सत्यार्थ प्रकाश

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सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रंथ की रचना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने की थी। दयानन्द सरस्वती ने इस ग्रंथ की रचना हिन्दी में की। हालाँकि उनकी मातृभाषा गुजराती थी, और संस्कृत भाषा का भी इतना ज्ञान उन्होंने अर्जित कर लिया था कि धारा प्रवाह बोल सकते थे, फिर भी स्वामी जी ने 'सत्यार्थ प्रकाश' नामक ग्रंथ की रचना हिन्दी में की। स्वामीजी का कहना था- "मेरी आँख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक ही भाषा बोलने और समझने लग जाएँगे।"

भाषा

कहा जाता है कि जब स्वामी दयानन्द सरस्वती वर्ष 1972 में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में केशवचन्द्र सेन से मिले तो उन्होंने स्वामी जी को यह सलाह दे डाली कि आप संस्कृत छोड़कर हिन्दी बोलना आरम्भ कर दें तो भारत का असीम कल्याण हो। तभी से स्वामी दयानन्द जी के व्याख्यानों की भाषा हिन्दी हो गयी और शायद इसी कारण स्वामी जी ने 'सत्यार्थ प्रकाश' की भाषा भी हिन्दी ही रखी।

अध्याय तथा विषय

'सत्यार्थ प्रकाश' में चौदह अध्याय[1] हैं। इसमें इन विषयों पर विचार किया गया है-

  1. बालशिक्षा
  2. अध्ययन अध्यापन
  3. विवाह एवं गृहस्थ
  4. वानप्रस्थ
  5. संन्यास राजधर्म
  6. ईश्वर
  7. सृष्टि उत्पत्ति
  8. बंधमोक्ष
  9. आचार अनाचार
  10. आर्यवर्तदेशीय मतमतांतर
  11. ईसाई मत तथा इस्लाम

उद्देश्य

स्वामी दयानन्द सरस्वती पूरे देश में घूम-घूमकर शास्त्रार्थ एवं व्याख्यान कर रहे थे। इससे उनके अनुयायियों ने अनुरोध किया कि यदि इन शास्त्रार्थों एवं व्याख्यानों को लिपिबद्ध कर दिया जाय तो ये अमर हो जायें। 'सत्यार्थ प्रकाश' की रचना स्वामी जी के अनुयायियों के इस अनुरोध के कारण ही सम्भव हुई। 'सत्यार्थ प्रकाश' की रचना का प्रमुख उद्देश्य आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार था। इसके साथ-साथ इसमें ईसाई, इस्लाम एवं अन्य कई पंथों व मतों का खण्डन भी है। तत्कालीन समय में हिन्दू शास्त्रों का गलत अर्थ निकाल कर हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को बदनाम करने का षड़यंत्र भी चल रहा था। इसी को ध्यान में रखकर महर्षि दयानन्द ने इसका नाम 'सत्यार्थ प्रकाश' रखा।

समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती की इस रचना (सन 1875) का मुख्य प्रयोजन सत्य को सत्य और मिथ्या को मिथ्या ही प्रतिपादन करना है। यद्यपि हिन्दू जीवन व्यक्ति और समाज, दोनों को समक्ष रखकर चलता है, तो भी हिन्दुओं में प्राय: देखा जाता है कि समष्टिवादी की अपेक्षा व्यक्तिवादी प्रवृत्ति अधिक है। ध्यान में मग्न उपासक के समीप इसी समाज का कोई व्यक्ति तड़प रहा हो तो वह उसे ध्यान भंग का कारण समझेगा, यह नहीं कि वह भी राम या कृष्ण ही है। फिर उन्नीसवीं शती में अंग्रेज़ी सभ्यता का बहुत प्राबल्य था। अंग्रेज़ी के प्रचार के परिणामस्वरूप हिन्दू ही अपनी संस्कृति को हेय मानने और पश्चिम का अंधानुकरण करने में गर्व समझने लगे थे। भारतीयों को भारतीयता से भ्रष्ट करने की लॉर्ड मैकाले की योजना के अनुसार हिन्दुओं को पतित करने के लिए अंग्रेज़ी शिक्षा प्रणाली पर जोर था। विदेशी सरकार तथा अंग्रेज़ समाज अपने एजेंट पादरियों के द्वारा ईसा का झंडा देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फहराने के लिए करोड़ों रुपए खर्च कर रहे थे। हिन्दू अपना धार्मिक एवं राष्ट्रीय गौरव खो चुके थे। 144 हिन्दू प्रति दिन मुसलमान बन जाते; ईसाई इससे कहीं अधिक। पादरी 'रंगीला कृष्ण', 'सीता का छिनाला' आदि सैकड़ों गंदी पुस्तिकाएँ बाँट रहे थे। इन निराधार लांछनों का उत्तर देने के स्थान में ब्राह्म समाज वालों ने उलटे राष्ट्रीयता का विरोध किया। वेद आदि की प्रतिष्ठा करना तो दूर रहा, पेट भर उनकी निंदा की।

लेखक कथन

इस ग्रंथ की भाषा के संबंध में स्वयं लेखक ने सन 1882 में लिखा कि- "जिस समय मैंने यह ग्रंथ बनाया था, उस समय…..संस्कृत भाषण करने….और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण मुझको इस भाषा (हिन्दी) का विशेष परिज्ञान न था। इससे भाषा अशुद्ध बन गई थी। इब…इसको भाषा-व्याकरण-अनुसार शुद्ध करके दूसरी बार छपवाया है।"

स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज और 'सत्यार्थ प्रकाश' के द्वारा इन घातक प्रवृत्तियों को रोका। उन्होंने यहाँ तक लिखा- "स्वराज्य स्वदेश में उत्पन्न हुए (व्यक्ति)….मंत्री होने चाहिएँ। परमात्मा हमारा राजा है…., वह कृपा करके …..हमको राज्याधिकारी करे।" इसके साथ ही उन्होंने आर्य सभ्यता एवं संस्कृति से प्रखर प्रेम और वेद, उपनिषद आदि आर्य सत्साहित्य तथा भारत की परंपराओं के प्रति श्रद्धा भी पर बल दिया। स्वसमाज, स्वधर्म, स्वभाषा तथा स्वराष्ट्र के प्रति भक्ति जगाने तथा तर्क प्रधान बातें करने के कारण उत्तर भारत के पढ़े लिखे हिन्दू धीरे-धीरे इधर खिंचे चले आए, जिससे आर्य समाज सामाजिक एवं शैक्षाणिक क्षेत्रों में लोकप्रिय हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. समुल्लास

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