कामायनी -जयशंकर प्रसाद

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'कामायनी' जयशंकर प्रसाद की और सम्भवत: छायावाद युग की सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है। प्रौढ़ता के बिन्दु पर पहुँचे हुए कवि की यह अन्यतम रचना है। इसे प्रसाद के सम्पूर्ण चिंतन- मनन का प्रतिफलन कहना अधिक उचित होगा। इसका प्रकाशन 1936 ई. में हुआ था।

मनु की कथा

इसमें आदिमानव मनु की कथा ली गयी है। इस काव्य की कथावस्तु वेद, उपनिषद, पुराण आदि से प्रेरित है किंतु मुख्य आधार शतपथ ब्राह्मण को स्वीकार किया गया है। आवश्यकतानुसार प्रसाद ने पौराणिक कथा में परिवर्तन कर उसे न्यायोचित रूप दिया है। 'कामायानी' की कथा संक्षेप में इस प्रकार है- पृथ्वी पर घोर जलप्लावन आया और उसमें केवल मनु जीवित रह गये। वे देवसृष्टि के अंतिम अवशेष थे। जलप्लावन समाप्त होने पर उन्होंने यज्ञ आदि करना आरम्भ किया। एक दिन 'काम पुत्री' 'श्रद्धा' उनके समीप आयी और वे दोनों साथ रहने लगे। भावी शिशु की कल्पना निमग्न श्रद्धा को एक दिन ईष्यावश मनु अनायास ही छोड़ कर चल दिये। उनकी भेंट सारस्वत प्रदेश की अधिष्ठात्री ;इड़ा' से हुई। उसने इन्हें शासन का भार सौंप दिया। पर वहाँ की प्रजा एक दिन इड़ा पर मनु के अत्याचार और आधिपत्य- भाव को देखकर विद्रोह कर उठी। मनु आहत हो गये गये तभी श्रद्धा अपने पुत्र मानव के साथ उन्हें खोजते हुए आ पहुँची किंतु पश्चात्ताप में डूबे मनु पुन: उन सबको छोड़कर चल दिये। श्रद्धा ने मानव को इड़ा के पास छोड़ दिया और अपने मनु को खोजते- खोजते पा गयी। अंत में सारस्वत प्रदेश के सभी प्राणी कैलास पर्वत पर जाकर श्रद्धा और मनु के दर्शन करते हैं।

पन्द्रह सर्ग

'कामायनी' की कथा पन्द्रह सगों में विभक्त है, जिनका नामकरण चिंता, आशा, श्रद्धा, काम, वासना, लज्जा आदि मनोविकारों के नाम पर हुआ है। 'कामायनी' आदि मानव की कथा तो है ही, पर इसके माध्यम से कवि ने अपने युग के महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार भी किया है।

आधुनिक संदर्भ

सारस्वत प्रदेश की प्रज्ञा जिस बुद्धिवदिता और भौतिकवादिता से त्रस्त है, वही आधुनिक युग की स्थिति है। 'कामायनी' अपने रूपकत्व में एक मनोविज्ञानिक और दार्शनिक मंतव्य को प्रकट करती है। मनु मनका प्रतीक है और श्रद्ध तथा इड़ा क्रमश: उसके हृदय और बुद्धिपक्ष है। अपने आंतरिक मनोविकारों से संघर्ष करता हुआ मनु श्रद्धा- विश्वास की सहायता से आनन्द लोक तक पहुँचता है। प्रसाद ने समरसता सिद्धांत तथा समन्वय मागं का प्रतिपादन किया है। अंतिम चार सर्गों में प्रतिपादित दर्शन पर शैवागम का प्रभाव है।

विशिष्ट शैली का महाकाव्य

'कामायनी' एक विशिष्ट शैली का महाकाव्य है। उसका गौरव उसके युगबोध, परिपुष्ट चिंतन, महत उद्देश्य और प्रौढ़ शिल्प में निहित है। उसमें प्राचीन महाकाव्यों का सा वर्णनात्मक विस्तार नहीं है पर सर्वत्र कवि की गहन अनुभूति के दर्शन होते हैं। यह भी स्वीकार करना होगा कि उसमें गीतितत्त्व प्रमुखता पा गये हैं। मनोविकार अतयंत सूक्ष्म होते हैं। उन्हें मूर्त रूप देने में प्रसाद ने जो सफलता पायी है वह उनके अभिव्यक्ति कौशल की परिचायक है। कहीं- कहीं भावपूर्ण प्रकाशन में सम्भव है, सफल न हों, पर शिल्प की प्रौढ़ता 'कामायनी' का प्रमुख गुण है। प्रतीक भण्डार इतना समृद्ध है कि अनेक स्थलों पर कवि चित्र निर्मित कर देता है। इस दृष्टि से श्रद्धा का रूप- वर्णन सुन्दर है। लज्जा जैसे सूक्ष्म भावों के प्रकाशन में 'कामायनी' में प्रसाद के चिंतन- मनन को सहज ही देखा जा सकता है। इसे हम भाव और अनुभूति दोनों दृष्टियों से छायावाद की पूर्ण अभिव्यक्ति कह सकते हैं।

प्रकाशन

1982 में 'कामायनी' की प्रसाद द्वारा प्रस्तुत मूल पांडुलिपि का प्रकाशन हुआ है।[1][2][3]




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सिंह, रामलाल कामायनी अनुशीलन (हिंदी)
  2. प्रसाद का काव्य (हिंदी)
  3. मदान, इंद्रनाथ कामायनी- मूल्यांकन और मूल्यांकन (हिंदी)

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