग हैं। यह विरोध इस संप्रदाय में बड़े विस्तार के साथ वर्णित हुआ है। इसके अनेक प्रतिरूप युग्म, जैसे द्विपार्श्विक, बहुपार्श्विक आनुपातिक, विलगति आदि परिभाषित किए गए हैं। निवैषम्यीकरण (Neutralization), आर्कीस्वनिम (Archiphoneme), सहसंबध (Correlation), आदि टेकनिकल शब्द इसी स्कूल के हैं। फ्रांस के आंद्रे मार्तिने (Andres Martinet) ने इस विरोध की महत्ता का ऐतिहासिक स्वनविकास में भी प्रयोग किया और कालक्रमिक स्वनप्रक्रिया की नींव डाली। कालक्रम से उत्पन्न अनेक स्वनपरिवर्तन भाषा की स्वनसंघटना में भी अंतर उपस्थित करते हैं। ये प्रकार्यात्मक परिवर्तन कहलाते हैं। ये प्रकार्यात्मक परिवर्तन भी व्यवस्था से आते हैं और सामंजस्य (harmony) अथवा लाघव (economy) की दिशा में होते हैं। इस प्रकार प्राहा स्कूल ऐतिहासिक विकासों की भी तर्कसंगत व्याख्या में सफल हुआ है।

कोपेहेगेन स्कूल

इन्हीं दिनों यूरोप में एक अन्य संप्रदाय चल निकला। यह ‘कोपेनहेगेन स्कूल’, ‘डेनिश स्कूल’, अथवा ‘ग्लासेमेटिक्स’ कै नाम से प्रसिद्ध है। इसके प्रर्वतक ह्मेल्मस्लेव (Hjelmslev) (सन्‌ 1899) हैं और इनकी सिद्धांत दर्शिका है Omkring Sprogteorienx Grundloeggelse, 1943 अंग्रेज़ी अनुवाद ह्विटफील्ड द्वारा Prolegomena to a Theory of Language, 1953। यह संप्रदाय अधिकतर सिद्धांतों के विवेचन में सीमित रहा। पर अभी इन सिद्धांतों का भाषाविशेष पर प्रयोग अत्यल्प मात्रा में हुआ है इस संप्रदाय की महत्ता इसमें है कि यह शुद्ध रूपवादी है। भाषा को यह भी सोसुर की भाँति मूल्यों की व्यवस्था मानता है, किंतु भाषाविश्लेषण में भाबेतर तत्वों का तथा भाषाविज्ञानेतर विज्ञानों का, जैसे भौतिकी, शरीरप्रक्रियाविज्ञान, समाजशास्त्र आदि का आश्रय नही लेना चाहता। विश्लेषण पद्धति शुद्ध भाषापरक होनी चाहिए स्वयं में समर्थ और स्वयं में पूर्ण। इस संप्रदाय में अभिव्यक्ति (expression) और आशय (content) प्रत्येक के दो दो भेद किए गए रूप और सार भाषेतर तत्व है। रूप शुद्ध भाषापरक तत्व है जो सार तत्वों की संघटना व्यवस्था के रूप में है। इस प्रकार अभिव्यक्ति बनती है, और अभिव्यक्ति के रूप में संरचना व्यवस्था, जैसे, स्वनिम, रूपिम आदि है। इसी प्रकार आशय के सार के अंतर्गत शब्दार्थ हैं और रूप में अर्थसंघटना है

लंदन स्कूल

हेनरी स्वीट इसके आधारस्तंभ कहे जा सकते है। इसका विशेष परिवर्धन लंदन विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञान तथा स्वनविज्ञान के विद्वान प्रोफेसर फर्थ द्वारा हुआ है। यह स्कूल अर्थ को भी मान्यता देता है। इसके अनुसार भाषा एक सार्थक क्रिया है और अर्थप्रसंग के महत्व को भी स्वीकार किया गया है। इस स्कूल में ध्वन्यात्मक विवेचन के साथ ही साथ रागात्मक तत्वों की चर्चा होती है। रागात्मक विश्लेषण अमेरिकी स्वनिम वैज्ञानिक विश्लेषण से भिन्न है और इसका क्षेत्र कहीं अधिक विस्तृत है। रागात्मक विश्लेषण बहुव्यवस्थाजनित है, जब कि स्वनिम विज्ञान एकव्यवस्थाजनित है। फर्थ ने जिस रागात्मक स्वनप्रक्रिया का प्रवर्तन किया उसे आगे बढ़ानेवालों में मुख्य हें रॉबिंस, लायंस (Lyons), हेलिडे और डिक्शन। जहाँ तक स्वनविज्ञान का संबंध है, लंदन स्कूल के अंतर्गत स्वीट के बाद डेनियल जोन्स का कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

अमरीकी स्कूल

यद्यपि ‘प्राहास्कूल’ और ‘कोपेनहेगन स्कूल’ जैसे शब्दों के वजन पर अमरीकी स्कूल नामकरण उचित नहीं होगा, क्योंकि यहाँ केवल एक पद्धति पर काम नहीं हुआ; फिर भी सुविधा के लिये अमेरिकी स्कूल कहा गया है। अमरीका में संरचनात्मक भाषाविज्ञान के प्रवर्तकों में बोआज (1858-1942), सैपीर (1884-1939) तथा ब्लूमफील्ड (1887-1949) के नाम आते हैं। इनमें पहले दो मूलत: मानवविज्ञानी थे तथा भाषाविश्लेषण उनके लिये व्यावहारिक आवश्यकता थी। उन्होंने अमरीकी जंगली जातियों की भाषाओं के वर्णन का प्रयास किया है। ब्लूमफील्ड निस्संदेह ऐतिहासिक तुलनात्मक भाषाविज्ञान के अच्छे ज्ञाता थे और जर्मनीय भाषाओं पर उनका पूर्ण अधिकार था। ब्लूमफील्ड अमरीकी भाषाविज्ञान के प्रेरणास्त्रोत रहे हैं अैर आप की पुस्तक भाषा (लैंग्वेज) बड़े आदर के साथ पढ़ी-पढ़ाई जाती है। ब्लूमफील्ड की महत्ता इसमें है कि इन्होंने भाषाविज्ञान को विज्ञान की कोटि में स्थापित किया और व्याकरण तथा भाषाई विवेचन को सही अर्थो में विज्ञान का रूप दिया। इनका आग्रह रहा है कि भाषा का विश्लेषण वर्गीकरण तथा प्रस्तुतीकरण वैज्ञानिक रीति से होना चाहिए । अर्थ का भाषाविश्लेषण से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। मनोविज्ञान दर्शन आदि का आश्रय नहीं लेना चाहिए, न अटकलें लगानी चाहिए और न शिथिल अस्पष्ट शब्दावली में तथ्यों को प्रकट करना चाहिए। स्वन नियमों की अटूटता में इनका विश्वास था। किंतु ब्लूमफील्ड ने विश्लेषण पद्धति पर कोई विशेष प्रकाश नहीं डाला। यह कमी उनकी अगली पीढ़ी के विद्वानों ने पूरी की। पाइक ने 'स्वनिविज्ञान' में और नाइडा ने रूपप्रक्रिया (Morphology) में विश्लेषण पद्धति का विस्तार विवेचन किया है। पाइक ने टैग्मेमिक पद्धति निकाली जो कि रूपप्रक्रिया और वाक्यप्रक्रिया दोनों में एक समान प्रयुक्त होने से स्पृहणीय हो गई है। इस पद्धति पर अनेकानेक भाषाओं के विश्लेषण और विवरण प्रस्तुत किए गए हैं और सर्वत्र यह सफल रही है। इन्हीं के समकालीन जैलिग हैरिस (Zellig Harris) ने भी संरचनात्मक पद्धति पर अपनी पुस्तक लिखी। इसी समय वेल्स ने अव्यवहित अवयव की पद्धति से वाक्यों का विश्लेषण करना शुरू किया, जिसे अनेक भाषाविदों ने अपनाया। फिर हैरिस के शिष्य चौमस्की (Chomsky) ने एक नितांत गणितीय एवं तर्कसंगत पद्धति निकाली। यह है रूपांतरण-जनन (ट्रांसफॉर्मेशन जैनरेटिव) पद्धति यह अधुनातन पद्धति है और भाषावैज्ञानिकों को सर्वाधिक प्रिय हो चली है। अब हैरिस ने अव्यवहित अवयव पद्धति और रूपांतरण विश्लेषण पद्धति की कमियों को देखते हुए सूत्र अवयव विश्लेषण पद्धति और रूपांतरण पद्धति के बीच का रास्ता है। यह प्रत्येक वाक्य में से एक ‘मौलिक वाक्य’ पृथक कर देती है अव्यवहित अवयव विश्लेषण पद्धति में इस तरह ‘मौलिक वाक्य’ का पृथक्करण नहीं होता जब कि रूपांतरण विश्लेषण पद्धति में पूरे वाक्य को अलग अलग ‘मौलिक वाक्यों’ और उनके ‘अनुलग्नक शब्दों’ में पृथक कर दिया जाता है। स्वनिमिक, रूपिमिक और वाक्य स्तर पर भाषा का विश्लेषण प्रस्तुत करने का महत्वपूर्ण कार्य जितना पुस्तकें लिखकर किया गया है, उससे कहीं अधिक भाषाविज्ञान ने संबंधित अमरीकी पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से हुआ है। इनके लेखकों में से कुछ हैंश् : ब्लॉक, हैरिस, हॉकेट, स्मिथ, ट्रेगर, वेल्स आदि।

भौगोलिक भाषा विज्ञान

भौगोलिक भाषा विज्ञान (Geographical Lingiustics) इस विषय के अंतर्गत भाषा भूगोल भाषिका (बोली) विज्ञान का अध्ययन आता है। किसी एक उल्लिखित क्षेत्र में पाई जाने वाली भाषा संबंधी विशेषताओं का व्यवस्थित अध्ययन भाषा भूगोल या बोली भूगोल (dialect geography) के अंतर्गत आता है। ये विशेषताएँ अच्चारणगत, शब्दालीगत या व्याकरणगत हो सकती है। सामग्री एकत्र करने के लिये भाषाविज्ञानी आवश्यकतानुसार सूचक चुनता है और टेपरिकार्डर पर या विशिष्ट स्वनात्मक लिपि (Phonetic Script) में नोटबुक पर सामग्री एकत्र करता है। इस सामग्री के संकलन और संपादन के बाद वह उन्हें अलग अलग मानचित्रों पर अंकित करता है। इस प्रकार तुलनात्मक आधार पर वह समभाषांश रेखाओं (Isoglosses) द्वारा क्षेत्रीय अंतर स्पष्ट कर भाषागत या बोलीगत भौगोलिक सीमाएँ स्पष्ट कर देता है। इस प्रकार बोलियों का निर्धारण हो जाने पर प्रत्येक का वर्णनात्मक एवं तुलनात्मक सर्वेक्षण किया जाता है। उनके व्याकरण तथा कोश बनाए जाते हैं। बोलियों के इसी सर्वांगीण वर्णनात्मक तुलनात्मक या ऐतिहासिक अध्ययन को भाषिका (बोली) विज्ञान (Dialectology) कहते हैं।
भाषा भूगोल का अध्ययन 19 वीं शताब्दी में शुरू हुआ। इस क्षेत्र में प्रथम उल्लेखनीय नाम श्लेमर का है, जिन्होंने बवेरियन बोली का अध्ययन प्रस्तुत किया। 19वीं शताब्दी के अंत में पश्चिमी यूरोप में भाषा भूगोल का कार्य व्यापक रूप से हुआ। इस क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं जर्मनी का और फ्रांस का जर्मनी में जार्ज बैंकर आका हरौर रीड का कार्य तथा फ्रांस में गिलेरी और एडमंट का कार्य महत्वपूर्ण है। लगभग इसी समय 'इंग्लिश डायलेक्ट सोसायटी' ने भी कार्य शुरू किया जिसके प्रणेता स्वीट थे। सन्‌ 1889 से अमेरिका में बोली कोश या भाषा एटलस के लिये सामग्री एकत्र करने के लिये अमेरिकन डायलेक्ट सोसायटी की स्थापना हूई। व्यवस्थित कार्य मिशिगन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. हंस कुरेथ केश् नेतृत्व में सन 1928 में शुरू हुआ। अमेरिका के ब्राउन विश्वविद्यालय और अमेरिकन कौंसिल ऑव लर्नेड सोसायटीज ने उनके 'लिंग्विस्टिक एटलस ऑव न्यू इंग्लैंड' को छह जिलें में प्रकाशित किया है (1936-43)। उन्हीं के निदेशन में एटलस ऑव दि यूनाइटेड स्टेट्स ऐंड कैनाडा जैसा बृहत्‌ कार्य संपन्न हुआ।

मानव विज्ञानाश्रित भाषाविज्ञान

मानव विज्ञानाश्रित भाषाविज्ञान (Anthropological Linguistics) जब से मानव वैज्ञानिक अध्ययन में भाषाविज्ञान और भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण में मानवविज्ञान की सहायता ली जाने लगी है, मानवविज्ञानश्रित भाषाविज्ञान को एक विशिष्ट कोटि का अध्ययन माना जाने लगा है। इसमें ऐसी भाषाओं का अध्ययन किया जाता है जिनका अपना कोई लिखित रूप न हो और न उनपर पहले विद्वानों ने कार्य ही किया हो। अर्थात्‌ ज्ञात संस्कृति से अछूत आदिम जातियों की भाषाओं का वर्णनात्मक, ऐतिहासिक और तुलनात्मक अध्ययन इस कोटि के अंतर्गत आता है। इसका एक रूप मानवजाति भाषा विज्ञान (Ethno-linguistics) कहलाता है। अलबर्ट गलेशन (Albert Gallation 1761-1840) ने भाषा आधार पर अमरीकी वर्गों का विभाजन किया। जे. डब्ल्यू पावेल (1843-1902) और डी0 जी0 ब्रिंटन (1837-1890) ने अमरीकी इंडियनों की भाषा का अध्ययन किया। हबोल्ट (1767-1835) के अध्ययन के बाद 19वीं शताब्दी के मध्य में मानव जाति-विज्ञान और भाषाविज्ञान में घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ और तदनंतर इस क्षेत्र में अधिकाधिक कार्य होने लगा। सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य सपीर का है जो (Time perspective in Aborigina American Culture) (1916) के नाम से सामने आया। वूर्फ होपी ने बौली पर कार्य किया है। ब्लूफील्ड ने केंद्रीय एल्गोंकियन, सी. मीनॉफ ने (बांटू और ओ. डैम्पोल्फ (O Dempwlaff) ने मलाया पोलेनीशियम क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किया। ली (Lee) का विंटो पर और हैरी (Harry Hoijer) का नाहोवो (Nahovo) पर किया गया कार्य भाषा और संस्कृति के पारस्परिक संबंध पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। इस प्रकार अमेरिकी स्कूल के भाषावैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में बड़ा कार्य किया है। अमेरिका से ही (Anthropological Linguistics) नामक पत्रिका निकलती है जिसमें इस क्षेत्र में होनेवाला अनुसंधानकार्य प्रकाशित होता रहता है।

भाषाविज्ञान का प्रयोगात्मक पक्ष

विज्ञान की अन्य शाखाओं के समान भाषाविज्ञान के भी प्रयोगात्मक पक्ष हैं, जिनके लिये प्रयोग की प्रणालियों और प्रयोगशाला की अपेक्षा होती है। भिन्न भिन्न यांत्रिक प्रयोगों के द्वारा उच्चारणात्मक स्वनविज्ञान (articulatory phonetics), भौतिक स्वनविज्ञान (acoustic phonetics) और श्रवणात्मक स्वनविज्ञान (auditory phonetics) का अध्ययन किया जाता है। इसे प्रायोगिक स्वनविज्ञान, यांत्रिक स्वनविज्ञान या प्रयोगशाला स्वनविज्ञान भी कहते हैं। इसमें दर्पण जैसे सामान्य उपकरण से लेकर जटिलतम वैद्युत उपकरणों का प्रयोग हो रहा है। परिणामस्वरूप भाषाविज्ञान के क्षेत्र में गणितज्ञों, भौतिक शास्त्रियों और इंजीनियरों का पूर्ण सहयोग अपेक्षित हो गया है। कृत्रिम तालु और कृत्रिम तालु प्रोजेक्टर की सहायता से व्यक्तिविशेष के द्वारा उच्चारित स्वनों के उच्चारण स्थान की परीक्षा की जाती है। कायमोग्राफ स्वानों का घोषणत्व और प्राणत्व निर्धारण करने अनुनासिकता और कालमात्रा जानने के लिये उपयोगी है। लैरिंगो स्कोप से स्वरयंत्र (काकल) की स्थिति का अध्ययन किया जाता है। एंडोस्कोप लैरिंगोस्कोप का ही सुधरा रूप है। ऑसिलोग्राफ की तरंगें स्वनों के भौतिक स्वरूप को पर्दे पर या फिल्म पर अत्यंत स्पष्टता से अंकित कर देती है। यही काम स्पेक्टोग्राफ या सोनोग्राफ द्वारा अधिक सफलता से किया जाता है। स्पेक्टोग्राफ जो चित्र प्रस्तुत करता है उन्हें पैटर्न प्लेबैक द्वारा फिर से सुना जा सकता है। स्पीचस्ट्रेचर की सहायता से रिकार्ड की हुई सामग्री को धीमी गति से सुना जा सकता है। इनके अतिरिक्त और भी छोटे बड़े यंत्र हैं, जिनसे भाषावैज्ञानिक अध्ययन में पर्याप्त सहायता ली जा रही है।
फ्रांसीसी भाषावैज्ञानिकों में रूइयो ने स्वनविज्ञान के प्रयोगों के विषय में (Principes phonetique experiment, Paris, 1924) ग्रंथ लिखा था। लंदन में प्रो. फर्थ ने विशेष तालुयंत्र का विकास किया। स्वरों के मापन के लिये जैसे स्वरत्रिकोण या चतुष्कोण की रेखाएँ निर्धारित की गई हैं, वैसे ही इन्होंने व्यंजनों के मापन के लिये आधार रेखाओं का निरूपण किया, जिनके द्वारा उच्चारण स्थानों का ठीक ठीक वर्णन किया जा सकता है। डेनियल जांस और इडा वार्ड ने भी अंग्रेजी स्वनविज्ञान पर महत्वपूर्ण कार्य किया है। फ्रांसीसी, जर्मन और रूसी भाषाओं के स्वनविज्ञान पर काम करने वालों में क्रमश: आर्मस्ट्राँग, बिथेल और बोयानस मुख्य हैं। सैद्धांतिक और प्रायोगिक स्वनविज्ञान पर समान रूप से काम करने वाले व्यक्तियों में निम्नलिखित मुख्य हैं: स्टेटसन (मोटर फोनेटिक्स 1928), नेगस (द मैकेनिज्म ऑव दि लेरिंग्स,1919) पॉटर, ग्रीन और कॉप (विजिबुल स्पीच), मार्टिन जूस (अकूस्टिक फोनेटिक्स, 1948), हेफनर (जनरल फोनेटिक्स 1948), मौल (फंडामेंटल्स ऑव फोनेटिक्स, 1963) आदि।

इधर एक नया यांत्रिक प्रयास आरंभ हुआ है जिसका संबंध शब्दावली, अर्थतत्व तथा व्याकरणिक रूपों से है। यांत्रिक अनुवाद के लिए वैद्युत कम्प्यूटरों का उपयोग वैज्ञानिक युग की एक विशेष देन है। यह अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान का अत्यंत रोचक और उपादेय विषय है।

अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान

जिस प्रकार सामान्य विज्ञान का व्यावहारिक पक्ष अनुप्रयुक्त विज्ञान है, उसी प्रकार भाषाविज्ञान का व्यावहारिक पक्ष अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान है । भाषासंबंधी मौलिक नियमों के विचार की नींव पर ही अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की इमारत खड़ी होती है। संक्षेप में, इसका संबंध व्यावहारिक क्षेत्रों में भाषाविज्ञान के अध्ययन के उपयोग से है। इंग्लैंड में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के केंद्र लंदन विश्वविद्यालय और एडिनबरा विश्वविद्यालय है। भाषाविज्ञान का सर्वाधिक उपयोग भाषाशिक्षण के क्षेत्र में किया जा रहा है। भाषा देशी हो या विदेशी, स्वयं सीखनी हो या दूसरों को सिखानी हो, सभी कार्यो के लिये भाषाविज्ञान का ज्ञान उपयोगी होता है। इस भाषाशिक्षण के अंतर्गत वास्तविक शिक्षण पद्धति और पाठ्‌य पुस्तकों की रचना, दोनों ही सम्मिलित हैं। इस कार्य के लिये तुलनात्मक वर्णनात्मक-भाषाविज्ञान और शब्दावली-अध्ययन से भरपूर सहायता मिल सकती है। विदेशी छात्रों को अँग्रजी, फ्रांसीसी, रूसी आदि भाषाओं की शिक्षा देने के लिए इंग्लैड, अमरीका, फ्रांस और रूस आदि देशों में व्यापक अनुसंधान कार्य हो रहा है। आशु लिपि की व्यवस्थित पद्धति के निर्माण में शब्दावली अध्ययन की बड़ी उपादेयता है। टाइपराइटर के कीबोेर्ड की क्रम-व्यवस्था में भी भाषाविज्ञान का ज्ञान आवश्यक है।

वर्तमान युग

आज के युग में भाषाविज्ञान का महत्व इसलिये भी बढ़ रहा है कि उसका उपयोग भाषाशिक्षण के अतिरिक्त स्वचालित या यांत्रिक अनुवाद (automatic or machine translation) के क्षेत्र में भी बहुत ही लाभदायक सिद्ध हो रहा है। एक भाषा के सूचनापरक तथा वैज्ञानिक साहित्य का दूसरी भाषा में मानव मस्तिष्क के अनुरूप ही इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटरों (परिकलन यंत्रों) की सहायता से अनुवाद कर देना दिन-प्रति-दिन अधिकाधिक संभव होता जा रहा है इस क्षेत्र में व्यापक अनुसंधान अमरीका और रूस में हो रहा है, जो भाषावैज्ञानिकों और वैद्युत इंजीनियरों के परस्पर सहयोग का फल है। यांत्रिक अनुवाद का मूल विचार सन्‌ 1946 में वारेन वीवर और ए. डी. बूथ के बीच स्वचालित अंक परिकलन यंत्र automatic digital computers के विषय में परिचर्चा के समय उठा। बूथ और डौ. एच. बी. ब्रिटन ने 1947 में इंस्टिट्यूट फॉर एडवांस्ड स्टडी, प्रिंस्टन में स्वचालित कंप्यूटर से कोश का अनुवाद करने के लिए, एक विस्तृत 'कोड' तैयार किया। 1948 में आर. एच. रिचनस (R.H Richens) ने कोरे शब्दानुवाद के साथ साथ ब्याकरणिक रूपों का यांत्रिक अनुवाद कर सकने की संभावना प्रकट की। अमेरिका में यांत्रिक अनुवाद पर महत्वपूर्ण कार्य जुलाई सन्‌ 1946 में वारैन वीवर के अनुवाद नामक ज्ञापन के प्रकाशित होने पर शुरू हुआ। अनेक विश्व विद्यालयों और टेकनॉलॉजी संस्थानों ने इस कार्य को अपने हाथ में लिया। 1950 में रेफलर (Reifler) ने Studies in Mechanical Translation नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें अनुवाद पर पूर्व संपादन और अनुवादोत्तर संपादन का प्रस्ताव रखा। फिर यांत्रिक अनुवाद पर अतरराष्ट्रीय सम्मेलन होने लगे, पत्र-पत्रिकाएँ निकलीं ओर रूसी से अंग्रेज़ी में अनुवाद होने लगे। इस विषय पर इंग्लैड, अमरीका, जर्मनी और रूस में शोध कार्य चल रहा है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भाषाविज्ञान (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 10 मार्च, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

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