प्रतिलोम विवाह

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प्रतिलोम विवाह उस विवाह को कहते हैं, जिसमें उच्च कुल की स्त्री निम्न कुल के पुरुष से विवाह करती है। विशेष विवाह अधिनियम 1954, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू विवाह क़ानून (संशोधन) अधिनियम 1976 इत्यादि के कारण अब अंतर्जातीय विवाह को क़ानूनी मान्यता प्राप्त हो गई है। फलस्वरूप प्रतिलोम नियम कमज़ोर हो गया है। इस प्रकार के विवाहों के उदाहरण प्राचीन साहित्य में मिलते हैं। यद्यपि इतिहास में ऐसा समय कभी नहीं रहा, जिसमें प्रतिलोम विवाह, पूर्णरूप से प्रचलित रहे हों। फिर भी कुछ उदाहरण अवश्य मिलते हैं। कदम्ब वंश के शकुतृस्थ वर्मा नामक ब्राह्मण राजा ने अपनी कन्याएँ गुप्त राजाओं की दी थी। प्रतिलोम विवाह के जो उदाहरण मिलते हैं, वे ऊँचे स्तर के व्यक्तियों के हैं। इससे यह विदित होता है कि समान आर्थिक स्तर के व्यक्तियों के सांस्कृतिक जीवन में अंतर नहीं था, इसलिए उनके बीच प्रतिलोम विवाहों की प्रथा प्रचलित थी। 10वीं शताब्दी तक भारत में अनुलोम विवाह उच्च वंशों में समान आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्तर के व्यक्तियों में प्रचलित था। अत: कहा जा सकता है कि अंतर-जातीय विवाह केवल 20वीं शताब्दी की ही अपनी मौलिक विशेषता नहीं हैं।



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