इसराज

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इसराज (अंग्रेज़ी:Esraj) एक प्रकार से सितार और सारंगी का ही रूपांतर है। इसका ऊपरी भाग सितार से मिलता है और नीचे का भाग सारंगी के समान होता है। इसराज को दिलरुवा भी कहते हैं। यद्यपि इसकी शक्ल में थोड़ा अंतर होता है, किंतु बजाने का ढंग एक-सा होता है। इसीलिए इसरज और दिलरुवा पृथक साज नहीं माने जाते।

मुख्य अंग

तूँबा

यह खाल से मढ़ा हुआ होता है। इसके ऊपर घोड़ी या ब्रिज लगा रहता है।

लंगोट

यह तार बाँधने की कील होती है।

डाँड

इसमें परदे बँधे रहते हैं।

घुर्च

यह खाल से मढ़ी हुई तबली के ऊपर का हड्डी का टुकड़ा होता है, जिसके ऊपर तार रहते हैं। इसे 'घोड़ी' या 'ब्रिज' भी कहते हैं।

अटी

सिरे की पट्टी, जिस पर होकर तार तारगहन के भीतर होकर खूँटियों तक जाते हैं।

खूटियाँ

ये तारों को बाँधने और कसने के लिए होती है।

चार तार

बाज का तार

यह मंद्र-सप्तक के माध्यम (म) में मिलाया जाता है।

दूसरा व तीसरा तार
ये दोनों तार मंद्र-सप्तक के षड्ज (स) में मिलाए जाते हैं। इन्हें जोड़ी के तार कहते हैं।
चौथा तार

मंद्र-सप्तक के पंचम (प) में मिलता है। इस प्रकार इसराज के चारों तार म सा सा प में मिलाये जाते हैं। कोई-कोई कलाकार म सा प सा या म सा प प, जिन्हें भिन्न-भिन्न रागों के अनुसार मिला लिया जाता है।

इसराज के परदा

इसराज के सोलह परदे होते हैं, जो कि सितार की भाँति पीतल या स्टील के बने होते हैं। ये परदे निम्नलिखित स्वरों में होते हैं-

नि नि सा रे नि सा रे गं
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16

बजाने का तरीक़ा

सितार की भाँति इसराज में कोमल स्वर बनाने के लिए परदों का खिसकाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, कोमल स्वरों के स्थान पर अँगुली रख देने से ही काम चल जाता है। इसराज बजाने में बाएँ हाथ की तर्जनी और मध्यमा अर्थात पहली व दूसरी अँगुलियाँ काम देती हैं। गज को दाहिने हाथ से पकड़ते हैं। इसराज को बाएँ कंधे के रखकर बजाना चाहिए। प्रारम्भ में गज धीरे-धीरे चलाना चाहिए तथा गज चलाते समय तार को अधिक जोर से नहीं दबाना चाहिए। पहले स्वर साधन का अभ्यास हो जाने पर गतें निकालने की चेष्टा करनी चाहिए। इसराज के प्रमुख कलाकारों में चंद्रिकाप्रसाद दुबे तथा भृगुनाथलाल मुंशी के नाम उल्लेखनीय हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • पुस्तक- संगीत विशारद, लेखक- वसंत, प्रकाशक- संगीत कार्यालय हाथरस, पृष्ठ संख्या- 377

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