सप्तपर्णा -महादेवी वर्मा: Difference between revisions

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<poem>एको रसः करुण एव निमित्त भेदा-
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दभित्रः पृथक पृथगिवाश्रयते विवर्त्तान्।
दभित्रः पृथक् पृथगिवाश्रयते विवर्त्तान्।
आवर्तबुदबुद् तरंगमयान् विकारा-
आवर्तबुदबुद् तरंगमयान् विकारा-
नम्भों यथा सलिलमेव तु तत्समग्रम्।।</poem></blockquote>
नम्भों यथा सलिलमेव तु तत्समग्रम्।।</poem></blockquote>

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सप्तपर्णा -महादेवी वर्मा
कवि महादेवी वर्मा
मूल शीर्षक सप्तपर्णा
प्रकाशक लोकभारती प्रकाशन
प्रकाशन तिथि 1 जनवरी 2008
ISBN 978-81-8031-339
देश भारत
भाषा हिंदी
प्रकार काव्य संग्रह
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द

सप्तपर्णा महादेवी वर्मा का छठा कविता-संग्रह है जिसका प्रकाशन 1949 में हुआ था। इसमें वैदिक, लौकिक एवं बौद्ध साहित्य के काव्यानुवाद है।

पुस्तकांश

मनुष्य की स्थूल पार्थिव सत्ता उसकी रंग-रूपमयी आकृति में व्यक्त होती है। उसके बैद्धिक संगठन से जीवन और जगत सम्बन्धी अनेक जिज्ञासाओं, उनके तत्व के शोध और समाधान के प्रयास, चिन्तन की दिशा आदि संचालित और संयमित होते हैं। उसकी रागात्मक वृत्तियों का संघात उसके सौन्दर्य-संवेदन, जीवन और जगत के प्रति आकर्षण-विकर्षण, उन्हें अनुकूल और मधुर बनाने की इच्छा, उसे अन्य मानवों की इच्छा से सम्पृक्त कर अधिक विस्तार देने की कामना और उसकी कर्म-परिणति आदि का सर्जक है। कृती कवि श्री सुमित्रानन्दन पन्त को जिनकी षष्ठिपूर्ति के वर्षों ने, नूतन किशलय-सुमनों में नव नव अवतार लेने वाले पल्लवों के समान झर कर सार्थकता पाई है।[1]

विशेष

मनुष्य को स्थूल पार्थिव सत्ता उसकी रंग-रूपमयी आकृति में व्यक्त होती है। उनके बौद्धिक संगठन से, जीवन और जगत सम्बन्धी अनेक जिज्ञासायें, उनके तत्व की शोध और समाधान के प्रयास, चिन्तन की दिशा आदि संचालित और संयमित होते हैं। उसकी रागात्मक वृत्तियों का संघात उसके सौन्दर्य-संवदेन, जीवन और जगत के प्रति आकर्षण-विकर्षण उन्हें अनुकूल और मधुर बनाने की इच्छा, उसे अन्य मानवों की इच्छा से सम्पृक्त कर अधिक विस्तार देने की कामना और उसकी कर्म-परिणति आदि का सर्जक है। मानव-जाति की इन मूल प्रवृत्तियों के लिए वही सत्य है जो भवभूति ने करुण रस के सम्बन्ध में कहा है-

एको रसः करुण एव निमित्त भेदा-
दभित्रः पृथक् पृथगिवाश्रयते विवर्त्तान्।
आवर्तबुदबुद् तरंगमयान् विकारा-
नम्भों यथा सलिलमेव तु तत्समग्रम्।।

एक करुण रस ही निमित्त भेद से भिन्न-भिन्न मनोविकारों में परिवर्तित हो जाता है, जिस प्रकार आवर्त, बुदबुद्, तरंग आदि में परिवर्तित जल, जल ही रहता है। यह निमित्त भेद अर्थात् देश, काल, परिवेश आदि से उत्पन्न विभिन्नातायें, एक मानव या मानव-समूह को दूसरों से सर्वथा भिन्न नहीं कर देतीं, प्रत्युत् वे उसे पार्थिव, बौद्धिक और रागात्मक दृष्टि से विशेष व्यक्तित्व देकर ही मानव सामान्य सत्य के लिए प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 सप्तपर्णा (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 31 मार्च, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

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