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औरंगज़ेब की मृत्युकाल से लेकर प्लासी की लड़ाई के पूर्वकाल तक बंगाल, बिहार और उड़ीसा की राजनीति मुग़ल प्रशासन से अप्रभावित रहने लगी थी। 'सुकुमार भट्टाचार्य' ने लिखा है कि, "यह सत्य है कि, औरंगज़ेब की मृत्यु से पूर्व ही षड्यन्त्रकारी शाक्तियों ने सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया था। यहाँ तक कि जिस राज्य की जड़े इतनी शक्तिशाली थीं, उन्हें धूल-धूसरित कर दिया गया और अब औरंगज़ेब के वंश में कोई भी ऐसा नहीं रह गया, जो इन षड्यन्त्रों को कुचल सकता। इसका कारण यह था कि, मुग़लों का विशाल साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था, जो सूबेदारों के संरक्षण में थे। प्रत्यक्ष है कि, ऐसा शासन प्रबन्ध शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की उपस्थिति में ही चल सकता था। लेकिन मुग़लों का केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध औरंगज़ेब की अनुपस्थिति में नितान्त शक्तिहीन और अदृढ़ हो गया था।

बादशाह औरंगज़ेब के सारे उत्तराधिकारी जहाँदारशाह, फ़र्रुख़सियर, मुहम्मदशाह आदि अयोग्य थे, जो गिरते साम्राज्य को संभाल नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में मुग़ल सूबेदार अपने प्रान्तों के स्वामी स्वयं बन बैठे। इस कारण मुग़ल साम्राज्य में चारों तरफ़ अशान्ति, उपद्रव षडयन्त्र आदि के बाज़ार गर्म हो गये। दक्षिण भारत के राज्य भी अशान्त हो उठे। दक्षिण में निज़ामुलमुल्क, आसिफ़जान और अवध में सआदत अली ख़ाँ ने स्वतन्त्र राजसत्ता का प्रयोग किया। इसी मार्ग का अनुशीलन रूहेलखण्ड के अफ़ग़ान पठानों ने भी किया। मराठों ने भी महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, मालवा और गुजरात पर अधिकार करके पूना को अपने राजनीतिक कार्य-कलापों का केन्द्र बना लिया। अगर 1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली के हाथों पानीपत के मैदान में मराठों को पराजय न मिली होती तो, आज भारतीय इतिहास की एक नई रूपरेखा होती। भारत में काम करने वाली यूरोपीय कम्पनियाँ क्या इस आन्तरिक फूट से लाभ उठाने के लोभ का संवरण कर सकती थीं?

  1. REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें

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