वर्धमान

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महावीर
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भारत के वृज्जि गणराज्य की वैशाली नगरी के निकट कुण्डग्राम में राजा सिद्धार्थ अपनी पत्नी प्रियकारिणी के साथ निवास करते थे। इन्द्र ने यह जानकर कि प्रियकारिणी के गर्भ से तीर्थंकर पुत्र का जन्म होने वाला है, उन्होंने प्रियकारिणी की सेवा के लिए षटकुमारिका देवियों को भेजा। प्रियकारिणी ने ऐरावत हाथी के स्वप्न देखे, जिससे राजा सिद्धार्थ ने भी यही अनुमान लगाया कि तीर्थंकर का जन्म होगा। आषाढ़, शुक्ल पक्ष की षष्ठी के अवसर पर पुरुषोत्तर विमान से आकर प्राणतेन्द्र ने प्रियकारिणी के गर्भ में प्रवेश किया। चैत्र, शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को सोमवार के दिन वर्धमान का जन्म हुआ। देवताओं को इसका पूर्वाभास था। अत: सबने विभिन्न प्रकार के उत्सव मनाये तथा बालक को विभिन्न नामों से विभूषित किया। इस बालक का नाम सौधर्मेन्द्र ने वर्धमान रखा तो ऋद्धिधारी मुनियों ने सन्मति रखा। संगमदेव ने उसके अपरिमित साहस की परीक्षा लेकर उसे महावीर नाम से अभिहित किया।

महावीर के तीस वर्ष सुख-सम्पदा में व्यतीत हुए। उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ तो लोकांतक देवों ने उस भाव को विशेष प्रश्रय दिया। मार्गशीर्ष, कृष्णपक्ष की दशमी के अवसर पर महावीर ने गृहत्याग कर दीक्षा ग्रहण की। उत्तरोत्तर अलौकिक उपलब्धियाँ बढ़ती गईं। सबसे पहले उन्होंने सात ऋद्धियाँ प्राप्त कीं। एक श्मशान में रुद्र के उपसर्ग को धैर्यपूर्ण ग्रहण कर अविचल रहने के कारण वे 'महातिवीर' कहलाए।

वैशाख, शुक्ल पक्ष की दशमी के अवसर पर ऋजुकुला नदी के तट पर स्थित जृंजग्राम में उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। देवताओं ने तरह-तरह से अपने हर्ष का उदघोष किया। इन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी कि वह समवसरण की रचना करे। इन्द्र स्वयं गौतम ग्राम से इन्द्रभूति ब्राह्मण को, उसके पाँच सौ शिष्यों सहित लाया। उन सबने वर्धमान का शिष्यत्व ग्रहण किया। इस प्रकार महावीर ने लगभग तीन वर्ष तक धर्म का प्रचार किया। तदुपरान्त कार्तिक, कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के अन्तिम मुहूर्त में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वर्धमान चरितम, सर्ग 17-18

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